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Showing posts from March, 2009

तुम्हारी आंखें क्रिमिनल की तरह लगती है

आज तक मैंने भूत देखे नहीं है, लेकिन उनके किस्से खूब सुने हैं...इनसान के रुप में आरपी यादव भूत था...पूजा पाठ से उसका दूर दूर तक कोई सरोकार नहीं था, लेकिन खिलाने के नाम पर वह मरघट में भी आ सकता था...उसके बिछापन पर चारों तरफ मार्क्स की मोटी-मोटी किताबें बिखरी रहती थी...और उन किताब के पन्नों पर ही वह पेंसिल से छोटे-छोटे अक्षर में अपने कामेंट्स लिखा करता था...हर चार वाक्य के बाद वह लोहिया का नाम जरूर लेता था...उसके गले में रुद्राक्ष की एक माला हमेशा रहती थी...पंद्रह मिनट पढ़ता था और पैंतालिस मिनट मार्क्स, लोहिया, जेपी आदि की टीआरपी बढ़ाता था...उसकी अधिकांश बातें खोपड़ी के ऊपर बाउंस करते हुये निकलती थी...उसकी जातीय टिप्पणी से कभी -कभी तो मार पीट तक की नौबत आ जाती थी...वह अपने आप को प्रोफेसर कहता था...वह एक एसे कालेज का प्रोफेसर था, जिसे सरकार की ओर से मान्यता नहीं मिली थी...वेतन के नाम पर उसे अठ्ठनी भी नहीं मिलता था, लड़को को अंग्रेजी पढ़ाकर वह अपने परिवार को चला रहा था...कभी-कभी वह अजीबो गरीब हरकत करता था...बड़े गर्व से वह बताता था कि उसके अपने ही जात बिरादरी वाले लोग उसका दुश्मन बन गये हैं

अन्ना,आई लव यू...बला की तड़प थी तेरे अंदर

दिल्ली के लक्ष्मीनगर की तंग गलियों के क्या कहने...एक बार अंदर घुस गये तो खत्म होने का नाम ही लेता है...बस घुसते जाइये इस गलीसे उस गली में..भूलभूलैये की तरह है...कभी इन मैं इन तंग गलियों का अभ्यस्त था...घर से निकलते वक्त मेरे हाथ में कोई न कोई किताब होती थी, और पन्नों पर सहजता से आंखे गड़ाये हुये मैं इन गलियों निकल जाता था...एक भी कदम गलत नहीं पड़ते थे...सड़क पर चलते-चहते पढ़ने का नशा ही कुछ और है....यह आदत कब और कैसे लगी पता नहीं, लेकिन दिल्ली में इस आदत से बुरी तरह से ग्रस्त था...अभी भी यह आदत छुटी नहीं है...मुंबई की बेस्ट बसों में भी चलते-चलते पढ़ता रहता हूं। पढ़ने का असली चस्का गोर्की से लगा था, मेरा बचपन, माई एप्रेंटिशीप...और माई यूनिवर्सिटी...इन तीनों किताबों को पढ़ने के दौरान ही गोर्की मेरा लंगोटिया हो गया था...उसे खूब पढ़ता था...खोज खोज कर पढ़ता था...उसके शब्द सीधे मेरा गर्दन पकड़ लेते थे, और फिर मैं हिलडुल भी नहीं पाता था...मेरी भूख तक उसने छिन ली थी...निगोड़ा कहीं का...एसे कहीं लिखा जाता है। मेरी खोपड़ी में वह बुरी तरह से घूसता गया, अपने शब्दों के माध्यम से। मां का एक कैरेक्टर

ईश्वर ने दुनिया बनाने से पहले एक सिगरेट सुलगाई होगी

ईश्वर ने दुनिया बनाने से पहले एक सिगरेट सुलगाई होगी..ये बात शायद रसुल ने ही लिखी थी...मैं भूलता बहुत ज्यादा हूं...किसी दिन सांस लेना न भूल जाऊ...वैसे स्वाभाविक क्रियाओं को भूलने से कोई संबंध नहीं है...डर की बात नहीं है, सांस लेना नहीं भूलूंगा...सिगरेट के बारे में एक डायलोग है...अब किसने लिखा है याद नहीं है...कुछ बुझौवल टाइप का है...वह कौन सी चीज है जो खींचने पर छोटी होती है...सिगरेट पर कुछ बेहतरीन फिल्मी गाने भी बने हैं...सबसे प्यारा गाना है...हर फिक्र को धुयें में उड़ता चला गया...एक समय था जब मैं रेलगाड़ी की तरह धुयें उड़ाता था...स्कूल जाने से पहले ही मुहल्ले के आवारा दोस्तों के साथ सिगरेट का कश लगाने लगा था...वो बस्ती ही एसी थी...स्कूल में कई दोस्तों को सिगरेट पीने की आदत डाल दी थी...बुरी लत बचपन में ही लगती है....अच्छा होता लाइफ में एक टेक मिलता...कई चीजें ठीक कर लेता... आप पहली-पहली बार किसी लड़की को लव लेटर लिखे...और हिम्मत करके उसे थमा दे...शाम को उसका बाप आपके घर पर आ धमके और आपकी कान खींचते हुये आपके लेटर में से ग्रैमेटिकल गलतियां दिखाये...तो आप क्या करेंगे। और दूसरे दिन से आपक

किस डाक्टर ने कहा है सोच सोच कर लिखो

किस डाक्टर ने कहा है सोच सोच कर लिखो...जिस तरह से लाइफ का कोई ग्रामर नहीं है, उसी तरह से लिखने का कोई ग्रामर नहीं है...पिछले 12 साल से कुत्ते की तरह दूसरों के इशारे पर कलम चलाता रहा, दूसरों के लिखे को एडिट करता रहा...हजारों बार एसे विचार दिमाग में कौंधे, जिन्हें पर उसी वक्त खूब सोचने की जरूरत महसूस करता रहा, और फिर समय की रेलम पेल में उड़ गये...ना बाबा अब सोच सोच कर मैं लिखना वाला नहीं है..बस दिमाग में जो चलता जाएगा वो लिखता जाऊंगा.. .मेरा दागिस्तान...इसी किताब में एक कहानी थी...एडिट करने वाले संपादक की...उसके पास जो कुछ भी जाता था, वह उसे एडिट कर देता था, उसे इसकी खुजली थी। यहां तक की कवियों की कवितायों में भी अपनी कलम घूसेड़ देता था...एक बार एक सनकी कवि से उसका पाला पड़ गया, उसकी कविता को उस संपादक ने एडिट कर दिया था। सनकी कवि ने कुर्सी समेत उसे उठा कर बाहर फेंक दिया... मेरा दागिस्तान में बहुत सारे गीत हैं...और रूस का लोक जीवन है। यह किताब सोवियत संघ के समय के किसी रूसी लेखक ने लिखी थी...पढ़ते समय अच्छा लगा था...मुझे याद है एक बार मेरे हाथ में आने के बाद मैं इससे तब तक चिपका रहा था ज

लिखने के लिये कोई सबजेक्ट चाहिये...भांड़ में जाये सबजेक्ट

क से कबूतर, ख से खरगोश, ग से गधा, घ से घड़ी...ए से एपल, बी से ब्याय, सी से कैट...बहुत दिनों से कुछ न लिख पाने की छटपटाहट है...लिखने के लिये कोई सबजेक्ट चाहिये...भांड़ में जाये सबजेक्ट...आज बिना सबजेक्ट का ही लिखूंगा...ये भी कोई बात हुई लिखने के लिए सबजेक्ट तय करो...ब्लौग ने सबजेक्ट और संपादक को कूड़े के ढेर में फेंक दिया है...जो मन करे लिखो...कोई रोकने वाला नहीं है। अभी मैं एक माल के एसी कमरे में बैठा हूं, और एक मराठी महिला सामने की गैलरी में झाड़ू लगा रही है और किसी मराठी मानुष के साथ गिटर पिटर भी कर रही है। मुंबई में मराठी महिलाओं की मेहनत को देखकर मैं दंग रह जाता हूं...जीतोड़ मेहनत करने के बावजूद उनके चेहरे में शिकन तक नहीं होती...मुंबई के अधिकांश दफ्तरों में आफिस के रूप में मराठी मानुष ही मिलते हैं। दसवी से ज्यादा कोई शायद ही पढ़ा हो...लेकिन ये मेहनती और इमानदार होते हैं...इसके बावजूद ये नीचले पायदन पर हैं...किताबों में इनका मन नहीं लगता है...अब न लगे अपनी बला से... आज का नवभारत टाइम्स मेरे डेस्क पर पड़ा हुआ है, हेडिंग है भारत ने दिया पाकिस्तान को जवाब...दबाव में झुके जरदारी...खत्म

माही वे तैनू याद करां, ने मेरी जिंदगी पलट दी

पंजाब सिर्फ खान पान में ही अव्वल नहीं है, गीतों और संगीतों की भी यहां समृद्ध परंपरा रही है। सूफी गायकी से लेकर, इश्क और शराब में डूबी उम्दा गीतों की यहां पर जबरदस्त रचना हुई है, और समय समय पर इन गीतों को बेहतर आवाजा देने वाले शानदार गायक भी ऊभरें हैं। गायकी की इस परंपरा में एक नाम जुड़ा है एम के( मनोज कुमार)। मनोज हर शैली की गीतों को अपनी आवाज देकर पंजाब की गायकी परंपरा को समृद्ध कर रहे हैं। मुक्तसर में एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे एम के को बचपन से ही गायकी का शौक था। इनकी स्कूली शिक्षा अमृतसर के नवजोत मार्डन हाई स्कूल में हुई। आगे की शिक्षा के लिए यह दिल्ली आ गये। स्कूल और कालेज में होने वाले कार्यक्रमों अक्सर ये अपनी आवाज का जादू चलाते थे। लेकिन उस वक्त इन्हें पता नहीं था कि इनकी मंजिल मुंबई है। आइये जाने इनकी कहानी इन्हीं की जुबानी ..... मैं अक्सर अपने पिता जी के काम में मदद करता रहता था। इस सिलसिले में मुझे अक्सर ट्रेनों में सफर करना पड़ता था, कभी आगरा, कभी ग्वालियर कभी भोपाल, कभी जयपुर तो कभी अजमेर। दूर दूर तक मुझे यात्रा करनी पड़ती थी. सफर में अजनबियों से ज्यादा घुलना मिलना न

अँधेरा मिटेगा एक न एक दिन

विज्ञान भूषण कहते हैं कि अँधेरा कितना भी गहरा और भयावह क्यों न हो उसे भी एक न एक दिन मिटना ही होता है। रोशनी की एक किरण चारो ओर बिखरे असीमित तमस को चीरकर जीवन ऊर्जा का संचार कर देती है। प्रकृति का यह नियम हम सबके जीवन पर भी अक्षरश: लागू होता है। इसे हमारे समाज की विडंबना ही कहना चाहिए कि वैज्ञानिक और आर्थिक स्तर पर विकास के उच्चतम सोपानों पर पहँुचने के बाद भी हमारी सोच, आज भी पुरुषवादी मानसिकता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई है। सार्वजनिक स्थलों और मीडिया में हम भले ही नारी स”ाक्तिकरण  के बड़े-बड़े दावे क्यों न कर लें लेकिन इस बात से इनकार नही किया जा सकता है कि घर के भीतर और बाहर  स्त्री नाम के जीव को अपना अस्तित्व और अपनी पहचान बनाए रखने के लिए हर क्षण जूझना पड़ता है। शारीरिक और उससे बहुत ज्यादा मानसिक स्तर पर होने वाले इस संघर्ष की पीड़ा को कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है। कथाक्रम जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका से जुड़ी रचनाकार रजनी गुप्त का तीसरा उपन्यास ‘एक न एक दिन’ हाल में ही किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास के माध्यम से लेखिका ने नारी मन में घटित होने वाली उस टूटन-फूटन को बहुत श

गीत

कैसा बसंत जीवन की बगिया में कैसा बसंत । कागसंघ छीन लिया कोयल की कूक मंजरियाँ सेंक रहीं अनजानी धूप चक्रवाक चंदा को देख , रहा पूछ बोल प्रिये प्रीति मेरी कहाँ गई चूक ? खुशियों को छोड़ गए अलबेले कंत, जीवन की बगिया में कैसा बसंत ! फूलों को फूंक त्वचा गरमाते लोग शूलों को नित्य नमन कर जाते लोग भ्रमर बने सन्यासी सिखलाते योग कौन नहीं झेल रहा ख़ुद का वियोग ? चोली और दामन में हो गया संघर्ष जीवन की बगिया में कैसा बसंत ! सपनों के सेंधमार हैं मालामाल डोम बने हरिश्चंद करते सवाल दिग्दिगंत फ़ैल रहा एक महाजाल दुर्योधन नृत्य करे शकुनी दे ताल तक्षक जन्मेजय में दोस्ती बुलंद ! जीवन की बगिया में कैसा बसंत ?

लादेनवादियों के लिये नो लास गेम

जंग में अपनी जमीन पर किये हमले की रणनीति का पूरा लाभ उठाया है इस बार लादेनवादियों ने। 12 नकाबपोश थे और इस बार एक भी हाथ नहीं लगे। लादेनवादियों के लिये यह नो लास गेम था। उनके सामने पाकिस्तान प्रशासन पंगु है और वो जानते हैं कि अपनी जमीन पर कैसे हमला किया जाता है। यह आधुनिक गुरिल्ला स्टाइल का नकाबबंद हमला है, जो सवालों का अंबार खड़ा करता है और इन सवालों के जवाब लादेन और मुल्ला ओमर जुड़े हुये हैं, जिन्होंने इस्लाम की एक धारा को तालिबान के रूप में अफगानिस्तान में सफलतापूर्वक स्थापित किया था और आज भी इस्लाम से जुड़ा एक तबका इस धारा से संचालित हो रहा है। अपने ब्लाग कला जगत पर डाक्टर उत्तमा ने अफगानिस्तान में तालिबानी उफान में एक गंभीर आलेख लिखा है,किस तरह से तालिबानी अफगानिस्तान में कला और कलाकारों को ध्वस्त कर रहे हैं। श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर हमला और अफगानिस्तान के इलाकों में कला को जमीन से उखाड़ने की रणनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों सभ्यता पर चोट है, एक सभ्यता के वर्तमान रूप पर दो दूसरा इसके विगत पर। लादेनवाद की धारा अफगानिस्तान से निकल कर पाकिस्तान पहुंच चुकी है और वहां की सरकार,

ब्लैक डाग थ्योरी और स्लम डाग मिलेनियर में समानता

क्या स्लम डाग मिलयेनेयर का इतिहास में स्थापित ब्लैक डाग थ्योरी से कोई संबंध है ? किसी फिल्म को आस्कर में नामांकित होने और अवार्ड पाने की थ्योरी क्या है? कंटेंट और मेकिंग के लेवल पर स्लम डाग मिलयेनेयर अंतरराष्ट्रीय फिल्म जगत में अपना झंडा गाड़ चुकी है, और इसके साथ ही भारतीय फिल्मों में वर्षों से अपना योगदान दे रहे क्रिएटिव फिल्ड के दो हस्तियों को भी अंतरराष्ट्रीय फिल्म पटल पर अहम स्थान मिला है। फिल्म की परिभाषा में यदि इसे कसा जाये तो तथाकथित बालीवुड (हालीवुड का पिच्छलग्गू नाम) से जुड़े लोगों को इससे फिल्म मेकिंग के स्तर पर बहुत कुछ सीखने की जरूरत है, जो वर्षों से हालीवुड के कंटेंट और स्टाईल को यहां पर रगड़ते आ रहे हैं। वैसे यह फिल्म इतिहास को दोहराते हुये नजर आ रही है, ब्लैक डाग थ्योरी और स्लम डाग मिलेनियर में कहीं न कहीं समानता दिखती है। क्या स्लम डाग मिलयेनेयर एक प्रोपगेंडा फिल्म है, फोर्टी नाइन्थ पैरलल (1941), वेन्ट दि डे वेल (1942), दि वे अहेड (1944), इन विच वि सर्व (1942) की तरह ? लंदन में बिग ब्रदर में शिल्पा सेठ्ठी को जेडी गुडी ने स्लम गर्ल कहा था। जिसे नस्लीय टिप्पणी का नाम द

अथातो जूता जिज्ञासा-22

पिछले दिनों भाई ज्ञानदत्त जी बहुत परेशान हुए कि भरतलाल ने जाने उनकी चटपटी कहां रख दी है. पता नहीं आप कभी ऐसी परेशानी से हलकान हुए या नहीं, पर इस बात से इतना तो तय हुआ कि अभी भी ऐसे लोग हैं जिन्हें चटपटी पहनने का शौक़ है. चूंकि हिन्दुस्तान में चटपटी पहनने के शौक़ीन लोग हैं, लिहाजा यहाँ चटपटी मिलती भी है, अब यह अलग बात है कि ज़रा मुश्किल से मिलती है. वैसे मेरा ख़याल है कि आपको यह जानकर ताज्जुब नहीं होगा कि भारत के अलावा कुछ ऐसे देश भी हैं जहाँ जहाँ चटपटी बड़ी मुश्किल से मिलती है, अलबत्ता यह जानकर ताज्जुब ज़रूर होगा कि अभी भी पश्चिम में कुछ ऐसे देश हैं जहाँ चटपटी मिलती है और कुछ ऐसे लोग भी हैं जो बड़े शौक़ से उसका इस्तेमाल भी करते हैं. जी हाँ, मैं उसी चटपटी की बात कर रहा हूँ जो खड़ाऊँ जी की छोटी बहन है. आधुनिक भाषा में परिभाषित करना हो तो यूँ समझें कि लकड़ी के सोल पर रबड़ की पट्टी वाली चप्पल. अंग्रेज लोग इसे यही कहते भी हैं और इसे पहनना बड़ी प्रतिष्ठा की बात मानते हैं. उनकी एक कहावत है : ही इज़ सच अ लायर यू कैन फील इट विद योर वुडेन शूज़. यहँ वुडेन शूज़ का मतलब कुछ और नहीं वही चटपटी है. असल में यह कहाव

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