जामाता दशमो ग्रह:
इष्ट देव
सांकृत्यायन
सतयुग की बात है. एक महान देश में
महालोकतंत्र था. उस महालोकतंत्र में एक महान लोकतांत्रिक संगठन था और ऐसा नहीं था
कि संगठन का मुखिया हमेशा एक ही कुल के लोग रहे हों. कई बार रद्दोबदल भी हुई.
थोड़े-थोड़े दिनों के लिए अन्य कुलों से भी मुखिया उधारित किए गए. यह अलग बात है
कि वे बहुत दिन चल नहीं पाए,
क्योंकि
पार्टी के योग्य और सक्षम आस्थावानों ने कई प्रकार के गुप्तयोगदान कर मौका पाते ही
उन्हें निकासद्वार दिखा दिया तथा महान लोकतांत्रिक परपंरा निभाते हुए पुन: मूलकुल
से ही मुखिया चुन लिया. वैसे संगठन में उदात्त मूल्यों के निर्वहन का जीवंत प्रमाण
यह भी है कि मुखिया अन्यकुल का होते हुए भी हाईकमान की हैसियत में हमेशा मूलकुल ही
रहा.
संगठन में एकता और मूल्यों के प्रति
समर्पण के भाव का अनुमान आप इस बात से कर सकते हैं कि इसके सभी सदस्य अपने उदात्त
मूल्यों का निर्वाह अपने पादांगुष्ठ से लेकर मेरुदंड और ब्रह्मरंध्र तक के मूल्य
पर किया करते थे. कुछ भी हो जाए, वे मूलकुल और उसके उदात्त मूल्यों की रक्षा में सदैव तत्पर
रहते थे. महाराज दशरथ ने जिस एक वचन की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी
थी, इसके सदस्य
अपने मूलकुल की प्रसन्नता के लिए वैसे कई वचनों की बाजी लगाने को कोई महत्व ही नहीं
देते थे. जैसा कि गोस्वामी जी ने कहा है... जहाँ सुमति तहँ संपति नाना, ऐसे संगठन के
प्रभाव और उसकी समृद्धि के तो कहने ही क्या! यह संगठन के भीतर उदात्त मूल्यों के
निर्वाह का ही परिणाम था कि एक-दो बार देश की बागडोर उसके हाथ से अवश्य गई, पर जिन हाथों में
गई वे भी कभी मूलकुल के चरणों से ऊपर नहीं बढ़े.
इसी क्रम में सिंहासन पर बड़ा
परिवर्तन हुआ और फिर जिन हाथों में बागडोर गई, वे चरणों से थोड़ा आगे, यानी टखनों की ओर बढऩे लगे. ख़ैर, वे बढ़े ही थे कि
स्वयं उनका अपना ही घुटना बदल गया और संगठन फिर सिंहासन का स्वामी हो गया. यद्यपि
इस बार तप-त्याग का परिचय देते हुए वह सिंहासन पर स्वयं आरूढ़ न हुआ. उसने वहां
अपना अत्यंत विश्वस्त प्रतिनिधि बैठाया और स्वयं केवल हाईकमान बनकर संतुष्ट रहा.
जैसे ही उसने बागडोर संभाली चारों तरफ़ सुख-शांति की बाढ़ आ गई. खाद्य पदार्थों
सहित सभी वस्तुएं इतनी सस्ती हो गईं कि लोगों ने ख़रीदनी ही छोड़ दीं. सरकारी
कार्यालयों में सभी काम इतने शिष्टाचारपूर्वक होने लगे कि लोग ख़ुशी से पागल होने
लगे. मंत्रियों से लेकर अफ़सरों और बाबुओं तक को इतनी बड़ी-बड़ी राशियां चढ़ाने लगे
कि देश के बैंक छोटे पडऩे लगे.
मूलकुल के नेतृत्व में संगठन के
बढ़ते प्रताप को देख स्वर्ग के सम्राट का सिंहासन भी असंतुलित होने लगा. लेकिन, आलस्य के शिकार
स्वर्गसम्राट ने सोचा कि जनता इतनी तो समझदार है नहीं. हो सकता है, अगली बार इसे न
चुने. आश्चर्य, ऐसा हुआ
नहीं. जनता की समझदारी के साथ-साथ तकनीकी चमत्कारों ने भी कमाल किया और उसका
सिक्का फिर से जम गया. तब तो स्वर्गसम्राट की निद्रा ही उड़ायमान हो गई.
उन्होंने तुरंत देवगुरु से संपर्क
किया. देवगुरु ने एक श्लोक सुनाया -
सदा वक्र: सदा क्रूर: सदा
पूजामपेक्षते.
कन्याराशिस्थितो नित्यं जामाता दशमो
ग्रह:..
अर्थात्, हे वत्स प्रभु
स्वयं तो सीधे कुछ करते नहीं हैं. उन्हें जो कुछ भी करना होता है, उसके लिए वे
हमेशा ग्रहों को ही माध्यम बनाते हैं और उन्हीं के स्थानों में कुछ फ़ेरबदल कर अपना
इच्छित कार्य करवाते हैं. मुश्किल यह है कि पहले से मान्य नौ ग्रह तो अब इस कुल के
समक्ष आत्मसमर्पण कर चुके हैं. अतः तुम्हारा त्राण तो अब केवल दसवाँ ग्रह ही कर
सकता है. वही क्रूर ग्रह,
जो
हमेशा वक्री रहता है और पूजा की अपेक्षा करता है. सदैव कन्या राशि में ही स्थित
रहने वाले उस दसवें ग्रह को जामाता अर्थात् दामाद कहते हैं.
नोट : लेखक टाइममशीन पर यहीं तक देख
पाया था. इसके बाद बिजली चली गई. थोड़ी प्रतीक्षा करें, पता चलने पर हाल
बताया जाएगा.
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