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सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

(आलोक नंदन) एक फिल्म स्क्रीप्ट डिस्पले कर रहा हूं…फिल्म का नाम है राब्स, इसके साथ नीचे में इनवर्टेड कौमा में लिखा हुआ है, अपराध जगत में एक प्रयोगवादी जज...अब खुद देख लिजीये यह जज कितना प्रयोगवादी है....यह जैसा है वैसे ही रखने जा रहा हूं....एक एक सीन रखता जाऊंगा... वर्तमान सीन से आगे बढ़ कर सीन बताने वालो का स्वागत है, वैसे इसको पढ़ने का मजा तो हर कोई उठा ही सकता है। स्क्रीप्ट लेखन टेक्निक के लिहाज से यह मुझे कुछ उम्दा लगा और स्क्रीप्ट लेखन में कैरियर बनाने की इच्छा रखने वालों के लिए यह निसंदेह सहायक हो सकता है। स्क्रीप्ट लेखन से संबंधित किसी भी स्तर के कोई भी प्रश्न आप यहां दाग सकते हैं....आपके सवालों और सुझावों का स्वागत है। Robes “ An experimental judge in a crime world.” Laugh with unbroken breaking news Comedy of cruelty “ Wanted for his own murder charge” तो शुरु हो रहा है राब्स...बिना टिकट के ही इसका मजा लिजीये....। (इसे एक फिल्म का विशुद्ध रूप से प्रचार स्टाइल माना जाये, (फिल्मों के प्रचार स्टाईल का अपना एक तरीका है, ) हालांकि कि यह फिल्म बनी ही नहीं है, और ...

रावण के चेहरों पर उड़ता हुआ गुलाल

आलोक नंदन पुश्त दर पुश्त सेवा करने वाले कहारों से बीर बाबू कुछ इसी तरह पेश आते थे, “अरे मल्हरवा, सुनली हे कि तू अपन बेटी के नाम डौली रखले हे ?” “जी मलिकार”,  हाथ जोड़े मल्हरवा का जवाब होता था। “अरे बहिन....!!! अभी उ समय न अलई हे कि अपन बेटी के नाम बिलाइती रखबे..., कुछ और रख ले .... भुखरिया, हुलकनी ......  लेकिन इ नमवा हटा दे, ज्यादा माथा पर चढ़के मूते के कोशिश मत कर”, अपने  ख़ास अंदाज़ में बीर बाबू अपने पूर्वजों के तौर-तरीक़ों को हांकते थे. उनके मुंह पर यह जुमला हमेशा होता था, “छोट जात  लतिअइले बड़ जाते बतिअइले”. इलाके में कई तरह की हवाएं आपस में टकरा रही थीं और जहां तहां लोगों के मुंह से भभकते हुए शोले निकल रहे थे. “अंग्रेजवन बहिन...सब चल गेलक बाकि इ सब अभी हइये हथन .” “एक सरकार आविते थे, दूसर सरकार जाइत हे, बाकि हमनी अभी तक इनकर इहां चूत्तर घसित ही.. ” “अभी तक जवार में चारो तरफ ललटेने जलित थे, इ लोग बिजली के तार गिरही न देलन...अब मोबाइल कनेक्शन लेके घूमित हथन...सीधे सरकार से बात करित हथन ” “एक बार में चढ़ जायके काम हे... ” “बाकि अपनो अदमियन सब भी तो बहिनचोदवे ...

थ्री फिफ्टीन (कहानी)

आलोक नंदन बाहर के लौंडे कैंपस के अंदर रंगदारी करने आ ही जाते थे। सभी झूंड में होते थे, इसलिए उनसे कोई उलझता -नहीं था। किसी की भी साइकिल को छिन लेना और लप्पड़ थप्पड़ कर देना उनके लिए मामूली बात thi, सिगरेट के छल्ले उड़ाने जैसा। श्रेया पूरे कालेज की माल थी, चुपके-चुपके हर कोई उसको अपने सपनों की हीरोईन समझता था। कुछ ज्यादा बोलने वाले लौंडे ग्रुपबाजी में बैठकर आपस में ही श्रेया की खूब ऐसी तैसी करते थे, उसके नाकों में पड़ी नथ से लेकर उसके रूमाल तक की चर्चा होती थी। अब ये लौंडों की औकात पर निर्भर करता था कि कौन क्या बोलता है। उनकी बातों को सुनकर एसा लगता था कि कोका पंडित से लेकर कालीदास तक श्रेया के मामले में फेल हो जाते। प्रैक्टिकल रूम में हाथों में दस्तानों के साथ जार लिये लौंडों की बातें श्रेया की रेटिना से शुरू होकर कहां-कहां घूमती थी कोई नहीं जानता था। भोलुआ बाहरी था, लेकिन छूरा और गोली चलाने का उसका हिस्ट्री रिपोर्ट अंदर के प्रैक्टिकल से लेकर स्पोर्ट्स तक के लौंडों पर भारी पड़ता था। यदि गलती से वह किसी क्लास में घुस जाता था तो प्रोफेसर और लड़के यही सोचते थे कि कैसे जल्दी क्लास खत्म...

बिना लाइन की पटरी

धड़ड़...धड़ड़..धड़ड़ धड़ड़...धड़ड़..धड़ड़ ...धड़ड़..धड़ड़ पटरियों पर लोकर ट्रेन दोनों तरफ से सांप की तरह बल खाती हुई निकल रही थी। सोम, रोहन और नाथू गुमटी के पास उतर कर पटरियों के किनारे-किनारे एक ओर अंधेरे में बढ़ रहे थे। रेल्वे की बांड्री के दूसरी तरफ खड़ा एक सात मंजिला बिल्डिंग की खिड़कियों से निकलने वाली रोशनी अंधरे को धीरे-धीरे चाट रहा था। बांड्री के इस ओर कतारबद्ध तरीके से इंटों के छोटी-छोटी कोठरियां बनी हुई थी, जिनमें खिड़कियां नहीं थी। पटरियां बैठाने वाले मजदूरों के परिवार इन्हीं कोठरियों में टिके हुये हुये थे। अंधेरे में आगे बढ़ते हुये सोम का पैर एक बड़े से पत्थर से टकराया और इसके साथ ही उसके हाथ में पड़े पोलीथीन के बैग से आपस में बोतलों के खनखनाने की आवाज अंधेरे में तेजी से फैल कर गुम हो गई। अबे देख के....केएलपीडी करेगा क्या..., अंधेरे में संभलते हुये सोम की ओर घूरते हुये नाथू गुर्राया। चिंता मत कर....मेरे नाक मुंह टूट जाये, लेकिन ये बोतल नहीं टूटेंगे...पोलीथीन के बैग में हाथ डालकर बोतलों को टटोलते हुये सोम ने तसल्ली दी। कुछ चखना ले लेना चाहिये था....आगे बढ़ते हुये नाथू ...

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