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  समकालीन अभिव्यक्ति : रामदरश मिश्र एकाग्र का लोकार्पण Hari Shanker Rarhi साहित्य मनीषी प्रो. रामदरश मिश्र को पढ़ना, उनसे मिलना और उन पर कुछ लिखना तीनों ही आनंद के स्रोत हैं। ‘समकालीन अभिव्यक्ति’ के तत्त्वावधान में उन पर निकले एकाग्र अंक के पुस्तकाकार रूप का लोकार्पण दिनांक 4 जून, 2023 को मिश्र जी के निवास वाणी विहार पर उन्हीं के हाथों हुआ। अपनी जन्म शताब्दी पूरी करने की देहरी पर खड़े वरिष्ठतम साहित्कार प्रो. रामदरश मिश्र जी के हाथों उन्हीं पर संपादित पुस्तक का लोकार्पण हमारे लिए बड़े सौभाग्य की बात है। श्री उपेंद्र कुमार मिश्र एवं मेरे द्वारा संपादित पुस्तक को हंस प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इसी के साथ प्रो. रामदरश मिश्र पर डॉ. पांडेय शशिभूषण ‘शीतांशु’ द्वारा लिखित आलोचनात्मक पुस्तक ‘रामदरश मिश्र: एक वसंत दिग दिगंत’ का भी लोकार्पण हुआ। अत्यंत आत्मीय-से लोकार्पण समारोह में वरिष्ठ कवि-आलोचक डॉ. ओम निश्चल जी, दिल्ली विश्वविद्यालय में अंगरेजी के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. वेदमित्र शुक्ल जी, प्रो. मिश्र जी की सुपुत्री और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डॉ. स्मिता मिश्र जी एवं हंस प्रकाशन के स्व
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  यात्रा संस्मरण एक दिन अलवर तक -हरिशं कर राढ़ी हरिशंकर राढ़ी :  सिलसेढ़ लेक पर  ऐसा नहीं है कि यात्रा हुए कोई लंबा अरसा बीत गया था, लेकिन मुझे लग रहा था। अभी पिछले महीने ही वैष्णो देवी की यात्रा से आया था। इधर अप्रैल में छुट्टियाँ दिख रही थीं और उसका उपयोग कर आने का मन था। बेटी के पास समय बिल्कुल नहीं होता, इसलिए पूरे परिवार का एक साथ निकलना मुश्किल था। छुट्टी दिखी तो योजना बनी कि ऋषिकेश हो आते हैं। बेटी का हिसाब नहीं बना। तो चलिए एक दिन के लिए कहीं चलते हैं। कहाँ चलें? कुरुक्षेत्र हो आते हैं। लेकिन कुरुक्षेत्र मैं दो बार घूम चुका हूँ। मथुरा-वृंदावन जाने का न तो मन होता है और न कुछ देखने के लिए खास है। अंततः बेटी ने कहा कि अलवर चलते हैं। अपने को तो बस कहीं निकल जाने से भी संतोष हो जाता है, इसलिए ठीक है। हमारी यात्राएँ प्रायः रेलगाड़ी से होती हैं। कभी-कभी चौपहिया से भी हुई हैं। इधर पिछले साल से अपने पास भी एक गाड़ी हो गई, लेकिन उस गाड़ी से हम दिल्ली से बाहर यात्रा पर एक ही बार मथुरा तक के लिए निकल पाए थे। वह यात्रा बहुत संतोषप्रद नहीं थी। अलवर की बात आते ही सरिस्का अभयारण्य दिमाग में घूमता ह
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  आलेख               गोस्वामी बिंदु जी की संगीतमय भक्ति     - हरिशंकर राढ़ी Hari Shanker Rarhi  इसे हिंदी साहित्य एवं संगीत का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि भक्तिकाल के बाद आए भक्तिकाव्य को साहित्य में स्थान नहीं दिया गया। कुछ तो सामयिक आवश्यकताओं के अनुसार वैचारिक बदलाव , कुछ नई विचारधारा का आगमन तो कुछ भक्ति साहित्य को पिछड़ा एवं अंधविश्वास मानने वाली पाश्चात्य सोच। माना कि उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी की परिस्थितियाँ कुछ और थीं , विदेशी सत्ता , भूख , अत्याचार और अंधविश्वासों से छुटकारा पाने की जिद थी और उसी के अनुसार भक्ति से इतर साहित्य की आवश्यकता थी , फिर भी यदि कुछ अलग और स्तरीय लिखा जा रहा था तो उसे उपेक्षित भी नहीं किया जाना चाहिए था। हम कितने भी आगे बढ़ जाएँ , कितने भी वैज्ञानिक सोच के हो जाएँ , लेकिन हम कबीर , रैदास , सूरदास , तुलसीदास , मीराबाई और रसखान को तो उपेक्षित नहीं कर सकते। बीच में इस परंपरा में अच्छे-बुरे सब आए होंगे , किंतु एक बार हम गोस्वामी बिंदु जी का भक्ति साहित्य , उसका भाव एवं संगीत देख लेते तो उन्हें इसी परंपरा में बैठाते , भले ही उनकी उत्पादकता उपरोक्त संत क
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  समीक्षा अन्वेषक : सत्य के अन्वेषण को प्रस्तुत करता नाटक -हरिशंकर राढ़ी नाटक और काव्य साहित्य की प्राचीनतम विधाएँ हैं, विशेषकर समस्त क्लासिकल भाषाओं में इनका साहित्यशास्त्र एवं विश्वप्रसिद्ध कृतियाँ प्रचुर मात्रा में मिलती हैं। जहाँ पाश्चात्य जगत में अरस्तू जैसे विद्वान ने अपनी कृति ‘द पोयटिक्स‘ में नाटकों एवं महाकाव्यों के मानक निर्धारित किए हैं, वहीं संस्कृत में अनेक साहित्य शास्त्रियों ने नाटकों पर विस्तृत चर्चा की है। संस्कृत में तो यहाँ तक कहा गया है कि काव्येषु नाटकं रम्यम्। नाटकों को सर्वोपरि इसलिए रखा गया है क्योंकि Hari Shanker Rarhi यह दृश्य-श्रव्य विधा है और दृश्य विधा का प्रभाव सर्वोपरि होता है। विभिन्न आकार-प्रकार एवं विषयवस्तु के नाटकों का लेखन मानवीय सभ्यता के समय से ही चला आ रहा है। हिंदी में भी नाटकों की परंपरा समृद्ध होती रही है, हालाँकि टीवी और फिल्मों के आने के बाद इनके स्वरूप, प्रकार, माँग एवं दर्शकवर्ग में व्यापक परिवर्तन आया है। वर्तमान में हिंदी साहित्य में अच्छे नाटककार
  युद्ध युद्ध में उतरने की कुछ शर्तें हैं दिमाग की नसों में बारुद भरना ऐसे गीत और नारों को गढ़ना जो लहू के आवेग में आतिश पैदा कर दे श्रेष्ठता की भट्टी में नस्लों को तपाना और दुश्मन के खिलाफ दिल को जहरआलुदा करना इसके बाद जरुरत होती है विज्ञान के फन पर बैठे हुये घातक हथियारों की दांत और नाखून से तो जानवर लड़ते है आदम के औलाद नहीं उन्हें तो चाहिए नस्लकसी करने वाले हथियार हवाओं और पानी में जहर पैदा करने वाले हथियार युद्ध सांचे में ढली हुई कोई चीज नहीं है और न ही किसी कमसिन दुल्हन के सुर्ख होठों पर दौड़ती हया की लकीर यह दावानल है धरती को पलक झपकते राख करने की सलाहियत से भरपूर युद्ध समाजवाद है बच्चों , बुढ़ों , औरतों और जवान में फर्क नहीं करता युद्ध फासीवाद और नाजीवाद  है रक्त श्रेष्ठता पर सवार होकर मदमस्त हाथी की तरह चिंघाड़ता है युद्ध लोकतंत्र है अल्पमत पर बहुमत के डंडे की तरह

विद्रूप सच्चाई का सुंदर ‘स्वाँग’

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हरिशंकर राढ़ी समीक्षा                         - हिंदी साहित्य में विडंबनाओं की बात की जाए तो संभवतः सबसे ऊपर के क्रम में व्यंग्य विधा या व्यंग्य प्राचुर्य की रचनाओं का उत्थान-पतन आएगा। पतन के मामले में कविता एवं लघुकथा का स्थान व्यंग्य के आसपास ही ठहरता है। वैसे , कविताओं की स्थिति पर बात न ही की जाए तो अच्छा , क्योंकि छंदमुक्त कविताओं ने सामान्य पाठक तक अपनी पहुँच कभी बनाई ही नहीं थी। किंतु व्यंग्य के मामले में स्थिति सुखद थी। लगभग आधी सदी की यात्रा में व्यंग्य ने अपना एक विशाल पाठकवर्ग बनाया , प्रशंसक बनाये , अखबारों-पत्रिकाओं में स्थायी स्तंभ बनाये तथा आलोचकों-समीक्षकों के चाहने न चाहने के बावजूद एक विधा के रूप में स्थापित हो गया। उसकी इसी लोकप्रियता को देखते हुए तमाम तरह के लेखक अपना हाथ व्यंग्य के क्षेत्र में आजमाने लगे। परिणाम यह हुआ कि सुव्यंग्य कम , कुव्यंग्य ज्यादा पैदा होने लगा। अब तो स्थिति यह आ गई है कि विमर्श इस बात पर होने लगा है कि बुरे व्यंग्य या अव्यंग्य से व्यंग्य साहित्य को कैसे बचाया जाए ? ‘ राग दरबारी ’ के बाद व्यंग्य आधारित उपन्यासों न लंबी यात्रा की है। कभ

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