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Showing posts from October, 2009

पोंगापंथ अप टु कन्याकुमारी -4

तिरुअनन्तपुरम में अब कुछ खास नहीं बचा था इसलिए हमने सोचा कि हमें अब आगे चल देना चाहिए। दिल्ली में बैठे- बैठे हमने जो योजना बनाई थी उसके मुताबिक हम तिरुअनन्त पुरम में एक रात रुकने वाले थे। इसी योजना के अनुसार हमने 23 सितम्बर के लिए मदुराई पैसेन्जर में सीटें आरक्षित करवा ली थीं। यहां का सारा आवश्यक भ्रमण पूरा हो गया था और अब वहां केवल वे ही स्थान थे जो यूं ही समय बिताने के लिए देखे जा सकते थे, हमें काफी कुछ घूमना था इसलिए निर्णय लिया कि अगले दिन का आरक्षण निरस्त करवा कर आज ही इसी गाड़ी से मदुराई चल दें। वहां की गाड़ियों में भीड़ कम होती है और कोई खास परेशानी होने वाली नहीं थी। स्वामी पद्मनाभ मंदिर से लौटकर सर्वप्रथम हमने आरक्षण निरस्त कराया । त्रिवेन्द्रम स्टेशन का आरक्षण कार्यालय हमें दिल्ली के सभी आरक्षण कार्यालयों से अच्छा और सुव्यवस्थ्ति लगा। स्वचालित मशीन से टोकन लीजिए और अपनी बारी की प्रतीक्षा कीजिए, लाइन में लगने की कोई आवश्यकता ही नही। एक डिस्प्ले बोर्ड पर आपका नंबर आ जाएगा और आपका काउंटर नंबर भी प्रर्दशित हो जाएगा। ऐसी व्यवस्था तो राजधानी दिल्ली में भी नहीं है जहां कि भारत सरकार

साहित्य की चोरी

[] राकेश 'सोहम' विगत दिनों मेरे साहित्य की चोरी हो गई । आप सोच रहे होंगे, साहित्य की चोरी क्यों ? साहित्यिक चोरी क्यों नहीं ? साहित्य और सहित्यकारों के बीच साहित्यिक चोरियां देखी और सुनी जातीं हैं । एक साहित्यकार दूसरे साहित्यकार की रचना चुराकर छपवा देते हैं । मंच के कवि दूसरे कवियों की रचनाएं पढ़कर वाह-वाही लूटते हैं । आजकल साहित्यिक मंचों पर सर फुटौवल, टांग - खिंचौवल और साहित्यिक चोरियां फैशन में हैं । मैं अपनी इस चोरी को साहित्यिक चोरी इसलिए नहीं कह सकता क्योंकि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था । वैसे मेरे जैसे टटपूंजिया साहित्य सेवी की रचनाएं चुराकर कोई करेगा भी क्या ? यदि छोटे साहित्यकार की रचना चोरी हो जाए तो वह ऊँचा साहित्यकार हो जाता है । ये बात अलग है की छोटे साहित्यकार अपनी श्रेष्ठ रचनाएं बड़े साहित्यकारों के नाम से छपवाकर संतोष कर लेते हैं । जी हाँ, मैं कह रहा था की मेरे साहित्य की चोरी हो गई । मुझे अपनें कार्यालय से फायलों को ढोनें हेतु एक ब्रीफकेस मिला था । जिसका प्रयोग हम अपने साहित्य को घर से कार्यालय और कार्यालय से घर लाने-लेजानें में करते थे । हम जो भी रचनाएं लिखत

पोंगा पंथ अप टु कन्याकुमारी -3

दिये में तेल डालने का शुल्क देकर हम आगे निकले ही थे कि एक दूसरे कार्यकर्ता ने हमें रोका । उसके पास रसीदों की गड्डी थी । उसकी आज्ञानुसार हमें प्रति व्यक्ति पांच रुपये का टिकट लेना था । सामने एक बोर्ड पर क्षेत्रीय भाषा में पता नहीं क्या - क्या लिखा था जिसे वह हमें बार- बार दिखा रहा था । उसमें हम जो पढ़ सकते थे वह था अंगरेजी में लिखा हुआ - एंट्री-५/- । हमें लगा कि शायद यह मंदिर का प्रवेश शुल्क होगा । जब हमने टिकट ले लिया तो उसने इशारा किया कि हमें ऊपर जाना है । हालांकि हमारी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी , फिर भी जाना ही पड़ा । हमने सोचा कि शायद कोई दर्शन होगा । बहरहाल , सीढ़ियाँ चढ़कर प्रथमतल पर गए तो वहां एक हाल सा था जिसमें कुछ चित्र लगे हुए थे। प्रकाश की कोई व्यवस्था नहीं थी, सीलन भरी पड़ी थी और एक तरफ चमगादड़ों का विशाल साम्राज्य था - कुछ उल्टे लटके थे तो कुछ हमारे जाने से विक्षोभित हो गए थे और अपना गुस्सा प्रकट कर रहे थे। अब इसके ऊपर जाना हमने उचित नहीं समझा और नीचे आ गए। इस दरवाजे को पार कर हम आगे निकले और दर्शन की पंक्ति में लग गए। यहां हमें मालूम हुआ कि जिस प्रथम माले से हम वापस आए थे, उसके

शुभकामनाएँ

इयत्ता के सभी सहयोगी बंधुओं एवं संवेदनशील पाठकों को ज्योति पर्व दीपावली की मंगल कामनाएँ ! हरिशंकर राढ़ी

आस का दीया [दीवाली की शुभ कामनाएं]

सूनी हर गली पर एक आस का दीया, नयनों की एक झलक से तुम ने जला दिया । मन की यह अमावस उजाली हो गई, परम उज्जवल पर्व सी दीवाली हो गई । सूखे इस ठूंठ को आतिश बना दिया । ० राकेश 'सोहम'

पोंगापंथ अप टु कन्याकुमारी -2

मैंने अपनी यह यात्रा हज़रत निज़ामुद्दीन से चलने वाली हज़रत निज़ामुद्दीन – त्रिवेन्द्रम राजधानी एक्सप्रेस (ट्रेन नं.2432) से शुरू की थी. इस गाडी को त्रिवेन्द्रम पहुंचने में पूरे सैंतालीस घंटे लगते हैं और यह कोंकण रेलवे के रोमांचक और मनमोहक प्राकृतिक दृष्यों से होकर गुजरती है. केरल प्राकृतिक रूप से बहुत ही समृद्ध है और केरल में प्रवेश करते ही मन आनन्दित हो गया. यात्रा लंबी अवश्य थी किंतु अच्छी थी –अनदेखी जगहें देखने की उत्कंठा थी अतः महसूस नहीं हुआ. मेरे साथ मेरे एक मित्र का परिवार था. पति- पत्नी और दो बच्चे उनके भी. बच्चे समवयस्क ,उन्होंने अपना ग्रुप बना लिया. त्रिवेन्द्रम अर्थात तिरुअनंतपुरम केरल की राजधानी है. यहां कुछ स्थान बहुत ही रमणीय और दर्शनीय है. मैंने जो जानकारी इकट्ठा की थी, उसके अनुसार त्रिवेन्द्रम में दो जगहें हमें प्राथमिकता के तौर पर देखनी थीं.प्रथम वरीयता पर था स्वामी पद्मनाथ मंदिर और दूसरे पर कोवलम बीच. अधिकांश मन्दिरों के साथ दिक्कत उनकी समयबद्धता से है . दक्षिण भारत के मंदिर एक निश्चित समय पर और निश्चित समयावधि के लिए खुलते हैं. गोया सरकारी दफ्तर हों और भगवान के भी पब्ल

पोंगापंथ अप टू कन्याकुमारी

अभी पहली तारीख को दक्षिण भारत का एक लम्बा भ्रमण करके आया हूँ. त्रिवेन्द्रम, मदुरै, कोडाइकैनाल,रामेश्वरम और कन्याकुमारी तक फैले भारत की समृद्ध प्रकृति को देखा और महसूस किया. कितना अच्छा है अपना देश, शायद बयान नहीं कर सकता . यात्रा का वर्णन तो विस्तार में और बाद में करूँगा लेकिन पहले जो बातें बहुत चुभीं , उन्हें कहे बिना रहा नहीं जाता. अस्तु , आपसे क्षमा याचना करते हुए पहले कटु अनुभव ही! दक्षिण भारत अपने विशाल और वैभवशाली मंदिरों के लिए विश्वविख्यात है। त्रिवेन्द्रम का श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर भी अपने वास्तु और धार्मिक महत्व के लिये अत्यंत प्रसिद्ध है।परंतु हिन्दू धर्म की पोंगापंथी यहीं से शुरू हो जाती है. पहली विडम्बना कि यह मंदिर हिन्दू मात्र के लिए(ही) खुला है जबकि इसका कोई निर्धारण नहीं किया जाता कि दर्शनार्थी कौन है! चलिए , यह अच्छी बात है किंतु क़्या ईश्वर का द्वार केवल धर्म विशेष के लिये ही खुला होना चाहिए ? आगे देखिए, मंदिर में प्रवेश के लिए ड्रेस कोड भी है- पुरुष केवल धोती में, सिर्फ धोती में ही अन्दर जा सकता है. उसे पैंट-शर्ट तो क्या बनियान तक उतारनी पडती है. बैग , मोबाइल , जूत

उस रात !!!!

राकेश 'सोहम' वर्ष 1980 । मुझे ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग में दाखिला मिला था । होस्टल भर चुका था । फ़िर वार्डन से बार-बार अनुग्रह करने पर बताया गया की एक कमरा अब भी खाली है, लेकिन वह पूरा कबाड़खाना है और साफ़-सफाई कराना पड़ेगी । पिताजी ने सहमति देते हुए कहा - 'चलेगा । शहर से कॉलेज दूर पड़ेगा इसलिए हॉस्टल में रहना ज्यादा ठीक है । ' में हॉस्टल में रहने लगा । बाद में रूम-पार्टनर मोहन भी साथ रहने लगा । लगभग महीने भर होने को था । तभी एक दिन - मेस के खानसामा ने खाने के दौरान राज खोलते हुए मुझसे पूछा, 'और कैसा लग रहा है हॉस्टल में ?' 'बहुत मज़ा आ रहा है ..बस मस्ती', ज़वाब मेरे रूम-पार्टनर ने दिया । मैंने हाँ में सर हिलाया । 'चलो अच्छा है वरना उस रूम में कोई रहता नहीं था । दो साल से बंद था । उसमें दो वर्ष पूर्व एक स्टुडेंट ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी ।' यह सुनकर कुछ देर के लिए हम दोनों स्तब्ध रह गए । चूंकि हम लोग उस रूम में महीने भर आराम से रहकर गुजार चुके थे इसलिए फ़िर बेफ़िक्र हो गए । उस दिन मोहन हफ्ते भर का कहकर घर जाने के लिए निकला था लेकिन फ़िर ती

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