ऋषियों-सूफियों की साझी विरासत
दिल्ली को तो मैं शहर मानता ही नहीं। मेरी नजर में यह एक बहुत बड़ा बाजार है और बाजार को घेरे हुए कारखाने हैं। यहाँ अगर बीच-बीच में स्थानीय लोगों के पुराने गाँव और उनकी मूल आबादी न बची होती तो मुझे लगता है कि इंसान दिखाई भी नहीं देते। दोपायों के नाम पर जो होते वो या तो बाजार के व्यापारी और खरीदार होते या फिर कारखानों के पुर्जे। ये सिर्फ इस इलाके के ओरिजनल गाँव हैं जिनके होने से यहाँ ज़िंदगी की धड़कन चल रही है। वरना राजनीति और उनसे जुड़े विद्यापीठों की साजिशें और कारखाने-बाजार की यूज़ एंड थ्रो वाली अपसंस्कृति से पैदा हुई नकारात्मकता दोनों मिलकर कब का यहाँ जिंदगी की साँसें लील गई होतीं। शहर तो मुझे गोरखपुर भी नहीं लगता। अपनी मूल प्रकृति में मेरा पूरा शहर मुझे हमेशा एक बड़ा गाँव लगा। एक ऐसा गाँव जहाँ शहर एक चोर की तरह कभी इस गली तो कभी उस गली से निरंतर घुसपैठ बनाने की कोशिश कर रहा है। पता नहीं क्यों , पर मेरे भीतर एक विश्वास है कि शहर वहाँ अपने असल मकसद में कभी कामयाब नहीं होने वाला। हो सकता है , यह एक अंधविश्वास हो , पर है। ख़ैर , शहर मानना न मानना एक बात है , पर यह भी सच है कि दुनिया के ...