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Showing posts from February, 2014

ग़ज़ल

इष्ट देव सांकृत्यायन तुम्हारे इल्म की हाकिम कोई तो थाह हो    कोई एक तो बताओ, यह कि वह राह हो    जेब देखते हैं सब स्याह हो कि हो सफ़ेद          कौन पूछता है अब चोर हो या साह हो     अंगूर क्या मकोय तक हो गए खट्टे यहां   सोच में है कलुआ अब किस तरह निबाह हो दर्द सिर्फ़ रिस रहा हो जिसके रोम-रोम से   उस थके मजूर को क्या किसी की चाह हो   दिखो कुछ, कहो कुछ, सुनो कुछ, करो और कुछ तुम्हीं बताओ तुमसे किस तरह सलाह हो   की नहीं बारिशों से कभी मोहलत की गुज़ारिश निकले तो बस निकल पड़े भले पूस माह हो मत बनो सुकरात कि सिर कलम हो जाएगा अदा से फ़ालतू बातें करो, वाह-वाह हो.    
           गज़ल                               - हरिशंकर  राढ़ी गाँव में मेरी माँ रहती है गंगा-सी निर्मल बहती है। बेटा बहुत संभलकर रहना आज तलक हरदिन कहती है। भूखे पेट न सो जाऊँ मैं उसके मन चिंता पलती है। मन तुलसी, वाणी कबीर सी सूरदास का रस भरती है। सुबह - दोपहर - शाम सरीखी मधुर चाँदनी-सी ढलती है। उन सिक्कों को देख रहा हूँ जिनसे सबकी माँ छिनती है। रोऊँ भी तो कैसे राढ़ी रोने कब माँ दे सकती है। (माँ की चौथी  पुण्यतिथि पर, 04 फरवरी , 2014 )                     

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