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Showing posts from January, 2010

देवदर्शन टैक्स इन इंडिया

-हरिशंकर राढ़ी आज की ताजा खबर यह है कि शिरडी स्थित श्री साईं भगवान के दर्शन के लिए अब शुल्क लगेगा। प्रातःकालीन आरती के लिए 500रु, मध्याह्न की आरती के लिए 300रु और सामान्य दर्शन के लिए 100रु। इसमें कुछ शर्तें भी शामिल हो सकती हैं, टर्म्स एण्ड कंडीशन्स अप्लाई वाली ट्यून! परन्तु टैक्स तो लगेगा ही लगेगा! गत सितम्बर माह में मैं दक्षिण भारत की यात्रा पर गया था जिसका वृत्तान्त मैं ब्लॉग पर 'पोंगापंथ अपटू कन्याकुमारी' शीर्षक से लेखमाला के रूप में दे रहा हूँ। कुछ कड़ियाँ आई थीं और उस पर हर प्रकार की प्रतिक्रिया भी आई थी। इस वृत्तान्त में मंदिरों में धर्म के नाम पर हो रहे आर्थिक शोषण को सार्वजनिक दृष्टि में लाना मेरा प्रमुख उद्देश्य रहा। बहुत समर्थन मिला था मेरे विचार को। परन्तु कुछ लोगों ने इसे जायज ठहराने का भी प्रयास किया। उनका कहना था कि कुछ शुल्क निर्धारित कर देने से मंदिर के रखरखाव एवं कर्मचारियों के जीवन यापन में मदद मिलेगी और पंडों की लूट से छुटकारा भी मिलेगा। वैसे इनके इस तर्क से पूर्णतया असहमत भी नहीं हुआ जा सकता।

खुद को खोना ही पड़ेगा

लंबे समय से ब्लाग पर न आ पाने के लिए माफी चाहता हूं। दरअसल, हमारे चाहने भर से कुछ नहीं होता। इसके पहले जब मैंने अपनी गजल पोस्ट की थी, उस पर आपने बहुत सी उत्साहजनक टिप्पणियां देकर मुझे अच्छा लिखने को प्रेरित किया था। आज जो गजल पेश कर रहा हूं, यह किस मनोदशा में लिखी गई, यह नहीं जानता। हां, यहां निराशा हमें आशा की ओर ले जाते हुए नहीं दिखती...?- अब तो हमको दूर तक कोई खुशी दिखती नहीं जिंदा रहकर भी कहीं भी जिंदगी दिखती नहीं हर किसी चेहरे पे हमको दूसरा चेहरा दिखा एक भी चेहरे के पीछे रोशनी दिखती नहीं जिनको आंखों का दिखा ही सच लगे, मासूम हैं बेबसी झकझोर देती है, कभी दिखती नहीं खुद को खोना ही पड़ेगा प्यार पाने के लिए देखिए, मिलकर समंदर से नदी दिखती नहीं खुद को खोना ही पड़ेगा प्यार देने के लिए आंख ही सबकुछ दिखाती है, अजी दिखती नहीं।

खुद को खोना ही पड़ेगा

लंबे समय से ब्लाग पर न आ पाने के लिए माफी चाहता हूं। दरअसल, हमारे चाहने भर से कुछ नहीं होता। इसके पहले जब मैंने अपनी गजल पोस्ट की थी, उस पर आपने बहुत सी उत्साहजनक टिप्पणियां देकर मुझे अच्छा लिखने को प्रेरित किया था। आज जो गजल पेश कर रहा हूं, यह किस मनोदशा में लिखी गई, यह नहीं जानता। हां, यहां निराशा हमें आशा की ओर ले जाते हुए नहीं दिखती...?- अब तो हमको दूर तक कोई खुशी दिखती नहीं जिंदा रहकर भी कहीं भी जिंदगी दिखती नहीं हर किसी चेहरे पे हमको दूसरा चेहरा दिखा एक भी चेहरे के पीछे रोशनी दिखती नहीं जिनको आंखों का दिखा ही सच लगे, मासूम हैं बेबसी झकझोर देती है, कभी दिखती नहीं खुद को खोना ही पड़ेगा प्यार पाने के लिए देखिए, मिलकर समंदर से नदी दिखती नहीं खुद को खोना ही पड़ेगा प्यार देने के लिए आंख ही सबकुछ दिखाती है, अजी दिखती नहीं।

एक मगही गीत

गीतकार -पंडित युदनंदन शर्मा सब कोई गंगा नेहा के निकल गेल, आ तू बइठल के बइठले ह। ढिबरी भी सितारा हो गेल, आ ढोलकी भी नगाड़ा हो गेल, आ तू फुटल चमरढोल के ढोले ह। झोपड़ी भी अटारी हो गेल, कसैली भी सुपारी हो गेल। कुर्ता भी सफारी हो गेल, छूरी भी कटारी हो गेल, आ तू ढकलोल के ढकलोले ह। ढकनी भी ढकना हो गेल, कोना भी अंगना हो गेल। साजन भी सजना हो गेल, विनय भी बंदना हो गेल, आ तू बकलोल के बकलोले ह।।

महंगाई को लेकर भूतियाये लालू

आलोक नंदन लालू यादव महंगाई को लेकर भूतियाये हुये हैं। 28 जनवरी को चक्का जाम आंदोलन का आह्वान करते फिर रहे हैं। (यदि बिहार में इसी तरह से ठंड रही तो उनका यह चक्का जाम आंदोलन वैसे ही सफल हो जाएगा)। बिहार में जहां-तहां जनसभा करके लालू यादव लोगों को ज्ञान दे रहे हैं कि जब जब कांग्रेस सत्ता में आई है, तब तब कमरतोड़ महंगाई लाई है। घुलाटीबाजी में लालू का जवाब नहीं। जब तक कांग्रेस के सहारे इनको सत्ता का स्वाद मिलता रहा तब तक कांग्रेस के खिलाफ एक भी शब्द नहीं बोले। वैस लालू यादव ने अपना पोलिटिकल कैरियर कांग्रेस के खिलाफ भाषणबाजी करके ही बनाया था। राजनीति में परिवारवाद के खिलाफ थूथन उठाकर खूब बोलते थे। सत्ता में आने के बाद इन्होंने राजनीति में जो परिवारवाद लाया, उस पर तो मोटा मोटा थीसीस तैयार किया जा सकता है। दोबारा सत्ता में आने का सपना देखने वाले बड़बोले लालू यादव लोगों से कहते फिर रहे हैं कि वे जब सत्ता में आएंगे फूंक मारकर महंगाई को उड़ा देंगे, जैसे महंगाई कोई बैलून का गुब्बारा है। वैसे बोलने में क्या जाता है, मुंह है कुछ भी बोलते रहिये। प्रोब्लम होता है बंद से। बंद का लफड़ा भारतीय स्वतंत्रत

नई शाम

नव वर्ष की शाम में डूबे कितने युवा जाम में डूबे । जो गुंडे हैं गरियाये, मोटर-साइकिल की शान में डूबे । प्रेमियों ने तलाशे कोने, यौवन की उड़ान में डूबे । ढलती शाम का दर्द ढो रहे, प्रार्थना और अज़ान में डूबे । जो बहक गये क़दम उनके, जवानी के उफ़ान में डूबे । पार्टी की छवि सुधारने को, राजनीति और राम में डूबे [] राकेश 'सोहम'

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