हमारी गालियों में मैकाले है, क्लाइव नहीं

लेकिन सवाल ये है कि आज क्लाइव और मैकाले की बात ही क्यों करें? सही सवाल है। समय का पहिया इतना आगे बढ़ गया है। ऐसे में इतिहास के खजाने से या कूड़ेदान से कुछ निकालकर लाने का औचित्य क्या है? चलिए इसका जवाब भी मिलकर ढूंढेंगे, अभी जानते हैं इतिहास के इन दो पात्रों के बारे में। आप ये सब वैसे भी पढ़ ही चुके होंगे। स्कूल में नहीं तो कॉलेज में।

कौन था क्लाइव


क्लाइव न होता तो क्या भारत में कभी अंग्रेजी राज होता? इतिहास का चक्र पीछे लौटकर तो नहीं जाता इसलिए इस सवाल का कोई जवाब नहीं हो सकता। लेकिन इतिहास हमें ये जरूर बताता है कि क्लाइव के लगभग एक हजार यूरोपीय और दो हजार हिंदुस्तानी सिपाहयों ने पलासी की निर्णायक लड़ाई (22 जून, 1757) में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हरा कर भारत में अंग्रेजी राज की नींव रखी थी। वो लड़ाई भी क्या थी? सेनानायक मीरजाफर ने इस बात का बंदोबस्त कर दिया था कि नवाब की ज्यादातर फौज लड़ाई के मैदान से दूर ही रहे। एक दिन भी नहीं लगे थे उस युद्ध में। उस युद्ध के बाद अंग्रेजों ने भारतीय संपदा की लूट का जो सिलसिला शुरू किया, उसकी बराबरी दक्षिण अमेरिका में स्पेन के युद्ध सरदारों की मचाई लूट से ही की जा सकती है।

और कौन था मैकाले

मैकाले को भारतीय इतिहास का हर छात्र एक ऐसे शख्स के रूप में जानता है जिसने देश को तो नहीं लेकिन भारतीय मानस को जरूर गुलाम बनाया। हमारी सामूहिक स्मृति में इसका असर इस रूप में है कि हम जिसे विदेशी मिजाज का, देश की परंपरा से प्रेम न करने वाला, विदेशी संस्कृति से ओतप्रोत मानते हैं उसे मैकाले पुत्र, मैकाले की औलाद, मैकाले का मानस पुत्र, मैकाले की संतान आदि कहकर गाली देते हैं।

लेकिन भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना के सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक क्लाइव को लेकर हमारे यहां घृणा का ऐसा भाव आश्चर्यजनक रूप से नहीं है। आखिर ऐसा क्यों है। मैकाले जब भारत आया तो भारत में अंग्रेजी राज जड़ें जमा चुका था। मैकाले को इस बात के लिए भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता है कि उसने क्लाइव की तरह तलवार और बंदूक के बल पर एक देश को गुलाम बनाया। या कि उसने छल से बंगाल के नवाब को हरा दिया। मैकाले अपने हाथ में तलवार नहीं कलम लेकर भारत आया था।

लेकिन मैकाले फिर भी बड़ा विलेन है।

मैकाले हमारी सामूहिक स्मृति में घृणा का पात्र है तो ये अकारण नहीं है। मैकाले के कुछ चर्चित उद्धरणों को देखें। उसका दंभ तो देखिए

"मुझे एक भी प्राच्यविद (ओरिएंटलिस्ट) ऐसा नहीं मिला जिसे इस बात से इनकार हो कि किसी अच्छी यूरोपीय लाइब्रेरी की किताबों का एक रैक पूरे भारत और अरब के समग्र साहित्य के बराबर न हो।"

और उनके इस कथन को कौन भूल सकता है। प्रोफेसर बिपिन चंद्रा की एनसीईआरटी की इतिहास की किताब में देखिए।

" फिलहाल हमें भारत में एक ऐसा वर्ग बनाने की कोशिश करनी चाहिए जो हमारे और हम जिन लाखों लोगों पर राज कर रहे हैं, उनके बीच इंटरप्रेटर यानी दुभाषिए का काम करे। लोगों का एक ऐसा वर्ग जो खून और रंग के लिहाज से भारतीय हो, लेकिन जो अभिरूचि में, विचार में, मान्यताओं में और विद्या-बुद्धि में अंग्रेज हो।"

इतिहासकार सुमित सरकार मैकाले को कोट करते हैं-

"अंग्रेजी में शिक्षित एक पढ़ा लिखा वर्ग, रंग में भूरा लेकिन सोचने समझने और अभिरुचियों में अंग्रेज।"

भारतीय इतिहास की किताबों में मैकाले इसी रूप में आते हैं। पांचजन्य के एक लेख में मैकाले इस शक्ल में आते हैं-

लार्ड मैकाले का मानना था कि जब तक संस्कृति और भाषा के स्तर पर गुलाम नहीं बनाया जाएगा, भारतवर्ष को हमेशा के लिए या पूरी तरह, गुलाम बनाना संभव नहीं होगा। लार्ड मैकाले की सोच थी कि हिंदुस्तानियों को अँग्रेज़ी भाषा के माध्यम से ही सही और व्यापक अर्थों में गुलाम बनाया जा सकता है। अंग्रेज़ी जानने वालों को नौकरी में प्रोत्साहन देने की लार्ड मैकाले की पहल के परिणामस्वरूप काँग्रेसियों के बीच में अंग्रेज़ी परस्त काँग्रेसी नेता पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एकजुट हो गए कि अंग्रेज़ी को शासन की भाषा से हटाना नहीं है अन्यथा वर्चस्व जाता रहेगा और देश को अंग्रेज़ी की ही शैली में शासित करने की योजनाएँ भी सफल नहीं हो पाएँगी।...भाषा के सवाल को लेकर लार्ड मैकाले भी स्वप्नदर्शी थे, लेकिन उद्देश्य था, अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से गुलाम बनाना।

तो ऐसे मैकाले से भारत नफरत न करे तो क्या करे? लेकिन कहानी अभी खत्म नहीं हुई है, दोस्त।

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