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Showing posts from July, 2018

आख़िर कब तक और क्यों ढोएँ हम?

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हमारी अपनी ही आबादी 134 करोड़ पार कर चुकी है. यह रुकने का नाम नहीं ले रही है. घटने की तो बात ही बेमानी है. यह बढ़ती आबादी हमारे लिए एक बड़ी मुसीबत है. वे लोग जो आबादी को ह्यूमन रिसोर्स और इस नाते से लायबिलिटी के बजाय असेट मानने की दृष्टि अपनाने की बात करते हैं , जब इस ह्यूमन रिसोर्स के यूटिलाइज़ेशन की बात आती है तो केवल कुछ सिद्धांत बघारने के अलावा कुछ और कर नहीं पाते. दुनिया जानती है कि ये सिद्धांत कागद की लेखी के अलावा कुछ और हैं नहीं और कागद के लेखी से कुछ होने वाला नहीं है. ये कागद की लेखी वैसे ही है जैसे किसी भी सरकार के आँकड़े. जिनका ज़मीनी हक़ीक़त से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता. आँखिन की देखी के पैमान पर इन्हें कसा जाए तो ये प्रायः झूठ और उलझनों के पुलिंदे साबित होते हैं. इस बढ़ती आबादी से पैदा होने वाली उलझनों की हक़ीक़त ये है कि देश में बहुत बड़ी आबादी या तो बेरोज़गारी की शिकार है या फिर अपनी काबिलीयत से कमतर मज़दूरी पर कमतर रोज़गार के लिए मजबूर. इस आबादी में हम और आबादी जोड़ते जा रहे हैं. नए-नए शरणार्थियों का आयात कर रहे हैं. दुनिया भर के टुच्चे नियम-क़ानून और बेसिर-पैर

कश्मीर की आवाज़

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जिस कश्मीर को आप केवल आतंकवादियों की सहायता में पत्थरबाजी के लिए जानते हैं , वहाँ ऐसे लोग भी हैं जो आतंकवादियों के छक्के छुड़ाने का हौसला रखते हैं. बल्कि ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है. और ये वही लोग हैं जो ख़ुद भारतीय मानते हैं और जमू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग. हुआ बस यह था कि इनकी आवाज़ दबा दी गई थी. यह दबाने का काम किसी और ने नहीं , शेख़ अब्दुल्ला के शासन ने किया था. ख़ुद नेहरूजी ने महसूस किया अब्दुल्ला का साथ देकर उन्होंने ग़लती कर दी. लेकिन जब उन्होंने महसूस किया तब तक पानी सिर से गुज़र चुका था. अगस्त 1953 में जब उसकी पहली गिरफ़्तारी की गई तब तक वह अपने गुर्गे पूरे कश्मीर में फैला चुका था और उन्हें अपना शासन रहते बहुत मजबूत कर चुका था. इसके पहले वह विलय के पक्ष में आंदोलन करने वाले तमाम हिंदुओं और मुसलमानों पर बेइंतहां जुल्म ढा चुका था. जेल में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जान ले चुका था. कई और लोगों की जान जेल से बाहर ले चुका था. लिहाजा उसका और उसके गुर्गों का ख़ौफ़ लोगों पर क़ायम रहा. पाकिस्तान से भेजे गए गुर्गों को भी वह जगह-जगह स्थापित कर चुका था. इनसे मिलकर उसके

आपकी भूख का फुटबॉल

जिन राजनेताओं को लेकर आप बहुत गंभीर होते हैं , अपने दोस्तों-परिजनों से लेकर अजनबियों तक से भिड़ जाते हैं ; कभी ग़ौर किया है कि वे आपको लेकर कितने गंभीर हैं ? नहीं किया है तो अबसे करें. जब आप भूख से मरते हैं तो वे आपके मरने को मुद्दा बनाते हैं. और मुद्दा वे उसी चीज़ को बनाते हैं , जिसे भुना सकें. भुना सकें , यानी जिससे ख़ुद फ़ायदा उठा सकें. फ़ायदा उठा सकें यानी व्यापार कर सकें. तो वे आपके भूख से मरने का भी व्यापार करते हैं. और इस व्यापार में वे आपकी भूख को फुटबॉल बना लेते हैं. यानी एक आपकी भूख को लात मार कर दूसरे के पाले में फेंकता है. और फिर दूसरा भी उसके साथ यही सलूक करता है. सब यही कहते हैं -- नहीं नहीं , मेरे नहीं , उसके चलते हुई है तेरी मौत. तेरी भूख की वजह मैं नहीं बे , वो है. पूरी ईमानदारी से सभी यही करते हैं. वो भी जो आप पर रोज़ किरपा की बारिश करते रहते हैं. इतनी बारिश कि जितनी कोई बाबा भी न कर सके. और वो भी जो आपको दुनिया भर के पाठ पढ़ाते हैं. कोशिश सबकी यही है कि आप कभी इस लायक होने ही न पाएँ कि उनकी किरपा से बाहर निकल जाएँ. उनके होने का तो सारा मज़ा ही बस तभी त

sms आएगा, आएगा, आएगा....

भारत का   आयकर विभाग   बार-बार आपको रिमाइंडर पर रिमाइंडर भेजे जा रहा होगा कि जी आप जल्दी से अपना रिटर्न जमा कराएँ. 31 तारीख के पहले-पहले डाल दें. ताकि आपका बाकी जीवन सुखी रहे. Income Tax Department, Government Of India बार-बार यह भी कहता है कि जी अब तो सब online हो गया है. आप सोचते हैं , चलो कम से कम कई-कई घंटे लाइन में लगने से फ़ुर्सत मिली. लेकिन जब आप Online अपना रिटर्न जमा करने जाते हैं तो...... पहले तो आप इंटरनेट की स्पीड झेलते हैं. जो यूट्यूब और फेसबुक चलाते समय चलती नहीं दौड़ती है , वही सरकारी साइट पर पहुँचते ही नाकों चने चबवानी लगती है. दौड़ना-चलना तो छोड़िए जी , घिसटती भी बड़ी मुश्किल से है. ख़ैर , जैसे-तैसे राम-राम करके आपने बाक़ी डिटेल भर दिए , ' सरल ' नामधारी कठिन बवाल झेल लिया , आख़िरकार जमा करवा ही दिया तो फिर एक बवाल आएगा. इस बवाल को कहते हैं भेरीफाई ( verify) करना. इस भेरीफैयाने के लिए बताया यह जाता है कि आयकर विभाग आपको आपके रजिस्टर्ड मोबाइल नंबर पर एक sms भेजता है. यह ख़ाली बताया ही नहीं जाता , वह वाक़ई भेजता है. और यह वह केवल आपके मोबाइल नंबर

राहुल गांधी के जूते में आपके पैर

राहुल गांधी के मन में नरेंद्र मोदी के प्रति कितना प्यार है , यह किसी से छिपा नहीं है. वैसे तो संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर भाषण देते समय राहुलजी की आवाज़ और उनके हाव-भाव से ही सब कुछ जाहिर हो रहा था , लेकिन नई पीढ़ी भी अभी 2002 से लेकर अब तक ख़ुद राहुलजी , उनकी माताजी और उनके भिन्न-भिन्न पार्टीजनों की ओर से नरेंद्र मोदी को दिए गए विशेषण अभी भूली नहीं है. कांग्रेसजनों की ओर से मोदी को दिया गया प्रत्येक विशेषण यह बताने के लिए काफ़ी है कि राहुलजी या कोई भी कांग्रेसजन नरेंद्र मोदी से कितना प्यार करता है. इस देश की जनता ने इस बात को हँसकर उड़ा दिया. मैं नहीं समझ पा रहा कि इसे बेबुनियाद और अगंभीर बातों को ऐसे ही हँसकर उड़ा देने की उसकी कला माना जाए , या फिर तथ्यों से ठीक उलट बातों के प्रति उसकी सहिष्णुता का बेजोड़ नमूना. ख़ैर , मैं बात तथ्यों पर नहीं करने जा रहा हूँ. मैं बात तेदेपा की ओर से लाए गए और देश की कई प्रमुख पार्टियों की ओर से समर्थित लेकिन बेतरह धड़ाम हो गए अविश्वास प्रस्ताव और उसके औचित्य पर भी नहीं करने जा रहा. ना , मैं उस घिसी-पिटी स्क्रिप्ट की तो कोई बात ही नहीं कर सकता. क्

भीड़ का न्याय, न्याय का तंत्र

मीलॉर्ड , योर ऑनर , हुजूर , माई-बाप , श्रीमान महोदय कहाँ आप और कहाँ मैं. मेरी क्या औकात कि मैं आपके सामने कुछ कहूँ. कहना तो छोड़िए , आपसे कुछ पूछना भी मेरे बस की बात नहीं. आपसे तो वो भी नहीं पूछ सकते जो सबसे पूछते हैं. सुनते हैं कि वो जनता के प्रतिनिधि हैं और वो जनता के प्रति जवाबदेह हैं. लेकिन जनता को उन्हें कोई जवाब देते मैंने कभी देखा नहीं. बेचारी जनता , उसके पास सवाल ही उठाने की औकात नहीं है , जवाब वो दें भी तो कहाँ से! वो तो बस उनके वादे सुन लेती है और फिर पाँच साल बाद उनमें से जिन किन्हीं के भी जैसे भी पूरे होने का वो जो भी जवाब अपने-आप ही दे दें वही उसे मान लेना होता है. अब यह जवाब चाहे उसकी जान-माल के सुरक्षा के वादे का हो , चाहे सम्मान का , या फिर रोज़गार या आर्थिक विकास का , महँगाई या भ्रष्टाचार का.. उस बेचारी के पास सुनने के अलावा कोई चारा नहीं होता. सत्तर साल पहले जब लोकतंत्र का पहले-पहल हल्ला मचा था तब ज़रूर लोगों को यह भ्रम रहा होगा कि वो सरकार बनाएंगे , पर अब वो समझ गए हैं कि वो सरकार नहीं बनाते , सरकार उन्हें बनाती है. चूँकि हर पाँच साल बाद सरकारजी को यह लीला दि

इन दरिंदों के रहते...

चेन्नै में कुल 18 दरिंदे 11 साल की एक बच्ची का सात माह तक यौन शोषण करते रहे. अभी यह बात आरोप के स्तर पर है. जाँच चल रही है , लेकिन अभी आरंभिक स्तर पर है. बात की किसी तरह पुष्टि नहीं हो पाई है. इसकी ख़बरें प्रायः सभी अख़बारों में हैं , लेकिन मेडिकल परीक्षण की बात कहीं नहीं है. जाहिर है , उसकी रिपोर्ट का अभी इंतज़ार होगा. आक्रोश से भरा मन भी कहता है कि काश यह सच न हो. लेकिन अगर हुआ तो ? और ज़्यादा आशंका इसी बात की है कि आरोप सच होगा. कोई क्यों ऐसे आरोप लगाएगा ?   आरोपियों में सब उसी अपार्टमेंट के लिफ्ट ऑपरेटर , सिक्योरिटी गार्ड , वॉटर सप्लायर आदि थे. मान लीजिए अगर ये भीड़ के हत्थे चढ़ जाते तो ? किसी हद तक हो सकता है कि आरोप ग़लत ही हो. फिर भी कल्पना करिए अगर ये भीड़ के हत्थे चढ़ जाते तो क्या होता ? कुछ लोग रेप और मॉब लिंचिंग जैसी जघन्य घटनाओं को भी जाति-धर्म के नज़रिये से ही देखते हैं. किसी जाति या संप्रदाय विशेष का व्यक्ति किसी दुर्घटना का शिकार हुआ तो उनकी संवेदना की बाँछें खिल जाती हैं. उन्हें उसमें अपने आकाओं का वोट बैंक जो दिखने लगता है. लेकिन अगर उसके विपरीत हुआ , यानी उसी जाति

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