गजल
यूं कितने बेजान ये पत्थर
लेकिन अब इंसान ये पत्थर !
मोम सा गलने की कोशिश में
रहते हैं हलकान ये पत्थर।
टकरा कर शीशा न तोड़े
क्या इतने नादान ये पत्थर !
अपनी चोटों से क्यों इतना
रहते हैं अनजान ये पत्थर ?
इसके उसके जीवन के हैं
स्थायी मेहमान ये पत्थर।
(संदीप नाथ की यह गजल “दर्पण अब भी अंधा है” संग्रह से।)
लेकिन अब इंसान ये पत्थर !
मोम सा गलने की कोशिश में
रहते हैं हलकान ये पत्थर।
टकरा कर शीशा न तोड़े
क्या इतने नादान ये पत्थर !
अपनी चोटों से क्यों इतना
रहते हैं अनजान ये पत्थर ?
इसके उसके जीवन के हैं
स्थायी मेहमान ये पत्थर।
(संदीप नाथ की यह गजल “दर्पण अब भी अंधा है” संग्रह से।)
lajawaab है पूरी ग़ज़ल ......... बहुर ही अछे शेर हैं ........
ReplyDeleteयूं कितने बेजान ये पत्थर
ReplyDeleteलेकिन अब इंसान ये पत्थर !
सब कुछ तो कह दिया इस अकेले शेर ने
सभी शेर बहुत सुन्दर
उम्दा ग़ज़ल.....
ReplyDeleteबेहतरीन ग़ज़ल !
___बधाई !
एक बेहतरीन ग़ज़ल .
ReplyDeleteसही है
आज का इंसान, इंसान कहाँ रहा .
पत्थर मानिंद हो गया है .
पत्थर तो फिर भी
कभी
नींव का
और कभी मील का पत्थर
होते हैं.
इंसानियत अब रही कंहाँ ?
बहुत उम्दा ग़ज़ल है जी
ReplyDeleteपढ़वाने के लिए शुक्रिया
यूं कितने बेजान ये पत्थर
ReplyDeleteलेकिन अब इंसान ये पत्थर !
आप की गजल के एक एक शव्द से सहमत हुं, बहुत सुंदर.
धन्यवाद
"In the name of God"
ReplyDeleteHello users,
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(Thank you)
khoobsoorat gazal hai.dhanyavaad.
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