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शिरडी की ओर

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हरिशंकर राढ़ी  पंचवटी की परिक्रमा कर चुकने के बाद हमारा अगला पड़ाव साईं का शिरडी धाम था। पर्णकुटी से वापसी करते समय मेरा मन उस काल की ओर भाग रहा था जिसे अभी इतिहासकारों द्वारा निश्चित नहीं किया जा सका है। इतिहासकार वैसे भी उन्हें कहां मानने को तैयार बैठे हैं ? उनके अस्तित्व को न मानने से शायद उन्हें  आधुनिक एवं वैज्ञानिक सोच का तमगा बैठे - बिठाए मिल जाए ! चलिए मत मानिए उनके अस्तित्व को, उनके आदर्शों  को तो मान लीजिए। एक ऐसे युग में पैदा हुए थे राम जब भारत एक विस्तारित देश  था, भले ही अलग-अलग राजाओं के अधीन रहा हो। पूरे देश  की एक संस्कृति थी, एक भाषा थी और सामान्यतः चहुँओर शांति  थी। कुछ विशिष्ट लोगों के लिए विशिष्ट  विज्ञान था, विकसित विज्ञान था। यह बात सच है कि यह विज्ञान सबके लिए नहीं था। आवागमन के साधन नहीं थे, संचार साधन नहीं थे और समाज सुविधाभोगी नहीं थे। अपने राज्य से हजारों मील दूर भयंकर दंडक वन में राम ने अपनी कुटिया बनाई और जंगल को अपनी तपस्या से बसने योग्य बनाया। भयंकर राक्षसों के बीच रहकर उनकी चुनौतियों को स्वीकारा, यह बात अलग है कि ये चुनौतियां उनके लिए बहुत मंहगी साबित

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