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Showing posts from November, 2009

टीवी क्राइम शो और उसके इफेक्ट को रिफ्लेक्ट करता फिल्म राब्स का सीन 5

मित्रों आलोक जी ने यह एपिसोड समय से लिखकर सहेज दिया था, मैं ही अपनी निजी व्यस्तता के कारण इसे पोस्ट नहीं कर सका.  बहरहाल, आशा है सुधी पाठक देर के लिए मुझे क्षमा करेंगे. फिल्म की पटकथा में जितनी महत्वपूर्ण चीज़ कहानी होती है, उतना ही महत्वपूर्ण होता है  उसके अलग-अलग चरित्रों का विकास. यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है फिल्म में कब, कहां और किस तरह उनकी एंट्री कराई जाए. यह सब कई बातों को ध्यान में रख कर करना होता और वह भी एक ख़ास रणनीति के तहत. इस किस्त में आलोक नन्दन ने इन्हीं बारीकियों का ज़िक्र किया है.                                                                                                      - इष्ट देव सांकृत्यायन आलोक नंदन सीन 4 में जज पंत के दैनिक जीवन को दिखाया गया है...उसके दिन की शरुआत गार्डेन से होती है, फूल-पत्तियों से उसे प्यार है। इस सीन में ललन को इंट्रोड्यूस किया गया है...साथ ही एक और नाम आया है...मैक्सफियर...जब मैं इस स्टोरी को डेवल्प कर रहा था तो मुझे लगा कि इसमें एक ऐसे कैरेक्टर का समावेश करूं जो सही मायने में इंग्लैंड से जुड़ा हो....दिमाग शेक्सपीयर पर आकर टिक ग

बदल रहा है सामाजिक यथार्थ : कुँवर नारायण

'नई धारा' के आयोजन में कुंवर, बालेन्दु एवं राधेश्याम सम्मानित

जज रमेश पंत और शराब चोर गोल्डी के सीन

अख़बार की दुनिया से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और फिर सिनेमा तक तक़दीर की आजमाइश करते चले जाने वाले आलोक नंदन को सिनेमा के व्याकरण की अच्छी समझ है. हिंदी में सही पूछिए तो किसी भी क्षेत्र में स्क्रिप्टिंग पर औपचारिक रूप से बहुत ढंग का काम नहीं हुआ है. साहित्य से लेकर पत्रकारिता और सिनेमा तक यह कमी महसूस होती है. हालांकि यही हिंदी की दुनिया की बहुत बड़ी ख़ूबी भी है. एक लड़की-एक लड़के और एंग्री यंगमैन वाले फार्मूलेबाजी के दौर से निकल चुके हिन्दी सिनेमा में यह कमी ज़्यादा शिद्दत से महसूस की जाने लगी है. इसी के मद्देनज़र आलोक नंदन ने पिछले शुक्रवार से यह कोशिश शुरू की है. यह कहानी या स्क्रिप्ट होने की दृष्टि से उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि उसके व्याकरण के नज़रिये से. पाठकों से हमारा अनुरोध है कि इसे इसी नज़रिये से लिया भी जाना चाहिए और यदि कहीं कोई शंका हो या कोई सुझाव हो तो उसे निस्संकोच रखें. हर संशय के निराकरण का वादा तो हम नहीं कर सकते, पर कोशिश ज़रूर करेंगे और सुझावों का स्वागत तो है ही. (फिल्म स्क्रिप्ट राब्स का दूसरा भाग) आलोक नंदन अब जज पंत के इस डायलाग को देखिये, एक बड़े से आइने के सामने खड

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

(आलोक नंदन) एक फिल्म स्क्रीप्ट डिस्पले कर रहा हूं…फिल्म का नाम है राब्स, इसके साथ नीचे में इनवर्टेड कौमा में लिखा हुआ है, अपराध जगत में एक प्रयोगवादी जज...अब खुद देख लिजीये यह जज कितना प्रयोगवादी है....यह जैसा है वैसे ही रखने जा रहा हूं....एक एक सीन रखता जाऊंगा... वर्तमान सीन से आगे बढ़ कर सीन बताने वालो का स्वागत है, वैसे इसको पढ़ने का मजा तो हर कोई उठा ही सकता है। स्क्रीप्ट लेखन टेक्निक के लिहाज से यह मुझे कुछ उम्दा लगा और स्क्रीप्ट लेखन में कैरियर बनाने की इच्छा रखने वालों के लिए यह निसंदेह सहायक हो सकता है। स्क्रीप्ट लेखन से संबंधित किसी भी स्तर के कोई भी प्रश्न आप यहां दाग सकते हैं....आपके सवालों और सुझावों का स्वागत है। Robes “ An experimental judge in a crime world.” Laugh with unbroken breaking news Comedy of cruelty “ Wanted for his own murder charge” तो शुरु हो रहा है राब्स...बिना टिकट के ही इसका मजा लिजीये....। (इसे एक फिल्म का विशुद्ध रूप से प्रचार स्टाइल माना जाये, (फिल्मों के प्रचार स्टाईल का अपना एक तरीका है, ) हालांकि कि यह फिल्म बनी ही नहीं है, और

बाज़ार की बाढ़ में फंस गया मीडिया

हमारा समाज आज बाज़ार और मीडिया के बीच उलझता जा रहा है. बाज़ार भोगवाद और मुनाफे के सिद्धांतों पर समाज को चलाना चाहता है, जबकि मीडिया सरकार की आड़ से अब बाजार की बाढ़ में फंस गया है. यह बात जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के वैश्विक अध्ययन केन्द्र के संयोजक प्रो. आनन्द कुमार ने शहीद भगत सिंह कॉलेज में आयोजित एक संगोष्ठी में कही. ‘ बाजार , मीडिया और भारतीय समाज ’ विषयक इस संगोष्ठी में उन्होंने समाज के सजग लोगों से मीडिया और बाजार दोनों की सीमाओं को नये संदर्भ में समझने का आह्वान करते हुए कहा कि अगर ऐसा न हुआ तो लोकतंत्र के वावजूद मीडिया हमारे समाज में विदुर की जैसी नीतिसम्मत भूमिका छोड़कर मंथरा जैसी स्वार्थप्रेरित भूमिका में उलझती जाएगी. मीडिया का बाजारवादी हो जाना भारत के लोकतंत्र को मजबूत नहीं करेगा. बीते 4 नवंबर को हुई इस संगोष्ठी में शहीद भगत सिंह कॉलेज के प्राचार्य डॉ. पी.के. खुराना ने स्पष्ट किया कि अर्थव्यवस्था में बदलाव के कारण कैसे बाज़ार मजबूत हुआ है और मानवीय मूल्य निरंतर टूटते जा रहे हैं. भारतीय जनसंचार संस्थान में हिंदी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम निदेशक डॉ. आनन्द प्रधान ने कहा कि

समलैंगिकों और किन्नरों का सरकारी पदों पर आरक्षण

मैं सोच रहा हूं कि केन्द्र सरकार को एक पत्र लिखूं और कुछ सुझाव दूँ ताकि अरसों से अपनी गरिमा और अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करते आ रहे लोगों (समलैंगिकों तथा किन्नरों) के आन्दोलन में सहभागिता का गौरव अर्जित कर सकूँ। इससे देश की ढेर सारी सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं जैसे दहेज, भ्रष्टाचार, महंगाई आदि को कुछ ही सालों में जड़ से खत्म किया जा सकेगा। जबकि अब तक की लगभग सभी सरकारें इन्हें खत्म करने का दावा तो करती रही हैं किंतु इन्हें असाध्य रोग मान कर एड्स की तरह औपचारिक रूप से इलाज करती रही हैं और यह सोच कर कि जनता की गरीबी तो मिटा नहीं सकते, चलो अपनी ही मिटा लें। आज़ादी के बाद से सभी सरकारों और राजनेताओं ने, चाहे वे किसी भी दल के हों, इसी तरीके से जनसेवा की है और ऐसे ही करते जाने की आशा है।अरे आप को आश्चर्य हो रहा होगा कि समलैंगिकों तथा किन्नरों के आन्दोलन और गरीबी, भ्रष्टाचार तथा महँगाई का इंससे क्या सम्बन्ध है? मै कहता हूँ यही तो हमारे शोध का विषय है। यदि समलैंगिकों तथा किन्नरों को संसद, न्यायपालिका और पुलिस विभाग में शत प्रतिशत आरक्षण दे दिया जाय तो न केवल भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल जाएगी

एक दूसरे के ढोल में छेद करते हुये बेसुरे हो चले

एक पते की बात, क्या होगा यदि आप नास्तिक हो जाएंगे ? या फिर निहिलिस्ट, या फिर वादी या गैरवादी? (इष्टदेव जी ने वादी और गैरवादी शब्द का इस्तेमाल किया है, जिसका अर्थ व्यक्ति अपनी अपनी समझदानी के मुताबिक कुछ भी निकाल सकता है) किसी भी धर्म का कुछ बिगड़ जाएगा ?? या फिर कोई धर्म आपका कुछ बिगाड़ लेगा..या फिर आप तख्ता पलट क्रांति कर देंगे....बहरहाल धर्म के मामले में नीत्से की भूमिका कुछ कुछ लुभाने वाला है, खासकर उनलोगों के लिए जो ईश्वर की सत्ता को संदेह की नजर से देखते हैं। लेकिन अभी बात धर्म की है, इसलिये धर्म पर केंद्रित रहेंगे। नीत्से कहता है, “ईश्वर मर चुका है।” और लोग इधर कहते हैं किताब जिंदा रहता है, और जिंदा किताब के लिए लोगों की हत्या करते हैं..यह ट्रेजडी आफ धर्म है कि कामेडी आफ धर्म... ?? दुनिया में ईश्वर के नाम पर इनसान को गाजर मूली की तरह काटा गया है, सड़कों और चौराहों पर जिंदा जलाया गया है। आज भी इस तरह की झांकियां जहां तहां देखने को मिल जाती है। क्रूसेड, धर्मयुद्ध और जेहाद के नाम पर जितना खून बहा है उसके पाप (यदि दुनिया में पाप और पुण्य है तो) से ईश्वरवादियों को अब तक भस्म हो जाना

वे जो धर्मनिरपेक्ष हैं...

अभी थोड़े दिनों पहले मुझे गांव जाना पड़ा. गांव यानी गोरखपुर मंडल के महराजगंज जिले में फरेन्दा कस्बे के निकट बैकुंठपुर. हमारे क्षेत्र में एक शक्तिपीठ है.. मां लेहड़ा देवी का मन्दिर . वर्षों बाद गांव गया था तो लेहड़ा भी गया. लेहड़ा वस्तुत: रेलवे स्टेशन है और जिस गांव में यह मंदिर है उसका नाम अदरौना है. अदरौना यानी आर्द्रवन में स्थित वनदुर्गा का यह मन्दिर महाभारतकालीन बताया जाता है. ऐसी मान्यता है कि अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने राजा विराट की गाएं भी चराई थीं और गायों को चराने का काम उन्होंने यहीं आर्द्रवन में किया था और उसी वक़्त द्रौपदी ने मां दुर्गा की पूजा यहीं की थी तथा उनसे पांडवों के विजय की कामना की थी. हुआ भी यही. समय के साथ घने जंगल में मौजूद यह मंदिर गुमनामी के अंधेरे में खो गया. लेकिन फिर एक मल्लाह के मार्फ़त इसकी जानकारी पूरे क्षेत्र को हुई. मैंने जबसे होश संभाला अपने इलाके के तमाम लोगों को इस जगह पर मनौतियां मानते और पूरी होने पर दर्शन-पूजन करते देखा है. ख़ास कर नवरात्रों के दौरान और मंगलवार के दिन तो हर हफ़्ते वहां लाखों की भीड़ होती है और यह भीड़ सिर्फ़ गोरखपुर मंडल की ही नहीं होत

गजल

यूं कितने बेजान ये पत्थर लेकिन अब इंसान ये पत्थर ! मोम सा गलने की कोशिश में रहते हैं हलकान ये पत्थर। टकरा कर शीशा न तोड़े क्या इतने नादान ये पत्थर ! अपनी चोटों से क्यों इतना रहते हैं अनजान ये पत्थर ? इसके उसके जीवन के हैं स्थायी मेहमान ये पत्थर। (संदीप नाथ की यह गजल “दर्पण अब भी अंधा है” संग्रह से।)

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