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Showing posts from 2009

एक सार्थक पहल के लिए

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कथाकार - ०००0 सुनीति 0००० ' अगली गोष्ठी में काव्या जी अपनी कहानी का वाचन करेंगी । ' सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया और गोष्ठी समाप्त हो गयी . ' काव्या जी, ' डॉ . ललित ने विदा लेते हुए कहा, ' अगली गोष्ठी में आपकी सार्थक कहानी सुनने का अवसर मिलेगा .' काव्या ने जैसे असमंजस की स्थिति में उनके निमंत्रण को मौन स्वीकृति दे दी . एक निरर्थक जीवन पर सार्थक कहानी कैसे लिखी जा सकती है ? जबकि कहानी की विषयवस्तु स्वयं के जीवन पर आधारित हो . काव्या को लगा मानो परीक्षा की घडी आ गयी . महीने में एक बार होने वाली इस गोष्ठी में कोई नामचीन कथाकार नहीं आते थे . बस ऐसे लोग जो केवल स्वान्तः सुखाय के लिए सृजन में विश्वास रखते थे . हाँ यह बात अलग है कि काव्या जी और डॉ. ललित जैसे जाने माने कथाकार इससे जुड़ गए हैं . ऐसे कथाकार सार्थक सृजन में विश्वास रखते हैं . वरना आज इतर लेखन की भरमार है . कुछ हद तक इसे सच माना जा सकता है कि साहित्य में समाज को बदलने की क्षमता नहीं है . समाज और देश को बदलने वाली शक्तियां दूसरी होती हैं . एक सजग ओत परिश्रमी लेखक ताउम्र लिखकर भी किसी आदमी के जीवन को सुधार नह

निठारीकरण हो गया

कर दिया जो वही आचरण हो गया । लिख दिया जो वही व्याकरण हो गया । गोश्त इन्सान का यूं महकने लगा जिंदगी का निठारीकरण हो गया । क्योंकि घर में ही थीं उसपे नज़रें बुरी द्रौपदी के वसन का हरण हो गया । उस सिया को बहुत प्यार था राम से पितु प्रतिज्ञा ही टूटी , वरण हो गया । 'राढ़ी ' वैसे तो कर्ता रहा वाक्य का वाच्य बदला ही था, मैं करण हो गया । कल भगीरथ से गंगा बिलखने लगी तेरे पुत्रों से मेरा क्षरण हो गया । ।

व्यंग्य को आलोचना की बैसाखी की जरूरत नहीं

हिन्दी व्यंग्य एवं आलोचना पर लखनऊ में यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई तो थी 30 नवंबर को ही थी और इसकी सूचना भी भाई अनूप श्रीवास्तव ने समयानुसार भेज दी थी, लेकिन मैं ही अति व्यस्तता के कारण इसे देख नहीं सका और इसीलिए पोस्ट नहीं कर सका. अब थोड़ी फ़ुर्सत मिलने पर देख कर पोस्ट कर रहा हूं. -इष्ट देव सांकृत्यायन हिन्दी व्यंग्य साहित्यिक आलोचना की परिधि से बाहर है ? इस विषय पर आज उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान और माध्यम साहित्यिक संस्थान की ओर से अट्टहास समारोह के अन्तर्गत आयोजित दो दिवसीय विचार गोष्ठी में यह निष्कर्ष निकला कि व्यंग्यकारों को आलोचना की चिन्ता न करते हुए विसंगतियों के विरूद्ध हस्तक्षेप की चिन्ता करनी चाहिए, क्योंकि वैसे भी अब व्यंग्य को आलोचना की बैसाखी की जरूरत नहीं. राष्ट्रीय संगोष्ठी की शुरूआत प्रख्यात व्यंग्यकार के.पी. सक्सेना की चर्चा से शुरू हुई. श्री सक्सेना का कहना था कि हिन्दी आलोचना को अब व्यंग्य विधा को गंभीरतापूर्वक लेना चाहिए.  उन्होंने यह भी कहा कि अब व्यंग्य को आलोचना की बैसाखी की जरूरत नहीं है. व्यंग्य लेखन अपने उस मुकाम पर पहुंच गया है कि  उसने राजनीति, समाज एवं शिक्षा

भांति-भांति के जन्तुओं के बीच मुंबई बैठक

आलोक नंदन मुंबई के संजय गांधी राष्ट्रीय नेशनल पार्क में भांति-भांति के जन्तुओं के बीच रविवार को भांति-भांति के ब्लौगर जुटे। लेकिन एन.डी.एडम अपनी ड्राइंग की खास कला से वाकई में कमाल के थे। पेंसिल और अपनी पैड से वह लगातार खेलते रहे, किसी बच्चे की तरह। और देखते ही देखते वहां पर मौजूद कई ब्लौगरों की रेखा आकृति उनके पैड पर चमकने लगी। भांति भांति के ब्लौगरों के बीच अपने अपने बारे में कहने का एक दौर चला था, और इसी दौर के दौरान किसी मासूम बच्चे की तरह वह अपने बारे में बता रहे थे। “मुझे चित्र बनाना अच्छा लगता था। एक बार अपने शहर में पृथ्वी कपूर से मिला था। वो थियेटर करते थे। मैं थियेटर के बाहर खड़ा था। एक आदमी ने उनसे मेरा परिचय यह कह कर दिया कि मैं एक चित्रकार हूं। वह काफी खुश हुये और मुझे थियेटर देखने को बोले। शाम को जब मैं अगली पंक्ति में बैठा हुआ था तो लोगों को आश्चर्य हो रहा था,” मुंबईया भाषा में वो इसे तेजी से बोलते रहे। जब वह अपना परिचय दे रहे थे तो बच्चों की तरह उनके मूंह से थूक भी निकल रहा था, जिसे घोंटते जाते थे। “मैं पांचवी तक पढ़ा हूं, फिर चित्र बनाता रहा। मुझे चि

ललन और लोलिता को सांस्कृतिक ठेकेदारों से बचाते हैं जज पंत

मैं एक जज की गरिमा को पूरी मजबूती से स्थापित करना चाह रहा था...इसलिये जज पंत के रुटीन को लेकर चल रहा था ताकि दर्शकों के बीच जज पंत की पहचान एक गंभीर जज के रूप में हो। सीन 6 और 7 में कहानी को आगे बढ़ाते हुये एक जज के मैनेरिज्म को ही स्थापित किया गया है। उसका नौकर भंडारी और बाकी के गनमैन जज पंत की आभा को ही विस्तार दे रहे हैं। सीन 8 में ललन और लोलिता एक बार फिर आ रहे हैं। वेलेंनटाइन डे के दिन ललन लोलिता को लेकर जाते हुये एक पार्क के करीब एक सांस्कृति संगठन का निशाना बनता है और जज पंत उन्हें बचाते हैं। Scene 6 Characters : Pant, Bhandari and four gunmen Ext/morning/ portico (Pant comes out from the door and advances to the portico. A white ambassador car is standing there. A police man with his gun and a driver are waiting for him. Having seen Pant the gunman open the back door of the car, the second police man sits at his driving seat.) Pant (standing at the car’s back door) ka

कहां है चैनलों को मिले 268 नोटिसों का जवाब ??

आलोक नंदन सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय ने कलर्स टीवी पर चलने वाला धारावाहिक “ना आना इस देश लाडो” और तथाकथित रियलिटी शो “बिग बास 3” के लिए कलर्स चैनल को कारण बताओं नोटिस जारी किया है। सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय का कहना है कि “ना आना इस देश लाडो” में एक मजिस्ट्रेट को नकारात्मरूप से दिखाया जा रहा है, जो सरासर गलत है। सूचना एंव प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी मजबूत तर्क प्रस्तुत कर रही हैं कि एक मजिस्ट्रेट को इस रूप में नहीं चित्रित किया जा सकता है। राज्य की छवि इससे खराब होती है, और राज्य को यह पूरा अधिकार है कि वह अपने सार्वजनिक पदों के मान और सम्मान की रक्षा करे। मंत्रालय का कहना है कि अब तक प्रोग्राम कोड को ठेंगा दिखाने वाले विभिन्न चैनलों को 268 नोटिस भेजे जा चुके हैं। यदि इनलोगों ने अपने आप को नियंत्रित नहीं किया तो अब नोटिस नहीं भेजा जाएगा, बल्कि सीधे कार्रवाई होगी। बिग बास 3 में संचालक की भूमिका में अमिताभ बच्चन भी हैं, और बिग पर अश्लीलता परोसने की बात सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय कर रहा है। ना आना इस देश लाड़ो को कन्या भ्रूण हत्या के इमोशनल ड्रामे के साथ परोसा जा रहा है, लेकिन जिस तरह से

टीवी क्राइम शो और उसके इफेक्ट को रिफ्लेक्ट करता फिल्म राब्स का सीन 5

मित्रों आलोक जी ने यह एपिसोड समय से लिखकर सहेज दिया था, मैं ही अपनी निजी व्यस्तता के कारण इसे पोस्ट नहीं कर सका.  बहरहाल, आशा है सुधी पाठक देर के लिए मुझे क्षमा करेंगे. फिल्म की पटकथा में जितनी महत्वपूर्ण चीज़ कहानी होती है, उतना ही महत्वपूर्ण होता है  उसके अलग-अलग चरित्रों का विकास. यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है फिल्म में कब, कहां और किस तरह उनकी एंट्री कराई जाए. यह सब कई बातों को ध्यान में रख कर करना होता और वह भी एक ख़ास रणनीति के तहत. इस किस्त में आलोक नन्दन ने इन्हीं बारीकियों का ज़िक्र किया है.                                                                                                      - इष्ट देव सांकृत्यायन आलोक नंदन सीन 4 में जज पंत के दैनिक जीवन को दिखाया गया है...उसके दिन की शरुआत गार्डेन से होती है, फूल-पत्तियों से उसे प्यार है। इस सीन में ललन को इंट्रोड्यूस किया गया है...साथ ही एक और नाम आया है...मैक्सफियर...जब मैं इस स्टोरी को डेवल्प कर रहा था तो मुझे लगा कि इसमें एक ऐसे कैरेक्टर का समावेश करूं जो सही मायने में इंग्लैंड से जुड़ा हो....दिमाग शेक्सपीयर पर आकर टिक ग

बदल रहा है सामाजिक यथार्थ : कुँवर नारायण

'नई धारा' के आयोजन में कुंवर, बालेन्दु एवं राधेश्याम सम्मानित

जज रमेश पंत और शराब चोर गोल्डी के सीन

अख़बार की दुनिया से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और फिर सिनेमा तक तक़दीर की आजमाइश करते चले जाने वाले आलोक नंदन को सिनेमा के व्याकरण की अच्छी समझ है. हिंदी में सही पूछिए तो किसी भी क्षेत्र में स्क्रिप्टिंग पर औपचारिक रूप से बहुत ढंग का काम नहीं हुआ है. साहित्य से लेकर पत्रकारिता और सिनेमा तक यह कमी महसूस होती है. हालांकि यही हिंदी की दुनिया की बहुत बड़ी ख़ूबी भी है. एक लड़की-एक लड़के और एंग्री यंगमैन वाले फार्मूलेबाजी के दौर से निकल चुके हिन्दी सिनेमा में यह कमी ज़्यादा शिद्दत से महसूस की जाने लगी है. इसी के मद्देनज़र आलोक नंदन ने पिछले शुक्रवार से यह कोशिश शुरू की है. यह कहानी या स्क्रिप्ट होने की दृष्टि से उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि उसके व्याकरण के नज़रिये से. पाठकों से हमारा अनुरोध है कि इसे इसी नज़रिये से लिया भी जाना चाहिए और यदि कहीं कोई शंका हो या कोई सुझाव हो तो उसे निस्संकोच रखें. हर संशय के निराकरण का वादा तो हम नहीं कर सकते, पर कोशिश ज़रूर करेंगे और सुझावों का स्वागत तो है ही. (फिल्म स्क्रिप्ट राब्स का दूसरा भाग) आलोक नंदन अब जज पंत के इस डायलाग को देखिये, एक बड़े से आइने के सामने खड

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

(आलोक नंदन) एक फिल्म स्क्रीप्ट डिस्पले कर रहा हूं…फिल्म का नाम है राब्स, इसके साथ नीचे में इनवर्टेड कौमा में लिखा हुआ है, अपराध जगत में एक प्रयोगवादी जज...अब खुद देख लिजीये यह जज कितना प्रयोगवादी है....यह जैसा है वैसे ही रखने जा रहा हूं....एक एक सीन रखता जाऊंगा... वर्तमान सीन से आगे बढ़ कर सीन बताने वालो का स्वागत है, वैसे इसको पढ़ने का मजा तो हर कोई उठा ही सकता है। स्क्रीप्ट लेखन टेक्निक के लिहाज से यह मुझे कुछ उम्दा लगा और स्क्रीप्ट लेखन में कैरियर बनाने की इच्छा रखने वालों के लिए यह निसंदेह सहायक हो सकता है। स्क्रीप्ट लेखन से संबंधित किसी भी स्तर के कोई भी प्रश्न आप यहां दाग सकते हैं....आपके सवालों और सुझावों का स्वागत है। Robes “ An experimental judge in a crime world.” Laugh with unbroken breaking news Comedy of cruelty “ Wanted for his own murder charge” तो शुरु हो रहा है राब्स...बिना टिकट के ही इसका मजा लिजीये....। (इसे एक फिल्म का विशुद्ध रूप से प्रचार स्टाइल माना जाये, (फिल्मों के प्रचार स्टाईल का अपना एक तरीका है, ) हालांकि कि यह फिल्म बनी ही नहीं है, और

बाज़ार की बाढ़ में फंस गया मीडिया

हमारा समाज आज बाज़ार और मीडिया के बीच उलझता जा रहा है. बाज़ार भोगवाद और मुनाफे के सिद्धांतों पर समाज को चलाना चाहता है, जबकि मीडिया सरकार की आड़ से अब बाजार की बाढ़ में फंस गया है. यह बात जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के वैश्विक अध्ययन केन्द्र के संयोजक प्रो. आनन्द कुमार ने शहीद भगत सिंह कॉलेज में आयोजित एक संगोष्ठी में कही. ‘ बाजार , मीडिया और भारतीय समाज ’ विषयक इस संगोष्ठी में उन्होंने समाज के सजग लोगों से मीडिया और बाजार दोनों की सीमाओं को नये संदर्भ में समझने का आह्वान करते हुए कहा कि अगर ऐसा न हुआ तो लोकतंत्र के वावजूद मीडिया हमारे समाज में विदुर की जैसी नीतिसम्मत भूमिका छोड़कर मंथरा जैसी स्वार्थप्रेरित भूमिका में उलझती जाएगी. मीडिया का बाजारवादी हो जाना भारत के लोकतंत्र को मजबूत नहीं करेगा. बीते 4 नवंबर को हुई इस संगोष्ठी में शहीद भगत सिंह कॉलेज के प्राचार्य डॉ. पी.के. खुराना ने स्पष्ट किया कि अर्थव्यवस्था में बदलाव के कारण कैसे बाज़ार मजबूत हुआ है और मानवीय मूल्य निरंतर टूटते जा रहे हैं. भारतीय जनसंचार संस्थान में हिंदी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम निदेशक डॉ. आनन्द प्रधान ने कहा कि

समलैंगिकों और किन्नरों का सरकारी पदों पर आरक्षण

मैं सोच रहा हूं कि केन्द्र सरकार को एक पत्र लिखूं और कुछ सुझाव दूँ ताकि अरसों से अपनी गरिमा और अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करते आ रहे लोगों (समलैंगिकों तथा किन्नरों) के आन्दोलन में सहभागिता का गौरव अर्जित कर सकूँ। इससे देश की ढेर सारी सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं जैसे दहेज, भ्रष्टाचार, महंगाई आदि को कुछ ही सालों में जड़ से खत्म किया जा सकेगा। जबकि अब तक की लगभग सभी सरकारें इन्हें खत्म करने का दावा तो करती रही हैं किंतु इन्हें असाध्य रोग मान कर एड्स की तरह औपचारिक रूप से इलाज करती रही हैं और यह सोच कर कि जनता की गरीबी तो मिटा नहीं सकते, चलो अपनी ही मिटा लें। आज़ादी के बाद से सभी सरकारों और राजनेताओं ने, चाहे वे किसी भी दल के हों, इसी तरीके से जनसेवा की है और ऐसे ही करते जाने की आशा है।अरे आप को आश्चर्य हो रहा होगा कि समलैंगिकों तथा किन्नरों के आन्दोलन और गरीबी, भ्रष्टाचार तथा महँगाई का इंससे क्या सम्बन्ध है? मै कहता हूँ यही तो हमारे शोध का विषय है। यदि समलैंगिकों तथा किन्नरों को संसद, न्यायपालिका और पुलिस विभाग में शत प्रतिशत आरक्षण दे दिया जाय तो न केवल भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल जाएगी

एक दूसरे के ढोल में छेद करते हुये बेसुरे हो चले

एक पते की बात, क्या होगा यदि आप नास्तिक हो जाएंगे ? या फिर निहिलिस्ट, या फिर वादी या गैरवादी? (इष्टदेव जी ने वादी और गैरवादी शब्द का इस्तेमाल किया है, जिसका अर्थ व्यक्ति अपनी अपनी समझदानी के मुताबिक कुछ भी निकाल सकता है) किसी भी धर्म का कुछ बिगड़ जाएगा ?? या फिर कोई धर्म आपका कुछ बिगाड़ लेगा..या फिर आप तख्ता पलट क्रांति कर देंगे....बहरहाल धर्म के मामले में नीत्से की भूमिका कुछ कुछ लुभाने वाला है, खासकर उनलोगों के लिए जो ईश्वर की सत्ता को संदेह की नजर से देखते हैं। लेकिन अभी बात धर्म की है, इसलिये धर्म पर केंद्रित रहेंगे। नीत्से कहता है, “ईश्वर मर चुका है।” और लोग इधर कहते हैं किताब जिंदा रहता है, और जिंदा किताब के लिए लोगों की हत्या करते हैं..यह ट्रेजडी आफ धर्म है कि कामेडी आफ धर्म... ?? दुनिया में ईश्वर के नाम पर इनसान को गाजर मूली की तरह काटा गया है, सड़कों और चौराहों पर जिंदा जलाया गया है। आज भी इस तरह की झांकियां जहां तहां देखने को मिल जाती है। क्रूसेड, धर्मयुद्ध और जेहाद के नाम पर जितना खून बहा है उसके पाप (यदि दुनिया में पाप और पुण्य है तो) से ईश्वरवादियों को अब तक भस्म हो जाना

वे जो धर्मनिरपेक्ष हैं...

अभी थोड़े दिनों पहले मुझे गांव जाना पड़ा. गांव यानी गोरखपुर मंडल के महराजगंज जिले में फरेन्दा कस्बे के निकट बैकुंठपुर. हमारे क्षेत्र में एक शक्तिपीठ है.. मां लेहड़ा देवी का मन्दिर . वर्षों बाद गांव गया था तो लेहड़ा भी गया. लेहड़ा वस्तुत: रेलवे स्टेशन है और जिस गांव में यह मंदिर है उसका नाम अदरौना है. अदरौना यानी आर्द्रवन में स्थित वनदुर्गा का यह मन्दिर महाभारतकालीन बताया जाता है. ऐसी मान्यता है कि अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने राजा विराट की गाएं भी चराई थीं और गायों को चराने का काम उन्होंने यहीं आर्द्रवन में किया था और उसी वक़्त द्रौपदी ने मां दुर्गा की पूजा यहीं की थी तथा उनसे पांडवों के विजय की कामना की थी. हुआ भी यही. समय के साथ घने जंगल में मौजूद यह मंदिर गुमनामी के अंधेरे में खो गया. लेकिन फिर एक मल्लाह के मार्फ़त इसकी जानकारी पूरे क्षेत्र को हुई. मैंने जबसे होश संभाला अपने इलाके के तमाम लोगों को इस जगह पर मनौतियां मानते और पूरी होने पर दर्शन-पूजन करते देखा है. ख़ास कर नवरात्रों के दौरान और मंगलवार के दिन तो हर हफ़्ते वहां लाखों की भीड़ होती है और यह भीड़ सिर्फ़ गोरखपुर मंडल की ही नहीं होत

गजल

यूं कितने बेजान ये पत्थर लेकिन अब इंसान ये पत्थर ! मोम सा गलने की कोशिश में रहते हैं हलकान ये पत्थर। टकरा कर शीशा न तोड़े क्या इतने नादान ये पत्थर ! अपनी चोटों से क्यों इतना रहते हैं अनजान ये पत्थर ? इसके उसके जीवन के हैं स्थायी मेहमान ये पत्थर। (संदीप नाथ की यह गजल “दर्पण अब भी अंधा है” संग्रह से।)

पोंगापंथ अप टु कन्याकुमारी -4

तिरुअनन्तपुरम में अब कुछ खास नहीं बचा था इसलिए हमने सोचा कि हमें अब आगे चल देना चाहिए। दिल्ली में बैठे- बैठे हमने जो योजना बनाई थी उसके मुताबिक हम तिरुअनन्त पुरम में एक रात रुकने वाले थे। इसी योजना के अनुसार हमने 23 सितम्बर के लिए मदुराई पैसेन्जर में सीटें आरक्षित करवा ली थीं। यहां का सारा आवश्यक भ्रमण पूरा हो गया था और अब वहां केवल वे ही स्थान थे जो यूं ही समय बिताने के लिए देखे जा सकते थे, हमें काफी कुछ घूमना था इसलिए निर्णय लिया कि अगले दिन का आरक्षण निरस्त करवा कर आज ही इसी गाड़ी से मदुराई चल दें। वहां की गाड़ियों में भीड़ कम होती है और कोई खास परेशानी होने वाली नहीं थी। स्वामी पद्मनाभ मंदिर से लौटकर सर्वप्रथम हमने आरक्षण निरस्त कराया । त्रिवेन्द्रम स्टेशन का आरक्षण कार्यालय हमें दिल्ली के सभी आरक्षण कार्यालयों से अच्छा और सुव्यवस्थ्ति लगा। स्वचालित मशीन से टोकन लीजिए और अपनी बारी की प्रतीक्षा कीजिए, लाइन में लगने की कोई आवश्यकता ही नही। एक डिस्प्ले बोर्ड पर आपका नंबर आ जाएगा और आपका काउंटर नंबर भी प्रर्दशित हो जाएगा। ऐसी व्यवस्था तो राजधानी दिल्ली में भी नहीं है जहां कि भारत सरकार

साहित्य की चोरी

[] राकेश 'सोहम' विगत दिनों मेरे साहित्य की चोरी हो गई । आप सोच रहे होंगे, साहित्य की चोरी क्यों ? साहित्यिक चोरी क्यों नहीं ? साहित्य और सहित्यकारों के बीच साहित्यिक चोरियां देखी और सुनी जातीं हैं । एक साहित्यकार दूसरे साहित्यकार की रचना चुराकर छपवा देते हैं । मंच के कवि दूसरे कवियों की रचनाएं पढ़कर वाह-वाही लूटते हैं । आजकल साहित्यिक मंचों पर सर फुटौवल, टांग - खिंचौवल और साहित्यिक चोरियां फैशन में हैं । मैं अपनी इस चोरी को साहित्यिक चोरी इसलिए नहीं कह सकता क्योंकि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था । वैसे मेरे जैसे टटपूंजिया साहित्य सेवी की रचनाएं चुराकर कोई करेगा भी क्या ? यदि छोटे साहित्यकार की रचना चोरी हो जाए तो वह ऊँचा साहित्यकार हो जाता है । ये बात अलग है की छोटे साहित्यकार अपनी श्रेष्ठ रचनाएं बड़े साहित्यकारों के नाम से छपवाकर संतोष कर लेते हैं । जी हाँ, मैं कह रहा था की मेरे साहित्य की चोरी हो गई । मुझे अपनें कार्यालय से फायलों को ढोनें हेतु एक ब्रीफकेस मिला था । जिसका प्रयोग हम अपने साहित्य को घर से कार्यालय और कार्यालय से घर लाने-लेजानें में करते थे । हम जो भी रचनाएं लिखत

पोंगा पंथ अप टु कन्याकुमारी -3

दिये में तेल डालने का शुल्क देकर हम आगे निकले ही थे कि एक दूसरे कार्यकर्ता ने हमें रोका । उसके पास रसीदों की गड्डी थी । उसकी आज्ञानुसार हमें प्रति व्यक्ति पांच रुपये का टिकट लेना था । सामने एक बोर्ड पर क्षेत्रीय भाषा में पता नहीं क्या - क्या लिखा था जिसे वह हमें बार- बार दिखा रहा था । उसमें हम जो पढ़ सकते थे वह था अंगरेजी में लिखा हुआ - एंट्री-५/- । हमें लगा कि शायद यह मंदिर का प्रवेश शुल्क होगा । जब हमने टिकट ले लिया तो उसने इशारा किया कि हमें ऊपर जाना है । हालांकि हमारी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी , फिर भी जाना ही पड़ा । हमने सोचा कि शायद कोई दर्शन होगा । बहरहाल , सीढ़ियाँ चढ़कर प्रथमतल पर गए तो वहां एक हाल सा था जिसमें कुछ चित्र लगे हुए थे। प्रकाश की कोई व्यवस्था नहीं थी, सीलन भरी पड़ी थी और एक तरफ चमगादड़ों का विशाल साम्राज्य था - कुछ उल्टे लटके थे तो कुछ हमारे जाने से विक्षोभित हो गए थे और अपना गुस्सा प्रकट कर रहे थे। अब इसके ऊपर जाना हमने उचित नहीं समझा और नीचे आ गए। इस दरवाजे को पार कर हम आगे निकले और दर्शन की पंक्ति में लग गए। यहां हमें मालूम हुआ कि जिस प्रथम माले से हम वापस आए थे, उसके

शुभकामनाएँ

इयत्ता के सभी सहयोगी बंधुओं एवं संवेदनशील पाठकों को ज्योति पर्व दीपावली की मंगल कामनाएँ ! हरिशंकर राढ़ी

आस का दीया [दीवाली की शुभ कामनाएं]

सूनी हर गली पर एक आस का दीया, नयनों की एक झलक से तुम ने जला दिया । मन की यह अमावस उजाली हो गई, परम उज्जवल पर्व सी दीवाली हो गई । सूखे इस ठूंठ को आतिश बना दिया । ० राकेश 'सोहम'

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विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

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आइए, हम हिंदीजन तमिल सीखें