विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

हरिशंकर राढ़ी 

(विदेशी विद्वानों का संस्कृत प्रेम’ - जगदीश प्रसाद बरनवाल कुंद’)

विश्व की प्राचीनतम एवं सर्वाधिक व्यवस्थित भाषा का पद पाने की अधिकारी संस्कृत आज अपनी ही जन्मभूमि पर भयंकर उपेक्षा का शिकार है। उपेक्षा ही नहीं, कहा जाए तो यह कुछ स्वच्छंदताचारियों या अराजकतावादियों की बौद्धिक हिंसा का भी शिकार है। भले ही व्याकरण के कड़े नियमों में बँधी हुई संस्कृत दुरूह है, किंतु इसके साहित्य और लालित्य को समझ लिया जाए तो शायद ही विश्व की किसी सभ्यता का साहित्य इसके बराबर दिखेगा। इसे अतीत के एक खासवर्ग की भाषा मानकर जिस तरह गरियाया जा रहा है, वह एक विकृत राजनीतिक मानसिकता का परिचायक है।यह हमारे यहाँ ही संभव है अपनी प्राचीन भाषाओं को जाति, क्षेत्र और वर्ग के राजनीतिक चश्मे से देखा जाए। यदि संस्कृत भाषा और साहित्य इतना ही अनुपयोगी और दुरूह होती तो यूरोप सहित अन्य महाद्वीपों के असंख्य विद्वान इसके लिए अपना जीवन होम नहीं कर देते। हाँ, यह विडंबना ही है कि हमें अपनी विरासत का महत्त्व विदेशियों से अनुमोदित करवाना पड़ता है।

संस्कृत भाषा और साहित्य से विदेशी विद्वानों को कितना लगाव रहा है और उन्होंने इसके संरक्षण, शोध और विस्तार को लेकर कितना काम किया है, इसे गंभीरतापूर्वक रेखांकित करने वाली एक पुस्तक विदेशी विद्वानों का संस्कृत प्रेमजगदीश प्रसाद बरनवाल कुंदकी लेखनी से आई है। उल्लेखनीय है कि इसी विधा की दो और महत्त्वपूर्ण पुस्तकें - विदेशी विद्वानों का हिंदी प्रेमतथा विदेशी विद्वानों की दृष्टि में हिंदी रचनाकार’ ‘कुंदजी दे चुके हैं। कहना न होगा कि ये सभी पुस्तकें मस्तिष्क पर छा जाती हैं क्योंकि ये गहन अनुशीलन, आधिकारिक ज्ञान और उत्कृष्ट भाषा-शैली में लिखी गई हैं।  

कहा जाए तो विदेशी विद्वानों का संस्कृत प्रेमवस्तुतः अपने विषय पर एक लघु विश्वकोश है। इसमें जहाँ एक ओर पच्चीस से अधिक ज्ञात-अज्ञात और विख्यात विदेशी संस्कृत विद्वानों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का व्यापक विवरण दिया गया है, वहीं ढाई सौ विद्वान ऐसे होंगे जिनके विषय में संक्षिप्त जानकारी दी गई है। जिनका विस्तृत विवरण दिया गया है, उनकी संस्कृत सेवा देखकर एक सुखद आश्चर्य होता है। इतना ही नहीं, पुस्तक से गुजरते हुए लगता है कि साहित्य और भाषाप्रेमी विद्वानों के लिए कोई भी साहित्य पराया नहीं होता। दूसरे शब्दों में साहित्य का प्रभाव विश्वव्यापी होता है, बस उसे देखने-परखने की आवश्यकता होती है।

बड़े लेखों में जिन विदेशी विद्वानों का जिक्र किया गया है, उनमें अलबिरूनी, सर विलियम जोंस, हेनरी थॉमस कोलब्रुक, डॉ, जेम्स रॉबर्ट बैलेंटाइन, प्रो0 मैक्समूलर, डॉ॰ कीलहार्न, आचार्य मुग्धानल, ए.बी. कीथ आदि प्रमुख हैं। अलबिरूनी के जीवन और संस्कृत संबंधी योगदान की लेखक ने बखूबी चर्चा की है। वेद-पुराण से लेकर रामायण महाभारत पर उसके विचार और शोध प्रभावित करते हैं। अलबिरूनी के संबंध में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के विचारों को कुंदजी उद्धृत करते हैं- अलबिरूनी के इन ग्रंथों में पांडित्य कूट - कूटकर भरा हुआ है। अब भी बड़े - बड़े विद्वान उन्हें देखकर मुग्ध हो जाते हैं।

Hari Shanker Rarhi 

इंग्लैंड में जन्मे सर विलियम जोंस को लेखक संस्कृत विद्वान के रूप में बहुत महत्त्व देता है। वस्तुतः वे इसके योग्य भी हैं। कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त सर जोंस संस्कृत के प्रति अगाध प्रेम रखते थे। जो कार्य उन्होंने संस्कृत के लिए किया, वह विरले ही कर पाते हैं। कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम्से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने स्वयं इसका अंगरेजी में अनुवाद किया। इसी अनुवाद को पढ़कर प्रसिद्ध जर्मन कवि गेटे खुशी से उछल पड़ा था, दंग रह गया था। पहली बार संस्कृत साहित्य का डंका योरोपीय धरती पर बजा था। बहुत कम लोग जानते हैं कि कालिदास को भारत का शेक्सपीयरउपाधि सर जोंस ने ही दी थी जिसके लिए उन्हें अपने देश में बहुत विरोध झेलना पड़ा था।

विदेशी विद्वानों के संस्कृत साहित्य के गहन शोध, संपादन और प्रकाशन के विषय में ही यह पुस्तक प्रकाश नहीं डालती अपितु विद्वानों के जीवनवृत्त के बहाने कुंठित मानसिकता वाले भारतीय संस्कृत पंडितों के पोंगापंथ पर भी आक्रमण करती है। अपना एकाधिकार छिनने के भय से इन्होंने सर जोंस सहित अनेक विदेशी विद्वानों का असहयोग ही नहीं किया अपितु उनकी खिल्ली भी उड़ाई। यह पढ़ते हुए बहुत दुख हुआ कि सर जोंस जैसे मेधावी और समर्पित विद्वान को कोई पंडित संस्कृत भाषा सिखाने को तैयार नहीं हुआ। एक तो अपनी जाति से च्युत होने का भय और दूसरे अहंकार। किसी तरह एक संस्कृत ज्ञाता वैद्यराज उन्हें सिखाने को तैयार तो हुआ, किंतु उसका वेतन और शर्तें जानकर मन क्षोभ से भर उठता है। शायद यही कारण रहा कि भारतीय मनीषा और साहित्य उच्चस्तरीय होने के बावजूद वह स्थान नहीं पा सका जो उसे पाना चाहिए था।

प्रो. मैक्समूलर पर भी लेखक ने विशद जानकारी दी है। उनके लिए तो शीर्षक में ही संस्कृत वाङ्मय के अनुसंधाता एवं भारतविद्जोड़ा गया है। फ्रेडरिक मैक्समूलर की महत्ता इस बात से समझी जा सकती है कि उन्होंने दावा किया कि विश्व की प्राचीनतम भाषा हिब्रू नहीं बल्कि संस्कृत है, जो सभी आर्यों की मूलभाषा है और संसारभर की आर्यभाषाओं के जितने भी शब्द हैं, वे संस्कृत की सिर्फ पाँच सौ धातुओं से निकले हैं। भारतीय भले ही दावा करते रहें कि संस्कृत विश्व की प्राचीनतम भाषा है, लेकिन विदेशी इस बात को स्वीकार करने में बहुत आनाकानी करते हैं। यह भी विडंबना ही रही कि यह जर्मन मनीषी भारतीय साहित्य और संस्कृत के लिए इतना काम किया, भारत के सपने देखता रहा किंतु सशरीर भारत कभी न आ पाया। स्वामी विवेकानंद से मिलकर इसे अप्रतिम सुख प्राप्त हुआ था। उल्लेखनीय है कि संस्कृत साहित्य के उन्नयन में मैक्समूलर के योगदान को देखते हुए एक स्वर में भारतीय विद्वानों ने उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की। उन्होंने जर्मनी को शार्मण्य और ऑक्सफोर्ड को उक्षतारण बनाया। भारतवासियों ने उन्हें भट्ट की उपाधि दी और उनका नाम शुद्ध करके मोक्षमूलर कर दिया। उनके संपादित ऋग्वेद के अंत में एक श्लोक है जो द्रष्टव्य है-

शार्मण्य देशे जातेन उक्षयत्र निवासिना।

 मोक्षमूलर भट्टेन पुस्तकामिदं शोधितम्।।

अपनी बातसहित लगभग 144 पृष्ठों में अनेक विदेशी विद्वानों के जीवन एवं संस्कृत संबंधी कार्यों पर गहन दृष्टि डालने के बाद लेखक टिप्पणियों के प्रखंड में आता है। इस प्रखंड में लगभग 270 विदेशी विद्वानों के विषय में टिप्पणियाँ हैं। पाँच-दस वाक्यों से लेकर एक-डेढ़ पृष्ठ में अनेक लेखकों के विषय में बताया गया है। स्पष्ट है कि इन प्रखंड में आए विद्वानों के विषय में लेखक को अधिक जानकारी नहीं मिल पाई होगी। फिर भी यह देखकर हैरानी होती है कि संस्कृत साहित्य और भाषा के इतने अनुरागी दुनिया के कोने-कोने में बैठे हैं और हमें पता ही नहीं। यह भी उल्लेखनीय है कि ये विद्वान इंग्लैंड और जर्मनी से इतर हंगरी, रूस, यूनान, अमेरिका, पोलैंड, नार्वे, फिनलैंड, फ्रांस, बेल्जियम, रोमानिया, इटली, मारीसस जैसे दूरस्थ देशों के निवासी थे। इन विद्वानों के विषय में लेखक ने यथोपलब्ध जानकारी के अनुसार इनका जन्म, कार्य, पेशा इत्यादि बताया है। संक्षिप्त ही सही, इनके नाम और योगदान से पाठक परिचित होता चलता है। अंत में कुल 155 विद्वानों पर विहंगम दृष्टि डालते हुए उनके देश और प्रकाशित रचना का उल्लेख है। सहायक ग्रंथों की सूची भी बहुत लंबी है और अंतिम पृष्ठों पर कुछ विद्वानों के छायाचित्र भी हैं।

निःसन्देह, ऐसे शोधपूर्ण कार्य को संपन्न करना सहज नहीं होता है। दुनिया के तमाम देशों के ऐसे विद्वानों का पता लगाना, चयन करना और फिर उनके योगदान को साधिकार प्रस्तुत करना चुनौतीपूर्ण और जिजीविषा से भरा कार्य होता है। ऐसे कार्यों के संपादन के लिए जिस लगन, धैर्य और समर्पण की आवश्यकता होती है, वह लेखक में प्रचुर मात्रा में है। बगैर किसी प्रशासनिक और प्रभावी शक्ति के विभिन्न स्रोतों से सूचनाओं को एकत्रित कर पाना असंभव की हद तक कठिन है। इस कार्य में आई ऐसी अनेक कठिनाइयों का जिक्र लेखक अपनी बातमें बहुत शिद्दत से करता है। अपने आठ पृष्ठ के कथन में कुंदजी संस्कृत वाङ्मय का महत्त्व, विदेशियों द्वारा संस्कृत सीखने की आवश्यकता के पीछे का कारण और उसका परिणाम विस्तार से बताते हैं। वहीं इस राह में आई कठिनाइयों की चर्चा करते हुए वे कहते हैं- जिस किसी संस्कृत प्रवक्ता, संस्कृत संस्थान, से वांछित विषय पर चर्चा करता या उनसे मार्गदर्शन हेतु अनुरोध करता तो वे विषयेतर बातों में उलझाकर निराशा ही पैदा करते थे। अतः सहयोग और सामग्री के अभाव में इच्छा होती थी कि अपनी इस योजना को विराम दे दूँ।इसी अनुच्छेद में विदेशी विद्वानों की उपलब्धियों पर चर्चा करते हुए वे कहते हैं- वर्णित उपलब्धियों को गिनाते हुए मेरा उद्देश्य इन विदेशी विद्वानों का अनायास ही महिमामंडन करना नहीं है बल्कि उनके कार्यों को देखते हुए उन्हें विस्मरण से बचाने का एक उपक्रम मात्र है।

सच तो यह है कि पुस्तक में दिए गए विदेशी विद्वानों का पूरा जिक्र न तो यहाँ संभव होगा और न समीचीन। इसके लिए आवश्यक है कि पुस्तक स्वयं पढ़ी जाए। मेरा विश्वास है कि इसे पढ़ते हुए विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम ही नहीं, संस्कृत की महत्ता का भी आभास होता जाएगा। जहाँ तक भाषा और शैली का प्रश्न है, लेखक कुंदजी इस क्षेत्र में मंजे हुए कलमकार हैं। गूढ़ से गूढ़ बात को भी सरल भाषा में कह देना उनके लिए बहुत ही आसान है। यदि कोई नकारात्मकता का लेंस लेकर बैठेगा तो कमियाँ निकाल ही लेगा, अन्यथा विदेशी विद्वानों का संस्कृत प्रेमअपने आप में एक गंभीर शोध और संदर्भग्रंथ के रूप में देखा जाना चाहिए।

पुस्तक:  विदेशी विद्वानों का संस्कृत प्रेम

            (शोध और संदर्भ ग्रंथ)

लेखक:   जगदीश प्रसाद बरनवाल कुंद

प्रकाशक: मेधा बुक्स, एक्स- 11, नवीन शाहदरा

           दिल्ली- 110032

पृष्ठ: 253    मूल्य:  500/- (हार्ड बाउंड)




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