हाय हम क्यों ऩा बिक़े-2
(दूसरी किश्त) हरिशंकर राढ़ी ''हो सकता है कि आपकी बात ठीक हो, पर ऐसा पहले नहीं था। आजकल पतन थोड़ा ज्यादा ही हो गया है। आज तो लोग-बाग खामखाह ही बिके जा रहे हैं।'' बोधनदास जी कुछ व्यंग्य पर उतर आए। मुझे लक्ष्य करके बोले, ''सरजी, किस जमाने की बात कर रहे हो ? कहाँ से शुरू करूँ ? किस युग का नाम पहले लूँ ? सतयुग ठीक रहेगा क्या ? आपको मालूम है कि सबसे बड़ा और सबसे पहले बिकने वाला आदमी कौन था? उसे खरीदा किसने था ?'' अब मैं चुप ! बिलकुल चुप ! ऐसा नहीं था कि मुझे कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था; मैं अपने आपको फंसता हुआ महसूस कर रहा था। मैंने नकारात्मक शैली में सिर हिलाया। ''भाई मेरे, मनुष्यों की बिक्री सतयुग से ही शुरू है। आप उससे अच्छे जमाने की कल्पना तो कर ही नहीं सकते ! आपको याद है कि सतयुग में अयोध्या के परम प्रतापी राजा हरिश्चंद्र बिके थे ? बिके क्या नीलाम ही हुए थे। हुए थे या नहीं ?'' इस बार तो जैसे मैं उछल ही पड़ा । मुझमें जान आ गई। मुझे लगा कि अब प्वाइंट मिल गया है जिसपर मैं इन्हें लथेड सकता हूँ। मैं उच्च स्वर में बोला, ''क्