फिर शाम हुई बाजार लगा
(मंथन जी ने इस गजल को लिखा है) फिर शाम हुई बाजार लगा, दोशीजा कोई नीलाम हुई चुभते फिकरे, खिचता आंचल, मुफलिस की गरीबी आम हुई। सीने पे टिकीं भूखी नजरें, महफिल में सौदे इस्मत के ये पत्थर दिल, पत्थर चेहरे, आंखों से हया गुमनाम हुई । अंधी गलियां, मसली कलियां, परदों के पीछे रंगरलियां जो कल तक धार थी गंगा की, वो आज छलकता जाम हुई। बोझल सांसे, बेबस आहें, पलकों में उजड़ते ख्वाब कई करवट करवट सिसकी सिसकी, यूं ही रात तमाम हुई । इंसाफ के पहरेदारों से, इतना तो पूछे आज कोई ये भी तो किसी की इज्जत थी, क्यों नाहक ही बदनाम हुई ।