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Showing posts from 2014

जामाता दशमो ग्रह:

इष्ट देव सांकृत्यायन सतयुग की बात है. एक महान देश में महालोकतंत्र था. उस महालोकतंत्र में एक महान लोकतांत्रिक संगठन था और ऐसा नहीं था कि संगठन का मुखिया हमेशा एक ही कुल के लोग रहे हों. कई बार रद्दोबदल भी हुई. थोड़े-थोड़े दिनों के लिए अन्य कुलों से भी मुखिया उधारित किए गए. यह अलग बात है कि वे बहुत दिन चल नहीं पाए , क्योंकि पार्टी के योग्य और सक्षम आस्थावानों ने कई प्रकार के गुप्तयोगदान कर मौका पाते ही उन्हें निकासद्वार दिखा दिया तथा महान लोकतांत्रिक परपंरा निभाते हुए पुन: मूलकुल से ही मुखिया चुन लिया. वैसे संगठन में उदात्त मूल्यों के निर्वहन का जीवंत प्रमाण यह भी है कि मुखिया अन्यकुल का होते हुए भी हाईकमान की हैसियत में हमेशा मूलकुल ही रहा. संगठन में एकता और मूल्यों के प्रति समर्पण के भाव का अनुमान आप इस बात से कर सकते हैं कि इसके सभी सदस्य अपने उदात्त मूल्यों का निर्वाह अपने पादांगुष्ठ से लेकर मेरुदंड और ब्रह्मरंध्र तक के मूल्य पर किया करते थे. कुछ भी हो जाए , वे मूलकुल और उसके उदात्त मूल्यों की रक्षा में सदैव तत्पर रहते थे. महाराज दशरथ ने जिस एक वचन की रक्षा के लिए अपने प्रा

ग़ायब होने का महत्व

इष्ट देव सांकृत्यायन परिवेदना के पंजीकरण और निवारण की तमाम व्यवस्थाएं बन जाने के बाद भी भारतीय रेल ने अपने परंपरागत गौरव को बरकरार रखा है। देर की सही तो क्या, कैसी भी सूचना देना वह आज तक मुनासिब नहीं समझती। जानती है कि हमसे चलने वाले ज़्यादातर लोग नौकरीपेशा हैं और वह भी तीसरे दर्जे के। इनके पास उपभोक्ता फोरम जाने तो क्या, चिट्ठी लिखने की भी फ़ुर्सत नहीं होती। ऊपर से शिकायत निवारण के हमारे विभिन्न तंत्रों ने इनकी पिछली पीढ़ियों को इतने अनुभव दिए हैं कि समझदार आदमी तो अगर फ़ुर्सत हो, तो भी यथास्थिति झेलते हुए मर जाना पसंद करे, पर शिकायत के लिए कोई दरवाज़ा न खटखटाए। ख़ासकर रेल के संबंध में। वैसे भी, हमारे पास दुनिया देखने का जो इकलौता मुनासिब साधन है वह रेल है, इसलिए अनुभव भी जितने हैं, सब रेल के ही दिए हुए हैं। तो जीवन का यह जो अनुभव मैं आपसे साझा करने जा रहा हूं, यह भी रेल का ही दिया हुआ है और पूरे होशो-हवास में बता रहा हूं कि मेरा अपना और मौलिक है। हुआ यह कि हम सफ़र में थे। सफ़र से एक और सफ़र पर निकलना था, लिहाज़ा ठहरने के लिए जो ठीया चुना वह रेलवे स्टेशन के निकट का था। पहली

चिंता से चतुराई घटे

इष्ट देव सांकृत्यायन भारत हमेशा से एक चिंतनप्रधान देश रहा है। आज भी है। चिंतन की एक उदात्त परंपरा यहाँ सहस्राब्दियों से चली आ रही है। हमारी परंपरा में ऋषि-मुनि सबसे महान माने जाते रहे हैं, इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण यही रहा है कि वे घर-बार सब छोड़ कर जंगल चले जाते रहे हैं और वहाँ किसी कोने-अँतरे में बैठकर केवल चिंतन करते रहे हैं। चिंतन से उनके समक्ष न केवल ‘इस’, बल्कि ‘उस’ लोक के भी सभी गूढ़तम रहस्य खुल जाते रहे हैं, जिसे वे समय-समय पर श्रद्धालुओं के समक्ष प्रकट करते रहे हैं। अकसर उनके चिंतन से बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान भी निकल आता रहा है। कालांतर में चिंतन से एक और चीज़ प्रकट हुई, जिसे चिंता कहा गया।  हालांकि यह चिंतन से अलग है, यह समझने में थोड़ा समय लगा। बाद में तो यहाँ तक पता चल गया कि यह चिंतन से बिलकुल अलग है, इतना कि चिंतन जितना फ़ायदेमंद है, चिंता उतनी ही नुकसानदेह। मतलब एक पूरब है तो दूसरी पश्चिम। इनमें एक पुल्लिंग और दूसरे के स्त्रीलिंग होने से इस भ्रम में भी न पड़ें कि ये एक-दूसरे के पूरक हैं। वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है। ये कुछ-कुछ वैसा ही मामला है, जैसे किसी

पत्रकार, गिरगिट और झाड़ू की सींक

घर से निकला ही था कि देखा, मेरी फटफटिया के सीट पर गिरगिट जी विराजमान हैं. मैंने पूछा - कौन हैं सर आप? यहां कैसे विराज रहे हैं? आप तो इसे शायद चला भी नहीं पाएंगे?  उन्होंने मेरे किसी भी सवाल का जवाब देने के बजाय उलटा सवाल ठेल दिया - जर्नलिस्ट हो क्या बे? एक साथ इत्ते सारे सवाल .... और पहचानते भी नहीं मुझे?  मैंने कहा - हूं तो, पर आपने जान कैसे लिया?  'बिना सोचे-समझे इत्ते सारे सवाल कोई जर्नलिस्ट ही कर सकता है', उनका जवाब था, 'गनीमत है कि तुम प्रिंट मीडिया वाले लगते हो.' मैं तो हैरान, 'आप तो महाज्ञानी हैं सर! ये भी आपने कैसे जान लिया...?' 'इसलिए कि तुम प्रासंगिक सवाल कर रहे हो. माइक-कैमरा वाले होते तो सवाल-जवाब दोनों के सिर-पैर से तुम्हारा कोई मतलब नहीं होता.' 'वाह! आप तो केवल अंतर्यामी ही नहीं, बुद्धिजीवी भी लगते हैं. ऐसी तार्किक सोच तो ज्ञानीजनों में भी दुर्लभ है.' मैंने स्तुति में नतमस्तक होते हुए अपनी शंका उनके समक्ष रखी, 'हे सर, अब तो अपना परिचय दें.'  ‘अरे मूर्ख, अब तक नहीं पहचाना मुझे? मैं वही हूं जिसे 49 सर ने अपने चुनाव चिन्ह के र

आक्थू !!!

इष्ट देव सांकृत्यायन  कहीं पान खाकर, तो कहीं गुटखा, कहीं तंबाकू खाकर और कहीं बिन कुछ खाए, ऐसे ही ... बेवजह... आक्थू! कहीं कूड़ा देखकर, तो कहीं गंदगी और कहीं बिन कुछ देखे ही, ऐसे ही मन कर गया..... लिहाज़ा .... आक्थू! चाहे रास्ता हो, या कूड़ेदान, स्कूल हो या तबेला, रेलवे या बस स्टेशन हो या फिर हवाई अड्डा, यहाँ तक कि चाहे बेडरूम हो या फिर तीर्थ ... जहां देखिए वहीं … आक्थू! हमारे लिए थूकदान कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे कहीं से ढोकर लाना या फिर किसी प्रकार का श्रम करना ज़रूरी हो। हम थूकने की क्रिया में असीम श्रद्धा और विश्वास के कारण जहां चाहते हैं वहीं और जिस चीज़ को चाहते हैं उसे ही अपनी सुविधानुसार थूकदान बना लेते हैं। शायद यही वजह है कि जिस तरह दूसरे देशों में हर मेज़ पर ऐश ट्रे यानी राखदान पाई जाती है, वैसे ही हमारे यहाँ कुछ सफ़ाईपसंद घरों में पीकदान या थूकदान पाया जाता है। यह अलग बात है कि वहाँ भी थूकदान का इस्तेमाल थूकदान की तरह कम ही होता है। यहाँ तक कि ख़ुद वे लोग भी, जो घर में सफ़ाई के मद्देनज़र थूकदान रखते हैं, बाहर निकलने पर सफ़ाई का ध्यान रखना ग़ैर ज़रूरी ही नहीं, लगभग

अजंता: जहां पत्थरों में अध्यात्म है

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-हरिशंकर राढ़ी बस में अजंता की ओर  :  छाया - हरिशंकर राढ़ी  एलोरा तो देख आए किंतु अजंता का आकर्षण  एलोरा से भी बड़ा था। कारण जो भी रहा हो, चाहे वह अजंता - एलोरा के युग्म में पहले आता है, इसलिए या फिर अब तक की पढ़ाई लिखाई और इंटरनेट से एकत्र की गई जानकारी के कारण। जलगांव में रात अच्छी गुजरी थी और नींद तो खूब आई ही थी। सुबह की चाय के बाद नाश्ता  और दो बार चाय लेने के बाद मन में उत्साह थोड़ा और बढ़ गया। लगभग दस बजे हम जलगांव से अजंता की गुफाओं के लिए कूच कर गए। बैग - सैग गाड़ी में ही जमा लिया क्योंकि वापसी हमें भुसावल से करनी थी। जलगांव से अजंता गुफाओं की दूरी 62 किलोमीटर है और भारतीय राजमार्ग की परंपरा के अनुसार तेज चलने पर भी लगभग डेढ़ घंटा लग ही जाता है। हम लोग तो वैसे भी तसल्ली से चलने रास्ते का आनंद लेने वाले पथिक हैं, सो डेढ़ घंटे से कुछ                                                                                             ज्यादा ही समय खर्च कर अजंता गुफाओं तक पहुंच                                                                                         गए। विश्व धरो

एलोरा: जहां पत्थर बोलते हैं

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-हरिशंकर राढ़ी  गुफा पर नक्काशी                             छाया : हरिशंकर राढ़ी  घृष्णेश्वर  के बाद हमारे आकर्षण  का केंद्र एलोरा की गुफाएं थीं। अजंता - एलोरा की गुफाएं एक तिलिस्म के रूप में मन में किशोरावस्था से ही स्थापित थीं। उनके  विषय  में छठी से आठवीं कक्षा के दौरान हिंदी की पाठ्यपुस्तक में पढ़ा था। तब पाठ्यक्रम में बड़ी उपयोगी बातें शामिल  की जाती थीं और पाठ्यक्रम का संशोधन  कम होता था। भारत और दुनिया के तमाम पर्यटन एवं धर्मस्थलों की जानकारी दी गई होती। बच्चे इसमें रुचि दिखाते थे। शायद  अतिबुद्धिजीवी लोगों की पैठ पाठ्यक्रम में नहीं रही होगी और मनोविज्ञान तथा आधुनिकता के नाम पर उबासी लाने वाली विषयवस्तु कम से कम छात्रों को ढरकी (बांस की एक छोटी नलकी जिससे पशुओं को बलपूर्वक दवा पिलाई जाती है, पूर्वी उत्तर प्रदेश  में इसे ढरकी कहा जाता है।) के रूप में नहीं दी जाती थी। कंबोडिया के अंकोरवाट तक के  मंदिरों का यात्रावृत्त उस समय के छात्र ऐसी ही पुस्तकों में पढ़ते थे। उसी समय मेरे किशोर  मन में देश -दुनिया घूमने - देखने की अभिलाषा  पैदा हुई थी जो अब कार्यरूप में परिणित हो रही

श्रीशैलम : बांध लेता है यह छंद मुक्त-2

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इष्ट देव सांकृत्यायन  यहां देखें :   इस लेख का पहला भाग मंदिर से बाहर निकले तो धूप बहुत चटख हो चुकी थी। जनवरी के महीने में भी हाफ शर्ट पहन कर चलना मुश्किल हो रहा था। फुल मस्ती के मूड में बच्चे न जाने किसे शो ऑफ करने में लगे थे। उधर साथ की देवियां ख़ रीदारी के मूड में थीं और मंदिर के चारों तर फ़ फैले बाज़ार की एक-एक दुकान पर सामान देखने व मोलभाव का मौ क़ा हाथ से निकलने नहीं देना चाहती थीं। भला हो बच्चों का , जिन्हें एक तो डैम देखने की जल्दी थी और दूसरे भूख भी लगी थी। इसलिए बाज़ार हमने एक घंटे में पार कर लिया। बाहर गेस्ट हाउस के पास ही आकर एक होटल में दक्षिण भारतीय भोजन किया। श्रीशैलम की मनोरम पहाड़ियां  बच्चे डैम देखने के लिए इतने उतावले थे कि भोजन के लिए अल्पविश्राम की अर्जी भी नामंजूर हो गई और हमें तुरंत टैक्सी करके श्रीशैलम बांध देखने के लिए निकलना पड़ा। श्रीशैलम में एक अच्छी बात यह भी थी कि यहां तिरुपति की तरह भाषा की समस्या नहीं थी। वैसे यहां मुख्य भाषा तेलुगु ही है , लेकिन हिंदीभाषियों के लिए कोई असुविधा जैसी स्थिति नहीं है। हिंदी फिल्मों के गाने यहां ख़ू ब च

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