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Showing posts from February, 2017

चर्चा में ‘समाज का आज’

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नरेश दाधीच जयपुर  पीस फाउण्डेशन के तत्वावधान में आज मानसरोवर स्थित उनके संगोष्ठी कक्ष में डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल की नव प्रकाशित पुस्तक समाज का आज पर चर्चा गोष्ठी आयोजित की गई. प्रारम्भ में फाउण्डेशन के अध्यक्ष प्रो. नरेश दाधीच ने पुष्प गुच्छ देकर लेखक का स्वागत किया  और फिर कृतिकार डॉ अग्रवाल ने अपनी पुस्तक के बारे में जानकारी दी. उन्होंने बताया कि मूलत: एक अपराह्न दैनिक के स्तम्भ के रूप में लिखे गए ये आलेख समकालीन देशी-विदेशी समाज की एक छवि प्रस्तुत करते हैं. डॉ अग्रवाल ने कहा कि ये लेख विधाओं की सीमाओं के परे जाते हैं और बहुत सहज अंदाज़ में हमारे समय के महत्वपूर्ण सवालों से रू-ब-रू कराने  का प्रयास करते हैं. कृति चर्चा की शुरुआत की जाने-माने पत्रकार श्री राजेंद्र बोड़ा ने. उनका कहना था कि यह किताब बेहद रोचक है और हल्के फुल्के अंदाज़ में बहुत सारी बातें कह जाती हैं. क्योंकि ये लेख एक अखबार  के लिए लिखे गए हैं इसलिए इनमें अखबार की ही तर्ज़ पर इंफोटेनमेण्ट है‌ यानि सूचनाएं भी हैं और मनोरंजन भी.  बोड़ा ने किताब की भाषा की रवानी की विशेष रूप से सराहना की और यह भी कहा कि इन लेखों में

गंगा-जमुनी तहज़ीब के दुश्मन कौन?

इष्ट देव सांकृत्यायन   कहने के लिए पद्मावती को लेकर उठा विवाद थम ग या . लेकिन यह बस थमा ही है, ख़त्म नहीं हुआ. क्योंकि जो विवाद एक बार उठ जाता है , वह कभी ख़त्म नहीं होता. उसके मूलभूत तत्त्व , जो विवाद के कारण होते हैं , बिलकुल निचले तल पर जाकर कहीं बैठ जाते हैं. वे समय-समय पर नए-नए रूपों में उभरते और समाज को दूषित करते रहते हैं. विवाद के हर दौर में पक्ष-विपक्ष की ओर से तर्कों के रूप में कई ऐसी बातें आ जाती हैं जो समाज के किसी तबके के थोथे अहंकार को बढ़ाती हैं और किसी के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाती हैं. यह आशंका उस समाज में बहुत अधिक होती है जहाँ बुद्धिजीवियों के रूप में मौजूदा या पूर्ववर्ती सत्ता के वकील होते हैं. जिनका काम नीर-क्षीर विवेक के ज़रिये किसी सत्य तक पहुँचना नहीं , केवल अपने-अपने पोषकों की सत्ता या प्रभाव को जैसे-तैसे बचाए रखने के लिए थोथे तर्क गढ़ना होता है. लोकतंत्र में सत्ता या प्रभाव का मूल स्रोत वोट होता है. वोट पाने के लिए समाज के कल्याण के लिए जो काम किए जाने की ज़रूरत है , उसका भारतीय राजनीति में शुरू से ही सर्वथा अभाव है. इसीलिए ऐसी कोई नीति नहीं बनाई जाती

इति सिद्धम

इष्ट देव सांकृत्यायन विषयों में एक विषय है गणित. इस विषय के भीतर भी एक विषय है रेखागणित. ऐसे तो इस विषय के भीतर कई और विषय हैं. अंकगणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति, लॉगरिथ्म, संख्यिकी, कलन आदि-आदि, मने विषयों की भरमार है यह अकेला विषय. इस गणित में कई तो ऐसे गणित हैं जो अपने को गणित कहते ही नहीं. धीरे से कब वे विज्ञान बन जाते हैं, पता ही नहीं चलता. हालाँकि ऊपरी तौर पर विषय ये एक ही बने रहते हैं; वही गणित. हद्द ये कि तरीक़ा भी सब वही जोड़-घटाना-गुणा-भाग वाला. अरे भाई, जब आख़िरकार सब तरफ़ से घूम-फिर कर हर हाल में तुम्हें वही करना था, यानि जोड़-घटाना-गुणा-भाग ही तो फिर बेमतलब यह विद्वता बघारने की क्या ज़रूरत थी! वही रहने दिया होता. हमारे ऋषि-मुनियों ने बार-बार विषय वासना से बचने का उपदेश क्यों दिया, इसका अनुभव मुझे गणित नाम के विषय से सघन परिचय के बाद ही हुआ. जहाँ तक मुझे याद आता है, रेखागणित जी से मेरा पाला पड़ा पाँचवीं कक्षा में. हालाँकि जब पहली-पहली बार इनसे परिचय हुआ तो बिंदु जी से लेकर रेखा जी तक ऐसी सीधी-सादी लगीं कि अगर हमारे ज़माने में टीवी जी और उनके ज़रिये सूचनाक्रांति जी का प्रादुर्भाव

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