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Showing posts from December, 2007

तस्लीमा, तुम स्वीडेन चली जाओ प्लीज़

तस्लीमा के नाम केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकार की चिट्ठी तस्लीमा, तुम महान हो। बढ़िया लिखती हो। तुम्हारा लिखा हुआ हमारे देश में भी खूब बिकता है। लेकिन तस्लीमा तुम स्वीडेन चली जाओ। तस्लीमा तुमने हमारी धर्मनिरपेक्षता के स्वांग को उघाड़ दिया है। हम कितने महान थे। हम कितने महान हैं। हम लोकतंत्र हैं, हमारे यहां संविधान से राज चलता है, जिसमें विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात नागरिकों के मूल अधिकारों में दर्ज है। लेकिन ये अधिकार तो हम अपने नागरिकों को भी नहीं देते हैं तस्लीमा। हम विनायक सेन को कैद कर लेते हैं। वरवर राव हमारे निशाने पर है। विरोध करने वालों को हम माफ नहीं करते। हमारी जेलों में लेखक रहें ये अंग्रेजों के समय से चली आ रही परंपरा है। और तुम तो विदेशी हो तस्लीमा। नंदीग्राम में हमने एक शख्स को तो इसलिए गिरफ्तार कर लिया है कि उसकी झोली में महाश्वेता की रचनाएं मिली हैं। फिर भी ये लोकतंत्र है तस्लीमा। हमारी भी कुछ इज्जत है। हमारी इज्जत तुम्हारे यहां होने से सरेआम उछल रही है। तस्लीमा, जिद न करो। यूरोपीय लोकतंत्र के सुरक्षित वातावरण में चली जाओ। अब जाओ भी। दफा हो जाओ भारत से

हमारी संस्कृति और जाति व्यवस्था को मत छेड़ो प्लीज़...

...गुलामी भी हम बर्दाश्त कर लेंगे। क्या देश के बीते लगभग एक हजार साल के इतिहास की हम ऐसी कोई सरलीकृत व्याख्या कर सकते हैं? ऐसे नतीजे निकालने के लिए पर्याप्त तथ्य नहीं हैं। लेकिन हाल के वर्षों में कई दलित चिंतक ऐसे नतीजे निकाल रहे हैं और दलित ही नहीं मुख्यधारा के विमर्श में भी उनकी बात सुनी जा रही है। इसलिए कृपया आंख मूंदकर ये न कहें कि ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा है। भारत में इन हजार वर्षों में एक के बाद एक हमलावर आते गए। लेकिन ये पूरा कालखंड विदेशी हमलावरों का प्रतिरोध करने के लिए नहीं जाना जाता है। प्रतिरोध बिल्कुल नहीं हुआ ये तो नहीं कहा जा सकता लेकिन समग्रता में देखें तो ये आत्मसमर्पण के एक हजार साल थे। क्या हमारी पिछली पीढ़ियों को आजादी प्रिय नहीं थी? या फिर अगर कोई उन्हें अपने ग्रामसमाज में यथास्थिति में जीने देता था, उनकी पूजा पद्धति, उनकी समाज संरचना, वर्णव्यवस्था आदि को नहीं छेड़ता था, तो वो इस बात से समझौता करने को तैयार हो जाते थे कि कोई भी राजा हो जाए, हमें क्या? ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर इसका जवाब ढूंढने की कोई कोशिश अगर हुई है, तो वो मेरी जानकारी में नहीं है। देश की लगभग ए

इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौडा

इष्ट देव सांकृत्यायन पिछ्ले दिनो मैने त्रिलोचन जी से सम्बन्धित एक संस्मरण लिखा था. इस पर प्रतिक्रिया देते हुए भाई अनूप शुक्ल यानी फुरसतिया महराज ने और भाई दिलीप मंडल ने आदेश दिया था कि इस विधा के बारे मे मै विस्तार से बताऊँ और अपने कुछ सानेट भी पढवाऊ. मेरे सानेट के मामले मे तो अभी आपको पहले से इयत्ता पर पोस्टेड सानेटो से ही काम चलाना पडेगा, सानेट का संक्षिप्त इतिहास मै आज ही पोस्ट कर रहा हूँ. हाँ, कविता को मै चूँकि छन्दो और रूपो के आधार पर बांटने के पक्ष मे नही हूँ, क्योंकि मै मानता हूँ कि काव्यरूपो के इस झगडे से कविता का कथ्य पीछे छूट जाता है; इसलिए मेरे सॉनेट कविता वाले खांचे मे ही दर्ज है. वैसे यह लेख आज ही दैनिक जागरण के साहित्य परिशिष्ट पुनर्नवा मे प्रकाशित हुआ है और वही लेख दैनिक जागरण के ही मार्फत याहू इंडिया ने भी लिया है. भाई मान्धाता जी ने भी यह लेख अपने ब्लाग पर याहू के हवाले से लिया है. निश्चित रूप से भाई अनूप जी इसे पढ भी चुके होंगे, पर अन्य साथी भी इस विधा के इतिहास-भूगोल से सुपरिचित हो सके इस इरादे से मै यह लेख यहाँ दे रहा हूँ. पहली ही मुलाकात में त्रिलोचन शास्

हमारी गालियों में मैकाले है, क्लाइव नहीं

लेकिन सवाल ये है कि आज क्लाइव और मैकाले की बात ही क्यों करें? सही सवाल है। समय का पहिया इतना आगे बढ़ गया है। ऐसे में इतिहास के खजाने से या कूड़ेदान से कुछ निकालकर लाने का औचित्य क्या है? चलिए इसका जवाब भी मिलकर ढूंढेंगे, अभी जानते हैं इतिहास के इन दो पात्रों के बारे में। आप ये सब वैसे भी पढ़ ही चुके होंगे। स्कूल में नहीं तो कॉलेज में। कौन था क्लाइव क्लाइव न होता तो क्या भारत में कभी अंग्रेजी राज होता? इतिहास का चक्र पीछे लौटकर तो नहीं जाता इसलिए इस सवाल का कोई जवाब नहीं हो सकता। लेकिन इतिहास हमें ये जरूर बताता है कि क्लाइव के लगभग एक हजार यूरोपीय और दो हजार हिंदुस्तानी सिपाहयों ने पलासी की निर्णायक लड़ाई (22 जून, 1757) में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हरा कर भारत में अंग्रेजी राज की नींव रखी थी। वो लड़ाई भी क्या थी? सेनानायक मीरजाफर ने इस बात का बंदोबस्त कर दिया था कि नवाब की ज्यादातर फौज लड़ाई के मैदान से दूर ही रहे। एक दिन भी नहीं लगे थे उस युद्ध में। उस युद्ध के बाद अंग्रेजों ने भारतीय संपदा की लूट का जो सिलसिला शुरू किया, उसकी बराबरी दक्षिण अमेरिका में स्पेन के युद्ध सरदारों की

क्लाइव या मैकाले - किसे पहले जूते मारेंगे आप?

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डिसक्लेमर : इस चर्चा में अगर कोई विचार मेरा है , तो उसका अलग से जिक्र किया जाएगा । - दिलीप मंडल इन दो तस्वीरों को देखिए । इनमें ऊपर वाले हैं लार्ड क्वाइव और नीचे हैं लॉर्ड मैकाले। लॉर्ड वो ब्रिटेन में होंगे हम उन्हें आगे क्लाइव और मैकाले कहेंगे । एक सवाल पूछिए अपने आप से । कभी आपको अगरह कहा जाए कि इनमें से किसी एक तस्वीर को जूते मारो , या पत्थर मारो या गोली मारो या नफरत भरी नजरों से देखो । तो आपकी पहली च्वाइस क्या होगी । अनुरोध इतना है कि इस सवाल को देखकर किसी नए संदर्भ की तलाश में नेट पर या किताबों के बीच न चले जाइएगा । अपनी स्मृति पर भरोसा करें , जो स्कूलों से लेकर कॉलेज और अखबारों से लेकर पत्रिकाओं में पढ़ा है उसे याद करें । और जवाब दें । ये सवाल आपको एक ऐसी यात्रा की ओर ले जाएगा , जिसकी चर्चा कम हुई है । जो इन विषयों के शोधार्थी , जानने वाले हैं , उनके लिए मुमकिन है कि ये चर्चा निरर्थक हो । लेकिन इस विषय पर मैं अभी जगा हूं , इसलिए मेरा सब

...कच्चे ही हो अभी त्रिलोचन तुम!

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इष्ट देव सांकृत्यायन तारीख 9 दिसम्बर 2007 दिन रविवार होने और अरसे बाद रविवार को रविवारी फुर्सत मिलने के कारण में पूरी तफरीह के मूड में था. करीब शाम को आए विनय और देर तक लुक्कड़ई होती रही. बाद में हम उनके ही घर चले गए और वहीं टीवी आन किया. रात साढ़े नौ बजे. मैंने टीवी खोला तो था डीडी भारती का कार्यक्रम 'सृजन' देखने के लिए, पर पहले सामने कोई न्यूज चैनल आ गया. इसके पहले की चैनल सरकाता, नीचे चल रहे एक प्रोमो पर ध्यान गया- "हिन्दी के वरिष्ठ कवि त्रिलोचन का निधन"। सहसा विश्वास नहीं हुआ. इसके बावजूद कि त्रिलोचन इधर काफी समय से बीमार पड़े थे मन ने कहा कि यह शायद किसी और त्रिलोचन की बात है. हालांकि वह किसी और त्रिलोचन की बात नहीं थी. यह तय हो गया ख़बरों के हर चैनल पर यही खबरपट्टी चलते देख कर. यह अलग बात है कि शास्त्री जी के बारे में इससे ज्यादा खबर किसी चैनल पर नहीं थी, पर उस दिन में लगातार इसी सर्च के फेर में फिर 'सृजन' नहीं देख सका। इस प्रलय के बाद फिर सृजन भला क्या देखते! हिन्दी में आचार्य कोटि के वह अन्तिम कवि थे। एक ऐसे कवि जिसमें आचय्त्व कूट-कूट कर भरा था, पर उसका

याद तुम्हारी आई है

नजरें जाती दूर तलक हैं पर दिखती तनहाई है क्या तुम रोते हो रातों में सीली सी पुरवाई है रातों में आते थे अक्सर ख्वाब सुहाने तू हंस दे बेरौनक मुस्कान हुई है रोती सी शहनाई है हम तेरी यादों के सहारे जीते थे खुश होते थे अब उजडा लगता है चमन क्यों फीकी सी रौनाई है गम के सफर में साथ दिया है साया मेरा कदम-कदम जानें क्या अब बात हुई है धुंधली सी परछाई है हमें खबर थी के तुम खुश हो अपनी किस्मत लेकर संग मुद्दत बाद अचानक कैसे याद तुम्हारी आई है रतन

हिंदी के दस हजार ब्लॉग, कई लाख पाठक

नए साल में ब्लॉगकारिता का एजेंडा स्वागत कीजिए 2008 का। हिंदी ब्लॉग नाम के अभी अभी जन्मे शिशु के लिए कैसा होगा आने वाला साल। हम अपनी आकांक्षाएं यहां रख रहें हैं। आकांक्षाएं और उम्मीदें आपकी भी होंगी। तो लिख डालिए उन्हें। अगले साल इन्हीं दिनों में हिट और मिस का लेखाजोखा कर लेंगे। - दिलीप मंडल हिंदी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो अभी ये लक्ष्य मुश्किल दिख सकता है। लेकिन टेक्नॉलॉजी जब आसान होती है तो उसे अपनाने वाले दिन दोगुना रात चौगुना बढ़ते हैं। मोबाइल फोन को देखिए। एफएम को देखिए। हिंदी ब्लॉगिंग फोंट की तकनीकी दिक्कतों से आजाद हो चुकी है। लेकिन इसकी खबर अभी दुनिया को नहीं हुई है। उसके बाद ब्लॉगिंग के क्षेत्र में एक बाढ़ आने वाली है। हिंदी ब्लॉग के पाठकों की संख्या लाखों में हो जब तक ब्लॉग के लेखक ही ब्लॉग के पाठक बने रहेंगे, तब तक ये माध्यम विकसित नहीं हो पाएगा। इसलिए जरूरत इस बात की है कि ब्लॉग उपयोगी हों, सनसनीखेज हों, रोचक हों, थॉट प्रोवोकिंग हों। इसका सिलसिला शुरू हो गया है। लेकिन इंग्लिश और दूसरी कई भाषाओं के स्तर तक पहुंचने के लए हमें काफी लंबा सफर तय करना है। समय कम है, इ

अपनी राम कहानी है

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रतन सपनों के बारे में कहना कुछ कहना बेमानी है दुनिया के लोगों जैसी ही अपनी राम कहानी है सोना चांदी महल इमारत सब कुछ पल के साथी हैं सच यह है कुछ और नहीं है जीवन दाना पानी है गम और खुशियाँ रात दिवस ये शाम सुबह और सूरज चाँद ये वैसे ही आते जाते जैसे आनी जानी है अगर मगर लेकिन और किन्तु ये सब हमको उलझाते इन पर वश तब तक चलता है जब तक साथ जवानी है अपनी राह नहीं है सीधी चिंता गैरों को लेकर उनके बारे में कुछ कहना आदत वही पुरानी है

यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था

सत्येन्द्र प्रताप कवि त्रिलोचन. पिछले पंद्रह साल से कोई जानता भी न था कि कहां हैं. अचानक खबर मिली कि नहीं रहे. सोमवार, १० दिसंबर २००७. निगमबोध घाट पर मिले. मेरे जैसे आम आदमी से. देश की आजादी के दौर को देखा था उन्होंने. लोगों को जीते हुए। एकमात्र कवि. जिसको देखा, कलम चलाने की इच्छा हुई तो उसी के मन, उसी की आत्मा में घुस गए। मानो त्रिलोचन आपबीती सुना रहे हैं. पिछले साल उनकी एक रचना भी प्रकाशित हुई. लेकिन गुमनामी के अंधेरे में ही रहे त्रिलोचन। अपने आखिरी दशक में. उनकी तीन कविताएं... भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल जिसको समझे था है तो है यह फौलादी. ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी नहीं, झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल, नहीं संभाल सका अपने को। जाकर पूछा, 'भिक्षा से क्या मिलता है.' 'जीवन.' क्या इसको अच्छा आप समझते हैं. दुनिया में जिसको अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा पेट काम तो नहीं करेगा. 'मुझे आपसे ऐसी आशा न थी.' आप ही कहें, क्या करूं, खाली पेट भरूं, कुछ काम करूं कि चुप मरूं, क्या अच्छा है. जीवन जीवन है प्रताप से, स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था, यह

कहाँ जाएंगे

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रतन रहे जो अपनों में बेगाने कहां जाएंगे जहाँ हों बातों से अनजाने कहां जाएंगे प्यार का नाम ज़माने से मिटा दोगे अगर तुम ही बतलाओ कि दीवाने कहां जाएंगे होंगे साकी भी नहीं मय नहीं पयमाने नहीं न हों मयखाने तो मस्ताने कहां जाएंगे लिखे जो ख्वाब कि ताबीर सुहाने दिन में न हों महफिल तो वे अफ़साने कहां जाएंगे यों तो है जिंदगी जीने का सबब मर जाना न हों शम्मा तो ये परवाने कहां जाएंगे है समझ वाले सभी पर हैं नासमझ ये रतन बात हो ऐसी तो समझाने कहां जायेंगे

और ज्यादा हंसो

थोडी देर पहले मैंने अनिल रघुराज के ब्लोग पर एक पोस्ट पढा है. उस पर प्रतिक्रिया देना चाह रहा था, पर यह प्रतिक्रिया ही लम्बी कविता बन गई. मैंने सोचा चलो पोस्ट बना देते हैं. पढ़ कर बताइएगा, कुछ गड़बड़ तो नहीं किया? हंसो-हंसो ताकि उन्हें यह शक न हो कि तुम पढ़ रहे हो उसमें भी कविता पढ़ रहे हो और वह उसे सचमुच समझ भी रहे हो ताकि उन्हें यह शक न हो तुम सचमुच पढ़ने के लिए पढ़ रहे हो ताकि उन्हें यह लगे कि तुम सिर्फ पर्सेंटेज बनाने के लिए पढ़ रहे हो कि तुम सिर्फ नौकरी पाने के लिए पढ़ रहे हो कि तुम्हारे लिए पढ़ने का मतलब जीवन और जगत के प्रति कोई सही दृष्टि विकसित करना नहीं है ताकि उन्हें यह लगे कि तुम किसी प्रोफेसर के बेटे होया उसके होने वाले दामाद हो पढ़ लिख कर इसी यूनिवर्सिटी में या किसी और संस्थान में एक पुर्जे की तरह फिट हो जाओगे हंसो-हंसो ताकि उन्हें यह लगे कि फिर तुम्हारा जम कर इस्तेमाल किया जा सकेगा जैसे चाहा जाएगा वैसे तुम्हे बजाया जाएगा कि तुम्हे बन्दर से भी बदतर बना लिया जाएगा चंद कागज़ के टुकडों के लिए तुम्हे जैसे चाहे वैसे नचाया जाएगा झूठ को सुच्चा सच और सच को सरासर झूठ तुमसे कहलवाया जाएगा हंस

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