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Showing posts from December, 2014

जामाता दशमो ग्रह:

इष्ट देव सांकृत्यायन सतयुग की बात है. एक महान देश में महालोकतंत्र था. उस महालोकतंत्र में एक महान लोकतांत्रिक संगठन था और ऐसा नहीं था कि संगठन का मुखिया हमेशा एक ही कुल के लोग रहे हों. कई बार रद्दोबदल भी हुई. थोड़े-थोड़े दिनों के लिए अन्य कुलों से भी मुखिया उधारित किए गए. यह अलग बात है कि वे बहुत दिन चल नहीं पाए , क्योंकि पार्टी के योग्य और सक्षम आस्थावानों ने कई प्रकार के गुप्तयोगदान कर मौका पाते ही उन्हें निकासद्वार दिखा दिया तथा महान लोकतांत्रिक परपंरा निभाते हुए पुन: मूलकुल से ही मुखिया चुन लिया. वैसे संगठन में उदात्त मूल्यों के निर्वहन का जीवंत प्रमाण यह भी है कि मुखिया अन्यकुल का होते हुए भी हाईकमान की हैसियत में हमेशा मूलकुल ही रहा. संगठन में एकता और मूल्यों के प्रति समर्पण के भाव का अनुमान आप इस बात से कर सकते हैं कि इसके सभी सदस्य अपने उदात्त मूल्यों का निर्वाह अपने पादांगुष्ठ से लेकर मेरुदंड और ब्रह्मरंध्र तक के मूल्य पर किया करते थे. कुछ भी हो जाए , वे मूलकुल और उसके उदात्त मूल्यों की रक्षा में सदैव तत्पर रहते थे. महाराज दशरथ ने जिस एक वचन की रक्षा के लिए अपने प्रा

ग़ायब होने का महत्व

इष्ट देव सांकृत्यायन परिवेदना के पंजीकरण और निवारण की तमाम व्यवस्थाएं बन जाने के बाद भी भारतीय रेल ने अपने परंपरागत गौरव को बरकरार रखा है। देर की सही तो क्या, कैसी भी सूचना देना वह आज तक मुनासिब नहीं समझती। जानती है कि हमसे चलने वाले ज़्यादातर लोग नौकरीपेशा हैं और वह भी तीसरे दर्जे के। इनके पास उपभोक्ता फोरम जाने तो क्या, चिट्ठी लिखने की भी फ़ुर्सत नहीं होती। ऊपर से शिकायत निवारण के हमारे विभिन्न तंत्रों ने इनकी पिछली पीढ़ियों को इतने अनुभव दिए हैं कि समझदार आदमी तो अगर फ़ुर्सत हो, तो भी यथास्थिति झेलते हुए मर जाना पसंद करे, पर शिकायत के लिए कोई दरवाज़ा न खटखटाए। ख़ासकर रेल के संबंध में। वैसे भी, हमारे पास दुनिया देखने का जो इकलौता मुनासिब साधन है वह रेल है, इसलिए अनुभव भी जितने हैं, सब रेल के ही दिए हुए हैं। तो जीवन का यह जो अनुभव मैं आपसे साझा करने जा रहा हूं, यह भी रेल का ही दिया हुआ है और पूरे होशो-हवास में बता रहा हूं कि मेरा अपना और मौलिक है। हुआ यह कि हम सफ़र में थे। सफ़र से एक और सफ़र पर निकलना था, लिहाज़ा ठहरने के लिए जो ठीया चुना वह रेलवे स्टेशन के निकट का था। पहली

चिंता से चतुराई घटे

इष्ट देव सांकृत्यायन भारत हमेशा से एक चिंतनप्रधान देश रहा है। आज भी है। चिंतन की एक उदात्त परंपरा यहाँ सहस्राब्दियों से चली आ रही है। हमारी परंपरा में ऋषि-मुनि सबसे महान माने जाते रहे हैं, इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण यही रहा है कि वे घर-बार सब छोड़ कर जंगल चले जाते रहे हैं और वहाँ किसी कोने-अँतरे में बैठकर केवल चिंतन करते रहे हैं। चिंतन से उनके समक्ष न केवल ‘इस’, बल्कि ‘उस’ लोक के भी सभी गूढ़तम रहस्य खुल जाते रहे हैं, जिसे वे समय-समय पर श्रद्धालुओं के समक्ष प्रकट करते रहे हैं। अकसर उनके चिंतन से बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान भी निकल आता रहा है। कालांतर में चिंतन से एक और चीज़ प्रकट हुई, जिसे चिंता कहा गया।  हालांकि यह चिंतन से अलग है, यह समझने में थोड़ा समय लगा। बाद में तो यहाँ तक पता चल गया कि यह चिंतन से बिलकुल अलग है, इतना कि चिंतन जितना फ़ायदेमंद है, चिंता उतनी ही नुकसानदेह। मतलब एक पूरब है तो दूसरी पश्चिम। इनमें एक पुल्लिंग और दूसरे के स्त्रीलिंग होने से इस भ्रम में भी न पड़ें कि ये एक-दूसरे के पूरक हैं। वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है। ये कुछ-कुछ वैसा ही मामला है, जैसे किसी

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