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Showing posts from August, 2012

हाय हम क्यों ऩा बिक़े-2

(दूसरी किश्त) हरिशंकर राढ़ी  ''हो सकता है कि आपकी बात ठीक हो, पर ऐसा पहले नहीं था। आजकल पतन थोड़ा ज्यादा ही हो गया है। आज तो लोग-बाग खामखाह ही बिके जा रहे हैं।'' बोधनदास जी कुछ व्यंग्य पर उतर आए। मुझे लक्ष्य करके बोले, ''सरजी, किस जमाने की बात कर रहे हो ? कहाँ से शुरू  करूँ ? किस युग का नाम पहले लूँ ? सतयुग ठीक रहेगा क्या ? आपको मालूम है कि सबसे बड़ा  और सबसे पहले बिकने वाला आदमी कौन था? उसे खरीदा किसने था ?'' अब मैं चुप ! बिलकुल चुप ! ऐसा नहीं था कि मुझे कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था; मैं अपने आपको फंसता हुआ महसूस कर रहा था। मैंने नकारात्मक शैली  में सिर हिलाया।  ''भाई मेरे, मनुष्यों  की बिक्री सतयुग से ही शुरू  है। आप उससे अच्छे जमाने की कल्पना तो कर ही नहीं सकते ! आपको याद है कि सतयुग में अयोध्या के परम प्रतापी राजा हरिश्चंद्र  बिके थे ? बिके क्या नीलाम ही हुए थे। हुए थे या नहीं ?'' इस बार तो जैसे मैं उछल ही पड़ा  । मुझमें जान आ गई। मुझे लगा कि अब प्वाइंट मिल गया है जिसपर मैं इन्हें लथेड  सकता हूँ। मैं उच्च स्वर में बोला, ''क्

हाय, हम क्यों न बिके?

हरिशंकर  राढ़ी मैं शाम  की चाय का सुख लेने ही जा रहा था कि बोधनदास पधार गए। वे मेरे अज़ीज़  और अजीब पडोसी  हैं और अक्सर पधारते ही रहते हैं। आप एक सरकारी महकमे से सेवानिवृत्त हो चुके हैं, इसलिए दुनिया का सर्वोत्तम व्यावहारिक ज्ञान रखते हैं। ऐसे समय पर आते हैं कि चाय भी मिल जाए और समय भी कट जाए। इसके बदले वे अपना उपदेश  रूपी ट्यूशन पढ़ा  जाते हैं, ऐसा माना जा सकता है। मेरा भभका हुआ किन्तु निराश  सा चेहरा देखकर वे अपने कर्तव्यपथ पर आ डटे। शायद उन्हें एहसास हो गया कि कोई जोर का झटका लगा है।  बोधनदास जी बिना किसी औपचारिकता के सामने वाली कुर्सी को सुविधानुसार व्यवस्थित करके जम गए। छूटते ही बोले,'' भाई क्या बात है? बेवक्त ही चेहरे पर बारह क्यों बज रहे हैं ? क्या हो गया ? घर में सब ठीक तो है ?'' मन में आया कि कह दूँ कि आप जैसे लोगों ने ही तो देश  का बेडा गर्क कर रखा है ! 'घर' से बाहर न निकलने की तो जैसे कसम ही खा ली है। सारा जीवन अपने और अपने घर के बारे में ही तो सोचते रहे। घर के बाहर तो मानो कोई दुनिया ही नहीं। फिर भी मैं प्रतिक्रियाशून्य  रहा। मेरी भाव शून्य  

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