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Showing posts from 2007

तस्लीमा, तुम स्वीडेन चली जाओ प्लीज़

तस्लीमा के नाम केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकार की चिट्ठी तस्लीमा, तुम महान हो। बढ़िया लिखती हो। तुम्हारा लिखा हुआ हमारे देश में भी खूब बिकता है। लेकिन तस्लीमा तुम स्वीडेन चली जाओ। तस्लीमा तुमने हमारी धर्मनिरपेक्षता के स्वांग को उघाड़ दिया है। हम कितने महान थे। हम कितने महान हैं। हम लोकतंत्र हैं, हमारे यहां संविधान से राज चलता है, जिसमें विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात नागरिकों के मूल अधिकारों में दर्ज है। लेकिन ये अधिकार तो हम अपने नागरिकों को भी नहीं देते हैं तस्लीमा। हम विनायक सेन को कैद कर लेते हैं। वरवर राव हमारे निशाने पर है। विरोध करने वालों को हम माफ नहीं करते। हमारी जेलों में लेखक रहें ये अंग्रेजों के समय से चली आ रही परंपरा है। और तुम तो विदेशी हो तस्लीमा। नंदीग्राम में हमने एक शख्स को तो इसलिए गिरफ्तार कर लिया है कि उसकी झोली में महाश्वेता की रचनाएं मिली हैं। फिर भी ये लोकतंत्र है तस्लीमा। हमारी भी कुछ इज्जत है। हमारी इज्जत तुम्हारे यहां होने से सरेआम उछल रही है। तस्लीमा, जिद न करो। यूरोपीय लोकतंत्र के सुरक्षित वातावरण में चली जाओ। अब जाओ भी। दफा हो जाओ भारत से

हमारी संस्कृति और जाति व्यवस्था को मत छेड़ो प्लीज़...

...गुलामी भी हम बर्दाश्त कर लेंगे। क्या देश के बीते लगभग एक हजार साल के इतिहास की हम ऐसी कोई सरलीकृत व्याख्या कर सकते हैं? ऐसे नतीजे निकालने के लिए पर्याप्त तथ्य नहीं हैं। लेकिन हाल के वर्षों में कई दलित चिंतक ऐसे नतीजे निकाल रहे हैं और दलित ही नहीं मुख्यधारा के विमर्श में भी उनकी बात सुनी जा रही है। इसलिए कृपया आंख मूंदकर ये न कहें कि ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा है। भारत में इन हजार वर्षों में एक के बाद एक हमलावर आते गए। लेकिन ये पूरा कालखंड विदेशी हमलावरों का प्रतिरोध करने के लिए नहीं जाना जाता है। प्रतिरोध बिल्कुल नहीं हुआ ये तो नहीं कहा जा सकता लेकिन समग्रता में देखें तो ये आत्मसमर्पण के एक हजार साल थे। क्या हमारी पिछली पीढ़ियों को आजादी प्रिय नहीं थी? या फिर अगर कोई उन्हें अपने ग्रामसमाज में यथास्थिति में जीने देता था, उनकी पूजा पद्धति, उनकी समाज संरचना, वर्णव्यवस्था आदि को नहीं छेड़ता था, तो वो इस बात से समझौता करने को तैयार हो जाते थे कि कोई भी राजा हो जाए, हमें क्या? ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर इसका जवाब ढूंढने की कोई कोशिश अगर हुई है, तो वो मेरी जानकारी में नहीं है। देश की लगभग ए

इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौडा

इष्ट देव सांकृत्यायन पिछ्ले दिनो मैने त्रिलोचन जी से सम्बन्धित एक संस्मरण लिखा था. इस पर प्रतिक्रिया देते हुए भाई अनूप शुक्ल यानी फुरसतिया महराज ने और भाई दिलीप मंडल ने आदेश दिया था कि इस विधा के बारे मे मै विस्तार से बताऊँ और अपने कुछ सानेट भी पढवाऊ. मेरे सानेट के मामले मे तो अभी आपको पहले से इयत्ता पर पोस्टेड सानेटो से ही काम चलाना पडेगा, सानेट का संक्षिप्त इतिहास मै आज ही पोस्ट कर रहा हूँ. हाँ, कविता को मै चूँकि छन्दो और रूपो के आधार पर बांटने के पक्ष मे नही हूँ, क्योंकि मै मानता हूँ कि काव्यरूपो के इस झगडे से कविता का कथ्य पीछे छूट जाता है; इसलिए मेरे सॉनेट कविता वाले खांचे मे ही दर्ज है. वैसे यह लेख आज ही दैनिक जागरण के साहित्य परिशिष्ट पुनर्नवा मे प्रकाशित हुआ है और वही लेख दैनिक जागरण के ही मार्फत याहू इंडिया ने भी लिया है. भाई मान्धाता जी ने भी यह लेख अपने ब्लाग पर याहू के हवाले से लिया है. निश्चित रूप से भाई अनूप जी इसे पढ भी चुके होंगे, पर अन्य साथी भी इस विधा के इतिहास-भूगोल से सुपरिचित हो सके इस इरादे से मै यह लेख यहाँ दे रहा हूँ. पहली ही मुलाकात में त्रिलोचन शास्

हमारी गालियों में मैकाले है, क्लाइव नहीं

लेकिन सवाल ये है कि आज क्लाइव और मैकाले की बात ही क्यों करें? सही सवाल है। समय का पहिया इतना आगे बढ़ गया है। ऐसे में इतिहास के खजाने से या कूड़ेदान से कुछ निकालकर लाने का औचित्य क्या है? चलिए इसका जवाब भी मिलकर ढूंढेंगे, अभी जानते हैं इतिहास के इन दो पात्रों के बारे में। आप ये सब वैसे भी पढ़ ही चुके होंगे। स्कूल में नहीं तो कॉलेज में। कौन था क्लाइव क्लाइव न होता तो क्या भारत में कभी अंग्रेजी राज होता? इतिहास का चक्र पीछे लौटकर तो नहीं जाता इसलिए इस सवाल का कोई जवाब नहीं हो सकता। लेकिन इतिहास हमें ये जरूर बताता है कि क्लाइव के लगभग एक हजार यूरोपीय और दो हजार हिंदुस्तानी सिपाहयों ने पलासी की निर्णायक लड़ाई (22 जून, 1757) में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हरा कर भारत में अंग्रेजी राज की नींव रखी थी। वो लड़ाई भी क्या थी? सेनानायक मीरजाफर ने इस बात का बंदोबस्त कर दिया था कि नवाब की ज्यादातर फौज लड़ाई के मैदान से दूर ही रहे। एक दिन भी नहीं लगे थे उस युद्ध में। उस युद्ध के बाद अंग्रेजों ने भारतीय संपदा की लूट का जो सिलसिला शुरू किया, उसकी बराबरी दक्षिण अमेरिका में स्पेन के युद्ध सरदारों की

क्लाइव या मैकाले - किसे पहले जूते मारेंगे आप?

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डिसक्लेमर : इस चर्चा में अगर कोई विचार मेरा है , तो उसका अलग से जिक्र किया जाएगा । - दिलीप मंडल इन दो तस्वीरों को देखिए । इनमें ऊपर वाले हैं लार्ड क्वाइव और नीचे हैं लॉर्ड मैकाले। लॉर्ड वो ब्रिटेन में होंगे हम उन्हें आगे क्लाइव और मैकाले कहेंगे । एक सवाल पूछिए अपने आप से । कभी आपको अगरह कहा जाए कि इनमें से किसी एक तस्वीर को जूते मारो , या पत्थर मारो या गोली मारो या नफरत भरी नजरों से देखो । तो आपकी पहली च्वाइस क्या होगी । अनुरोध इतना है कि इस सवाल को देखकर किसी नए संदर्भ की तलाश में नेट पर या किताबों के बीच न चले जाइएगा । अपनी स्मृति पर भरोसा करें , जो स्कूलों से लेकर कॉलेज और अखबारों से लेकर पत्रिकाओं में पढ़ा है उसे याद करें । और जवाब दें । ये सवाल आपको एक ऐसी यात्रा की ओर ले जाएगा , जिसकी चर्चा कम हुई है । जो इन विषयों के शोधार्थी , जानने वाले हैं , उनके लिए मुमकिन है कि ये चर्चा निरर्थक हो । लेकिन इस विषय पर मैं अभी जगा हूं , इसलिए मेरा सब

...कच्चे ही हो अभी त्रिलोचन तुम!

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इष्ट देव सांकृत्यायन तारीख 9 दिसम्बर 2007 दिन रविवार होने और अरसे बाद रविवार को रविवारी फुर्सत मिलने के कारण में पूरी तफरीह के मूड में था. करीब शाम को आए विनय और देर तक लुक्कड़ई होती रही. बाद में हम उनके ही घर चले गए और वहीं टीवी आन किया. रात साढ़े नौ बजे. मैंने टीवी खोला तो था डीडी भारती का कार्यक्रम 'सृजन' देखने के लिए, पर पहले सामने कोई न्यूज चैनल आ गया. इसके पहले की चैनल सरकाता, नीचे चल रहे एक प्रोमो पर ध्यान गया- "हिन्दी के वरिष्ठ कवि त्रिलोचन का निधन"। सहसा विश्वास नहीं हुआ. इसके बावजूद कि त्रिलोचन इधर काफी समय से बीमार पड़े थे मन ने कहा कि यह शायद किसी और त्रिलोचन की बात है. हालांकि वह किसी और त्रिलोचन की बात नहीं थी. यह तय हो गया ख़बरों के हर चैनल पर यही खबरपट्टी चलते देख कर. यह अलग बात है कि शास्त्री जी के बारे में इससे ज्यादा खबर किसी चैनल पर नहीं थी, पर उस दिन में लगातार इसी सर्च के फेर में फिर 'सृजन' नहीं देख सका। इस प्रलय के बाद फिर सृजन भला क्या देखते! हिन्दी में आचार्य कोटि के वह अन्तिम कवि थे। एक ऐसे कवि जिसमें आचय्त्व कूट-कूट कर भरा था, पर उसका

याद तुम्हारी आई है

नजरें जाती दूर तलक हैं पर दिखती तनहाई है क्या तुम रोते हो रातों में सीली सी पुरवाई है रातों में आते थे अक्सर ख्वाब सुहाने तू हंस दे बेरौनक मुस्कान हुई है रोती सी शहनाई है हम तेरी यादों के सहारे जीते थे खुश होते थे अब उजडा लगता है चमन क्यों फीकी सी रौनाई है गम के सफर में साथ दिया है साया मेरा कदम-कदम जानें क्या अब बात हुई है धुंधली सी परछाई है हमें खबर थी के तुम खुश हो अपनी किस्मत लेकर संग मुद्दत बाद अचानक कैसे याद तुम्हारी आई है रतन

हिंदी के दस हजार ब्लॉग, कई लाख पाठक

नए साल में ब्लॉगकारिता का एजेंडा स्वागत कीजिए 2008 का। हिंदी ब्लॉग नाम के अभी अभी जन्मे शिशु के लिए कैसा होगा आने वाला साल। हम अपनी आकांक्षाएं यहां रख रहें हैं। आकांक्षाएं और उम्मीदें आपकी भी होंगी। तो लिख डालिए उन्हें। अगले साल इन्हीं दिनों में हिट और मिस का लेखाजोखा कर लेंगे। - दिलीप मंडल हिंदी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो अभी ये लक्ष्य मुश्किल दिख सकता है। लेकिन टेक्नॉलॉजी जब आसान होती है तो उसे अपनाने वाले दिन दोगुना रात चौगुना बढ़ते हैं। मोबाइल फोन को देखिए। एफएम को देखिए। हिंदी ब्लॉगिंग फोंट की तकनीकी दिक्कतों से आजाद हो चुकी है। लेकिन इसकी खबर अभी दुनिया को नहीं हुई है। उसके बाद ब्लॉगिंग के क्षेत्र में एक बाढ़ आने वाली है। हिंदी ब्लॉग के पाठकों की संख्या लाखों में हो जब तक ब्लॉग के लेखक ही ब्लॉग के पाठक बने रहेंगे, तब तक ये माध्यम विकसित नहीं हो पाएगा। इसलिए जरूरत इस बात की है कि ब्लॉग उपयोगी हों, सनसनीखेज हों, रोचक हों, थॉट प्रोवोकिंग हों। इसका सिलसिला शुरू हो गया है। लेकिन इंग्लिश और दूसरी कई भाषाओं के स्तर तक पहुंचने के लए हमें काफी लंबा सफर तय करना है। समय कम है, इ

अपनी राम कहानी है

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रतन सपनों के बारे में कहना कुछ कहना बेमानी है दुनिया के लोगों जैसी ही अपनी राम कहानी है सोना चांदी महल इमारत सब कुछ पल के साथी हैं सच यह है कुछ और नहीं है जीवन दाना पानी है गम और खुशियाँ रात दिवस ये शाम सुबह और सूरज चाँद ये वैसे ही आते जाते जैसे आनी जानी है अगर मगर लेकिन और किन्तु ये सब हमको उलझाते इन पर वश तब तक चलता है जब तक साथ जवानी है अपनी राह नहीं है सीधी चिंता गैरों को लेकर उनके बारे में कुछ कहना आदत वही पुरानी है

यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था

सत्येन्द्र प्रताप कवि त्रिलोचन. पिछले पंद्रह साल से कोई जानता भी न था कि कहां हैं. अचानक खबर मिली कि नहीं रहे. सोमवार, १० दिसंबर २००७. निगमबोध घाट पर मिले. मेरे जैसे आम आदमी से. देश की आजादी के दौर को देखा था उन्होंने. लोगों को जीते हुए। एकमात्र कवि. जिसको देखा, कलम चलाने की इच्छा हुई तो उसी के मन, उसी की आत्मा में घुस गए। मानो त्रिलोचन आपबीती सुना रहे हैं. पिछले साल उनकी एक रचना भी प्रकाशित हुई. लेकिन गुमनामी के अंधेरे में ही रहे त्रिलोचन। अपने आखिरी दशक में. उनकी तीन कविताएं... भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल जिसको समझे था है तो है यह फौलादी. ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी नहीं, झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल, नहीं संभाल सका अपने को। जाकर पूछा, 'भिक्षा से क्या मिलता है.' 'जीवन.' क्या इसको अच्छा आप समझते हैं. दुनिया में जिसको अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा पेट काम तो नहीं करेगा. 'मुझे आपसे ऐसी आशा न थी.' आप ही कहें, क्या करूं, खाली पेट भरूं, कुछ काम करूं कि चुप मरूं, क्या अच्छा है. जीवन जीवन है प्रताप से, स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था, यह

कहाँ जाएंगे

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रतन रहे जो अपनों में बेगाने कहां जाएंगे जहाँ हों बातों से अनजाने कहां जाएंगे प्यार का नाम ज़माने से मिटा दोगे अगर तुम ही बतलाओ कि दीवाने कहां जाएंगे होंगे साकी भी नहीं मय नहीं पयमाने नहीं न हों मयखाने तो मस्ताने कहां जाएंगे लिखे जो ख्वाब कि ताबीर सुहाने दिन में न हों महफिल तो वे अफ़साने कहां जाएंगे यों तो है जिंदगी जीने का सबब मर जाना न हों शम्मा तो ये परवाने कहां जाएंगे है समझ वाले सभी पर हैं नासमझ ये रतन बात हो ऐसी तो समझाने कहां जायेंगे

और ज्यादा हंसो

थोडी देर पहले मैंने अनिल रघुराज के ब्लोग पर एक पोस्ट पढा है. उस पर प्रतिक्रिया देना चाह रहा था, पर यह प्रतिक्रिया ही लम्बी कविता बन गई. मैंने सोचा चलो पोस्ट बना देते हैं. पढ़ कर बताइएगा, कुछ गड़बड़ तो नहीं किया? हंसो-हंसो ताकि उन्हें यह शक न हो कि तुम पढ़ रहे हो उसमें भी कविता पढ़ रहे हो और वह उसे सचमुच समझ भी रहे हो ताकि उन्हें यह शक न हो तुम सचमुच पढ़ने के लिए पढ़ रहे हो ताकि उन्हें यह लगे कि तुम सिर्फ पर्सेंटेज बनाने के लिए पढ़ रहे हो कि तुम सिर्फ नौकरी पाने के लिए पढ़ रहे हो कि तुम्हारे लिए पढ़ने का मतलब जीवन और जगत के प्रति कोई सही दृष्टि विकसित करना नहीं है ताकि उन्हें यह लगे कि तुम किसी प्रोफेसर के बेटे होया उसके होने वाले दामाद हो पढ़ लिख कर इसी यूनिवर्सिटी में या किसी और संस्थान में एक पुर्जे की तरह फिट हो जाओगे हंसो-हंसो ताकि उन्हें यह लगे कि फिर तुम्हारा जम कर इस्तेमाल किया जा सकेगा जैसे चाहा जाएगा वैसे तुम्हे बजाया जाएगा कि तुम्हे बन्दर से भी बदतर बना लिया जाएगा चंद कागज़ के टुकडों के लिए तुम्हे जैसे चाहे वैसे नचाया जाएगा झूठ को सुच्चा सच और सच को सरासर झूठ तुमसे कहलवाया जाएगा हंस

मुझको मालूम है अदालत की हकीकत ....

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इष्ट देव सांकृत्यायन अभी-अभी एक ब्लोग पर नजर गई. कोई गज़ब के मेहनती महापुरुष हैं. हाथ धोकर अदालत के पीछे पड़े हैं. ऐसे जैसे भारत की सारी राजनीतिक पार्टियाँ पड़ गई हैं धर्मनिरपेक्षता के पीछे. कोई हिन्दुओं का तुष्टीकरण कर रहा है और इसे ही असली धर्मनिरपेक्षता बता रहा है. कोई मुसलमानों का तुष्टीकरण कर रहा है और इसे ही असली धर्मनिरपेक्षता बता रहा है. कोई सिखों का तुष्टीकरण कर रहा है और इसे ही असली धर्मनिरपेक्षता बता रहा है. गजब. ऐसा लगता है की जब तक भी लोग दोनों की पूरी तरह ऎसी-तैसी ही नहीं कर डालेंगे, चैन नहीं लेंगे. तो साहब ये साहब भी ऐसे ही अदालत के पीछे पड़ गए हैं. पहले मैंने इनकी एक खबर पढी कोर्ट के आदेश के बावजूद जमीन वापस लेने में लगे 35 साल . मैंने कहा अच्छा जी चलो, 35 साल बाद सही. बेचारे को मिल तो गई जमीन. यहाँ तो ऐसे लोगों के भी नाम-पते मालूम हैं जो मुक़दमे लड़ते-लड़ते और अदालत में जीत-जीत कर मर भी गए, पर हकीकत में जमीन न मिली तो नहीं ही मिली. उनकी इस खबर पर मुझे याद आती है अपने गाँव के दुर्गा काका की एक सीख. वह कहा करते थे कि जर-जोरू-जमीन सारे फसाद इनके ही चलते होते हैं और ये उनकी ह
ठोकरें राहों में मेरे कम नहीं। फिर भी देखो आँख मेरी नम नहीं। जख्म वो क्या जख्म जिसका हो इलाज- जख्म वो जिसका कोई मरहम नहीं। भाप बन उड़ जाऊंगा तू ये न सोच- मैं तो शोला हूँ कोई शबनम नहीं। गम से क्यों कर है परीशाँ इस क़दर - कौन सा दिल है कि जिसमें ग़म नहीं। चंद लम्हों में सँवर जाए जो दुनिया - ये तेरी जुल्फों का पेंचो-ख़म नहीं। दाद के काबिल है स्नेहिल की गज़ल- कौन सा मिसरा है जिसमें दम नहीं। -विनय ओझा ' स्नेहिल'
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अभी तक आपको केले से डर नहीं लगा होगा। कभी पैर के नीचे पड़ा होगा, आप गिरे होंगे तो थोड़ा डर जरूर लगा होगा। लेकिन अब जरा इधर गौर फरमाइये, हो सकता है आपको केले का खौफ भी सताने लगे।

कोर्ट पर हमला क्यों?

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सत्येन्द्र प्रताप वाराणसी में हुए संकटमोचन और रेलवे स्टेशनों पर विस्फोट के बाद जोरदार आंदोलन चला. भारत में दहशतगर्दी के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ था जब गांव-गिराव से आई महिलाओं के एक दल ने आतंकवादियों के खिलाफ फतवा जारी किए जाने की मांग उठा दी थी. बाद में तो विरोध का अनूठा दौर चल पड़ा था। संकटमोचन मंदिर में मुस्लिमों ने हनुमानचालीसा का पाठ किया और जबर्दस्त एकता दिखाई. मुस्लिम उलेमाओं ने एक कदम आगे बढ़कर दहशतगर्दों के खिलाफ़ फतवा जारी कर दिया. इसी क्रम में न्यायालयों में पेश किए जाने वाले संदिग्धों के विरोध का भी दौर चला और वकीलों ने इसकी शुरुआत की। लखनऊ, वाराणसी और फैजाबाद में वकीलों ने अलग-अलग मौकों पर आतंकवादियों की पिटाई की थी।शुरुआत वाराणसी से हुई. अधिवक्ताओं ने पिछले साल सात मार्च को आरोपियों के साथ हाथापाई की और उसकी टोपी छीनकर जला डाली। आरोपी को न्यायालय में पेश करने में पुलिस को खासी मशक्कत करनी पड़ी. फैजाबाद में वकीलों ने अयोध्या में अस्थायी राम मंदिर पर हमले के आरोपियों का मुकदमा लड़ने से इनकार कर दिया। कुछ दिन पहले लखनऊ कचहरी में जैश ए मोहम्मद से संबद्ध आतंकियों की पिटाई क

....या कि पूरा देश गिरा?

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इष्ट देव सांकृत्यायन येद्दयुरप्पा ..... ओह! बड़ी कोशिश के बाद मैं ठीक-ठीक उच्चारण कर पाया हूँ इस नाम का. तीन दिन से दुहरा रहा हूँ इस नाम को, तब जाकर अभी-अभी सही-सही बोल सका हूँ. सही-सही बोल के मुझे बड़ी खुशी हो रही है. लगभग उतनी ही जितनी किसी बच्चे को होती है पहली बार अपने पैरों पर खडे हो जाने पर. जैसे बच्चा कई बार खडे होते-होते रह जाता है यानी लुढ़क जाता है वैसे में भी कई बार यह नाम बोलते-बोलते रह गया. खडे होने की भाषा में कहें तो लुढ़क गया. -हालांकि अब मेरी यह कोशिश लुढ़क चुकी है. क्या कहा - क्यों? अरे भाई उनकी सरकार लुढ़क गई है इसलिए. और क्यों? -फिर इतनी मेहनत ही क्यों की? -अरे भाई वो तो मेरा फ़र्ज़ था. मुझे तो मेहनत करनी ही थी हर हाल में. पत्रकार हूँ, कहीं कोई पूछ पड़ता कि कर्नाटक का मुख्यमन्त्री कौन है तो मैं क्या जवाब देता? कोई नेता तो हूँ नहीं की आने-जाने वाली सात पुश्तों का इल्म से कोई मतलब न रहा हो तो भी वजीर-ए-तालीम बन जाऊं! अपनी जिन्दगी भले ही टैक्सों की चोरी और हेराफेरी में गुजारी हो, पर सरकार में मौका मिलते ही वजीर-ए-खारिजा बन जाऊं. ये सब सियासत में होता है, सहाफत और शराफत मे

हाय! पीले पड़े कामरेड

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इष्ट देव सांकृत्यायन कामरेड आज बाजार में मिले तो हमने आदतन उनको लाल सलाम ठोंका. लेकिन बदले में पहले वो जैसी गर्मजोशी के साथ सलाम का जवाब सलाम से दिया करते थे आज वैसा उन्होने बिलकुल नहीं किया. वैसे तो उनके बात-व्यवहार में बदलाव में कई रोज से महसूस कर रहा हूँ, लेकिन इतनी बड़ी तब्दीली होगी कि वे बस खीसे निपोर के जल्दी से आगे बढ़ लेंगे ये उम्मीद हमको नहीं थी. कहाँ तो एकदम खून से भी ज्यादा लाल रंग के हुआ करते थे कामरेड और कहाँ करीब पीले पड़ गए. हालांकि एकदम पीले भी नहीं पड़े हैं. अभी वो जिस रंग में दिख रहे हैं, वो लाल और पीले के बीच का कोई रंग है. करीब-करीब नारंगी जैसा कुछ. हमने देखा है, अक्सर जब कामरेड लोग का लाल रंग छूटता है तो कुछ ऐसा ही रंग हो जाता है उन लोगों का. बचपन में हमारे आर्ट वाले मास्टर साहब बताए भी थे कि नारंगी कोई असली रंग नहीं होता है. वो जब लाल और पीला रंग को एक में मिला दिया जाता है तब कुछ ऐसा ही रंग बन जाता है. भगवा रंग कैसे बनता होगा ये तो में नहीं जानता, लेकिन मुझे लगता है कि शायद इसी में जब पीला रंग थोडा बढ़ जाता होगा तब वो भगवा बन जाता होगा. मैंने बडे-बूढों से सुना भी है

बोलो कुर्सी माता की - जय

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इष्ट देव सांकृत्यायन अधनींदा था. न तो आँख पूरी तरह बंद हुई थी और न खुली ही रह गई थी. बस कुछ यूं समझिए कि जागरण और नींद के बीच वाली अवस्था थी. जिसे कई बार घर से भागे बाबा लोग समाधि वाली अवस्था समझ लेते हैं और उसी समय अगर कुछ सपना-वपना देख लेते हैं तो उसे सीधे ऊपर से आया फरमान मान लेते हैं. बहरहाल में चूंकि अभी घर से भगा नहीं हूँ और न बाबा ही हुआ हूँ, लिहाजा में न तो अपनी उस अवस्था को समाधि समझ सकता हूँ और उस घटना को ऊपर से आया फरमान ही मान सकता हूँ. वैसे भी दस-पंद्रह साल पत्रकारिता कर लेने के बाद शरीफ आदमी भी इतना तो घाघ हो ही जाता है कि वह हाथ में लिए जीओ पर शक करने लगता है. पता नहीं कब सरकार इसे वापस ले ले या इस बात से ही इंकार कर दे कि उसने कभी ऐसा कोई हुक्म जारी किया था! बहरहाल मैंने देखा कि एक भव्य और दिव्य व्यक्तित्व मेरे सामने खडा था. यूरोप की किसी फैक्ट्री से निकल कर सीधे भारत के किसी शो रूम में पहुँची किसी करोड़टाकिया कार की तरह. झक सफ़ेद चमचमाते कपडों में. ऐसे सफ़ेद कपडे जैसे 'तेरी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफ़ेद क्यों?' टाईप के विज्ञापनों में भी नहीं दिखाई देते. कुरते से

अब वह नहीं डरेगा

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इष्ट देव सांकृत्यायन मैडम आज सख्त नाराज हैं. उनकी मानें तो नाराजगी की वजह बिल्कुल जायज है. उन्होने घोषणा कर दी है कि अब घोर कलयुग आ गया है. मेरी मति मारी गई थी जो मैने कह दिया कि यह बात तो मैं तबसे सुनता आ रहा हूँ जब मैं ठीक से सुनना भी सीख नहीं पाया था. कहा जाता था बेईमान तो मैं समझता था बेम्बान. गाया जाता था - "दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए" तो मैं समझता था "दिल चीत क्या है आप मेरी जान लीजिए" और वो जान भी लाइफ वाली नहीं केएनओडब्लू नो वाली. हालांकि तब उसे मैं पढ़ता था कनऊ. अब जब मैं चारों युगों के बारे में जान गया हूँ, जान गया हूँ कि सतयुग में हरिश्चंद्र के सत्यवादी होने का नतीजा क्या हुआ, त्रेतामें श्रवण कुमार और शम्बूक का क्या हुआ, द्वापर में बर्बरीक और अश्वत्थामा के साथ क्या हुआ तो मुझे कलयुग में आजाद, भगत सिंह या सुभाष के हाल पर कोई अफ़सोस नहीं होता. ये अलग बात है कि मैंने कलयुग को न तो किसी तरफ से आते देखा और न जाते देख रहा हूँ. पर नहीं साहब मैडम का साफ मानना है कि कलयुग आया है और वो जिस तरह इसका दावा कर रहीं हैं उससे तो ऐसा लगता है गोया वो अभी थोड़ी देर पह

कता

उम्मीद की किरण लिए अंधियारे में भी चल। बिस्तर पे लेट कर ना यूँ करवटें बदल। सूरज से रौशनी की भीख चाँद सा न मांग, जुगनू की तरह जगमगा दिए की तरह जल ॥ -विनय ओझा स्नेहिल

मौत की घाटी नहीं है मेरा देश

-दिलीप मंडल नंदीग्राम एक प्रतीक है। ठीक उसी तरह जैसा प्रतीक गुजरात में 2002 के दंगे हैं। जिस कालखंड में हम जी रहे हैं, उस दौरान जब कुछ ऐसा हो तो क्या हम कुछ कर सकते हैं? एक मिसाल इराक पर हुए अमेरिकी हमले के समय की है। जब इराक पर हमला होना तय हो चुका था तो एक खास दिन हजारों की संख्या में युद्धविरोधी अमेरिकी अपनी अपनी जगह पर एक तय समय पर खड़े हो गए। उन्होंने आसमान की ओर हाथ उठाया और कहा- रोको। अमेरिकी हमला तो इसके बावजूद हुआ। लेकिन विरोध का जो स्वर उस समय उठा, उसका ऐतिहासिक महत्व है। नंदीग्राम के संदर्भ में मेरा कहना है- आइए मिलकर कहें, उनका नाश हो!ऐसा कहने भर से उनका नाश नहीं होगा। फिर भी कहिए कि वो इतिहास के कूड़ेदान में दफन हो जाएं। ये अपील जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ वालों से भी है। नंदीग्राम में और सिंगुर में और पश्चिम बंगाल के हजारों गावों, कस्बों में सीपीएम अपने शासन को बचाए रखने के लिए जिस तरह के धतकरम कर रही है, उसे रोकने के लिए आपका ये महत्वपूर्ण योगदान होगा। आपको और हम सबको ये कहना चाहिए कि "मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश।" सीपीएम ने जुल्मो-सितम ढाने का ज

निशानी नहीं थी

हरि शंकर राढ़ी किसने कहा कि वो रानी नहीं थी. दुष्यंत की बस निशानी नहीं थी. तन में टूटन थी न मन में चुभन थी सच में सुबह वो सुहानी नहीं थी. लहरों सी उसमें लचक ही लचक थी पानी भी था और पानी नहीं थी. जल्दी से कलियों ने आँचल हटाया हालांकि उनपर जवानी नहीं थी. कैसे सुनाता वफ़ा की इबारत दिल पर लिखी थी जुबानी नहीं थी. फूलों के रस डुबाकर लिखी जो राढ़ी वो सच्ची कहानी नहीं थी.

अब खुला समलैंगिकों का पांच सितारा होटल

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सत्येन्द्र प्रताप दुनिया भी अजीब है। अमीर लोगों के शौक। पहले तो समलैंगिकों के लिए विवाह करने के लिए छूट मांगी गई और अब उनके लिए पांच सितारा होटल भी खुल गया। कोई गरीब आदमी रोटी मांगता है, मुफ्त शिक्षा की माँग करता है, उद्योगपतियों द्वारा कब्जियाई गई जमीन के लिए मुआवजा मांगता है तो देश चाहे जो हो, उसे गोली ही खानी पड़ती है। लेकिन इन विकृत मानसिकता वालों के लिए आंदोलन चले, उनकी मांगों को माना भी गया और होटल खुला, वो भी पांच सितारा। अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस-आयर्स मे समलैंगिकों के होटल खोला गया है! पांच सितारा होटल। ४८ कमरे हैं। पारदर्शी तल वाला स्विमिंग पुल है, साथ ही बार, रेस्टोरेंट भी. यह होटल शहर के सबसे पुराने इलाके san telmo मे खोला गया है।

तीस-पैंतीस बार

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एक सज्जन रास्ते पर चले जा रहे थे. बीच में कोई जरूरत पड़ने पर उन्हें एक दुकान पर रुकना पडा. वहाँ एक और सज्जन पहले से खडे थे. उनकी दाढी काफी बढी हुई थी. देखते ही राहगीर सज्जन ने मजाक उडाने के अंदाज में पूछा, 'क्यों भाई! आप दिन में कितनी बार दाढी बना लेते हैं?' 'ज्यादा नहीं! यही कोई तीस-पैंतीस बार.' दढियल सजान का जवाब था. 'अरे वाह! आप टू अनूठे हैं.' 'जी नहीं, में अनूठा-वनूठा नहीं. सिर्फ नाई हूँ.' उन्होने स्पष्ट किया.

अगर औरत की शक्ल में कार हो

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सत्येन्द्र प्रताप संयुक्त राज्य अमेरिका के नेवादा में सेमा नाम से कार की प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। यह दुनिया की सबसे बड़ी प्रदर्शनी मानी जाती है। हालांकि मनुष्य के हर रूप को बाजार ने भली भांति पहचाना है, लेकिन अगर कार के रुप में किसी महिला को देखा जाए तो तस्बीर कुछ इसी स्टेच्यू की तरह उभरेगी। शायद इसी सोच के साथ प्रदर्शनी के आयोजकों ने कार के पार्टस से महिला की स्टेच्यू बना डाली। आप भी औरत के विभिन्न अंगों की तुलना कार-पार्टस् से करके लुफ्त उठा सकते हैं???

देख लो भइया, ये हाल है तुम्हारी दुनिया का

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चीन के बीजिंग शहर में प्रदूषण का धुंध इस कदर छा गया है कि सड़क पर खड़े होकर बहुमंिजली इमारत का ऊपरी हिस्सा देखना मुश्किल हो गया है। चीन में अगले साल ओलंपिक खेल होने जा रहा है और उससे जुड़े अधिकारियों ने उद्योगों से होने वाले वायु प्रदूषण पर चेतावनी भी दी है।

सबूत लपेटकर फांसी पर लटकाया

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सीरियाः अलेपो के उत्तरी शहर में १८ से २३ साल के पांच युवकों को सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटकाया गया।ये टुवक हत्या के मामले में दोशी पाए गए थे। फांसी पर लटकाए गए युवकों के शरीर पर उनके अपराधों के बारे में विस्तृत रूप से लिखकर लपेट दिया गया था।

बीड़ी जलइले िजगर से पिया....

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शिक्षा के निजीकरण के िवरोध में सड़कों पर उतरे छात्र-छात्राओं का अनोखा विरोध

आजा, आ....... लड़ेगा क्या

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स्लोवािकय का छह सप्ताह का बिल्ली का बच्चा , खेलते हुए

पत्रकार का प्रेमपत्र

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सत्येन्द्र प्रताप सामान्यतया प्रेमपत्रों में लड़के -लड़िकयां साथ में जीने और मरने की कसमें खाते हैं, वादे करते हैं और वीभत्स तो तब होता है जब पत्र इतना लंबा होता है िक प्रेमी या प्रेिमका उसकी गंभीरता नहीं समझते और लंबे पत्र पर अिधक समय न देने के कारण जोड़े में से एक भगवान को प्यारा हो जाता है. अगर पत्रकार की प्रेिमका हो तो वह कैसे समझाए। सच पूछें तो वह अपने व्यावसाियक कौशल का प्रयोग करके कम शब्दों में सारी बातें कह देगा और अगर शब्द ज्यादा भी लिखने पड़े तो खास-खास बातें तो वह पढ़वाने में सफल तो हो ही जाएगा. पहले की पत्रकािरता करने वाले लोग अपने प्रेमपत्र में पहले पैराग्राफ में इंट्रो जरुर िलखेंगे. साथ ही पत्र को सजाने के िलए कैची हेिडंग, उसके बाद क्रासर, अगर क्रासर भी लुभाने में सफल नहीं हुआ तो िकसी पार्क में गलबिहयां डाले प्रेमिका के साथ का फोटो हो तो वह ज्यादा प्रभावी सािबत होगा और प्रेमिका के इमोशन को झकझोर कर रख देगा. नया अखबारनवीस होगा तो उसमें कुछ मूलभूत परिवर्तन कर देगा. पहला, वह कुछ अंगऱेजी के शब्द डालेगा िजससे प्रेमिका को अपनी बात समझा सके. समस्या अभी खत्म नहीं हुई क्योंिक वक

चलना है

रतन उम्र भर रात-दिन औ सुबहो-शाम चलना है ये जिन्दगी है सफर याँ मुदाम चलना है ये हैं तकदीर की बातें नसीब का लिखा किसी को तेज किसी को खिराम चलना है लाख रोके से रुकेगा नहीं इंसान यहाँ जब भी आया है खुदा का पयाम चलना है नहीं है एक कोई दुनिया से जाने वाला आज मैं कल वो इस तरह तमाम चलना है गलत किया है नहीं गर खता हुई हो कभी माफ़ करना मुझे सब राम-राम चलना है ज्यों यहाँ हम रहे खुशहाल वहाँ भी यों रहें लबों पे लेके खुशनुमा कलाम चलना है रतन हैं साथ सफर होगी हंसी अहले-जहाँ कुबूल कीजिए मेरा सलाम चलना है

पहला आर्यसत्य

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इष्ट देव सांकृत्यायन राजकुमार सिद्धार्थ पहली बार अपने मंत्री पिता के सरकारी बंगले से बाहर निकले थे. साथ में था केवल उनका कार ड्राइवर. चूंकि बंगले से बाहर निकले नहीं, लिहाजा दिल्ली शहर के तौर-तरीक़े उन्हें पता नहीं चल सके थे. कार के बंगले से बाहर निकलते ही, कुछ दूर चलते ही रस्ते में मिला एक साईकिल सवार. हवा से बातें करती उनके कार के ड्राईवर ने जोर का हार्न लगाया पर इसके पहले कि वह साईड-वाईड ले पाता बन्दे ने गंदे पानी का छर्रा मारा ....ओये और 'बीडी जलाई ले जिगर से पिया ........' का वाल्यूम थोडा और बढ़ा दिया. इसके पहले कि राजकुमार कुछ कहते-सुनते ड्राईवर ने उन्हें बता दिया, 'इस शहर में सड़क पर चलने का यही रिवाज है बेबी.' 'मतलब?' जिज्ञासु राजकुमार ने पूछा. 'मतलब यह कि अगर आपके पास कार है तो आप चाहे जितने पैदल, साइकिल और बाइक सवारों को चाहें रौंद सकते हैं.' ड्राइवर ने राजकुमार को बताया. कार थोड़ी और आगे बढ़ी. ड्राइवर थोडा डरा. उसने जल्दी से गाडी किनारे कर ली. मामला राजकुमार की समझ में नहीं आया. 'क्या हुआ?' उन्होने ड्राइवर से पूछा. 'अरे कुछ नहीं राजक

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