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Showing posts from August, 2015

चित्रकूट के रामघाट पर

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हरिशंकर राढ़ी  रामघाट पर हमारा पहला मुकाबला बोटिंग वालों से हुआ। घाट की ओर रुख करते ही बोटिंग वाले कुछ इस तरह हम पर टूटे जैसे मधुमक्खियों, ततैया या बर्र का झुण्ड  टूटता है। केवल उनकी खींचतान और शोर -शराबा । मुझे ऐसे मुकाबलों से सख्त नफरत है। एक-दो बार मना करने के बावजूद जब उनकी दुकानदारी बंद नहीं हुई तोे गुस्सा फूट पड़ा। यार चैन से जीने दोगे या नहीं ? कोई यात्री तुम्हें ग्राहक के अलावा भी कुछ नजर आता है कि नहीं ? कौन किस मूड और किस परिस्थिति में आया है, तुम्हें इससे फर्क पड़ता है या नहीं ? और न जाने क्या - क्या ! थोड़ी सी भीड़ जमा हुई और फिर कोई खास मनोरंजन न पाकर धीरे-धीरे छंट गई। अपने देश  का भीड़तंत्र तो है ही ऐसा। रामघाट की एक नौका        छाया : हरिशंकर राढ़ी  अकेला पाकर रामघाट की सीढि़यों पर बैठ गया। शांत  होने का प्रयास करने लगा और सोचने भी लगा। आखिर ऐसा हुआ क्यों जा रहा है। लोग तीर्थों पर इसलिए जाते रहे होंगे कि कुछ शांति  मिल सके; थोड़ा सा स्वयं को भी देखने का अवसर मिल सके। भौतिकवाद और मौज-मस्ती से अलग अपनी आत्मा के नजदीक जाने का अवसर मिल सके। लेकिन कहां से कहां पहुंच ग

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