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प्रेम नाम होता बंधु!

सागर तोमर नहीं सभी की क़िस्मत में   है प्रेम लिखा होता बंधु   हर एक आदमी तो अपना   यूँ चैन नहीं खोता बंधु।   जो चले दर्प को आग लगा   पार वही पा जाता है   प्रेम-द्वार सबके हेतु   नहीं खुला होता बंधु।   रहे एक आसक्ति इसमें   कहीं विरक्ति भी लेकिन   यही तो इसकी रंगत है   जो ' प्रेम ' नाम होता बंधु !  कभी तो मिलना , कहीं बिछड़ना   इसके धंधे हैं अजीब   इसी मिलन-बिछड़न में जीवन   शहर-गाम होता बंधु।   प्रेम-लगन का हासिल क्या  ?  कुछ रातों के जगराते   लेकिन इक उपलब्धि जैसे   चार धाम होता बंधु।   हर कण इसका है अनमोल   कोई ख़रीद नहीं सकता   फिर भी दुनिया के बाज़ार   एक दाम होता बंधु।   इसे चाहिए पूर समर्पण   हर पल इसको दे दो बस   इसका एक तगादा अपना   आठ याम होता बंधु।   सब गतियों की एक गति   सब रस्तों का एक धाम   एक संचरण इसका हर पल   दखन-वाम होता बंधु।   हो कोई ' सागर ' या ' कमल '  डुबना-खिलना सब इसमें ही   ...

झरने की हर झरती झलकी!

गोपाल बघेल मधु झरने की हर झरती झलकी , पुलकी ललकी चहकी किलकी ; थिरकी महकी कबहुक छलकी , क्षणिका की कूक सुनी कुहकी!   कब रुक पायी कब देख सकी , रुख़ दुख सुख अपना भाँप सकी ; बहती आई दरिया धायी , बन दृश्य विवश धरिणी भायी!   कब पात्र बनी किसकी करनी , झकझोर बहाया कौन किया ; कारण था कौन क्रिया किसकी , सरका चुपके मग कौन दिया!   प्रतिपादन आयोजन किसका ,  क्या सूत्रधार स्वर सूक्ष्म दिया ; हर घट बैठा घूँघट झाँका ,  चौखट टक टक देखा बाँका!   चैतन्य चकोरी किलकारी ,  कैवल्य ललित लय सुर धारी ; क्या बैठा था हर ‘ मधु ’ पलकी , क्या वही नचाया दे ठुमकी!  

बाज़ार

मुमताज़ अज़ीज़ ना ज़ाँ यहाँ हर चीज़ बिकती है कहो क्या क्या ख़रीदोगे यहाँ   पर मंसब-ओ-मेराज की   बिकती हैं ज़ंजीरें अना को काट देती हैं   ग़ुरूर-ओ-ज़र की शमशीरें यहाँ   बिकता है तख़्त-ओ-ताज बिकता है   मुक़द्दर भी ये वो बाज़ार है बिक जाते हैं इस में सिकंदर भी यहाँ बिकती है ख़ामोशी भी ,  लफ़्फ़ाज़ी भी बिकती है ज़मीर-ए-बेनवा की हाँ   अना साज़ी भी बिकती है दुकानें हैं सजी देखो यहाँ पर हिर्स-ओ-हसरत की हर इक शै मिलती है हर क़िस्म की ,  हर एक क़ीमत की यहाँ ऐज़ाज़ बिकता है ,  यहाँ हर राज़ बिकता है यहाँ पर हुस्न बिकता है ,  अदा-ओ-नाज़ बिकता है सुख़न बिकता है ,  बिक जाती है शायर की ज़रुरत भी यहाँ बिकती है फ़नकारी ,  यहाँ बिकती है शोहरत भी यहाँ पर ख़ून-ए-नाहक़ बिकता है ,  बिकती हैं लाशें भी यहाँ बिकती हैं तन मन पर पड़ी ताज़ा खराशें भी यहाँ नीलाम हो जाती है बेवाओं की मजबूरी यहाँ बीनाई बिकती है ,  यहाँ बिकती है माज़ूरी लहू बिकता है ,  बिकते हैं यहाँ अ ’ अज़ा-ए-इंसानी यहाँ   बिकते हैं दो दो पैसों में जज़्बात-ए-निस्वानी मोहब्बत ,  जज्बा-ओ-हसरत ...

सवाल

  मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ एक बेटी ने ये रो कर कोख से दी है सदा मैं भी इक इंसान हूँ ,  मेरा भी हामी है ख़ुदा कब तलक निस्वानियत का कोख में होगा क़िताल बिन्त ए हव्वा पूछती है आज तुम से इक सवाल   जब भी माँ की कोख में होता है दूजी माँ का क़त्ल आदमीयत काँप उठती है ,  लरज़ जाता है अद्ल देखती हूँ रोज़ क़ुदरत के ये घर उजड़े हुए ये अजन्मे जिस्म ,  ख़ाक ओ ख़ून में लिथड़े हुए   देख कर ये सिलसिला बेचैन हूँ ,  रंजूर हूँ और फिर ये सोचने के वास्ते मजबूर हूँ काँप उठता है जिगर इंसान के अंजाम पर आदमीयत की हैं लाशें बेटियों के नाम पर   कौन वो बदबख़्त हैं ,  इन्साँ हैं या हैवान हैं मारते हैं माओं को ,  बदकार हैं ,  शैतान हैं कोख में ही क़त्ल का ये हुक्म किसने दे दिया जो अभी जन्मी नहीं थी ,  जुर्म क्या उसने किया   मर्द की ख़ातिर सदा क़ुर्बानियाँ देती रही माँ है आदमज़ाद की ,  क्या जुर्म है उसका यही ? वो अज़ल से प्यार की ममता की इक तस्वीर है पासदार ए आदमीयत ,  ख़ल्क़ की तौक़ीर है   ये व...

सागर कमल की पाँच कविताएँ

पेशे से शिक्षक सागर कमल मेरठ जिले के बाफर गाँव के रहने वाले हैं. एक सहज, संवेदनशील और उत्साही युवा सागर तोमर (मूल नाम) के लिए खेती-किसानी सिर्फ नारा नहीं है. किसान परिवार में जन्मे सागर आज भी गाँव में रहते हैं और गाँव के ही संस्कारों में रचे-बसे हैं. वह गाँव आपको सागर की कविताओं में मूल संवेदना के रूप में सहज भाव से बहता हुआ दिखेगा. फिलहाल उनकी पाँच कविताएँ:  क्योंकि मैं सूर्य हूँ मैं उगता हूँ मैं चढ़ता हूँ मैं जल-जलकर चमकता हूँ डूबना भी मुझी को पड़ता है क्योंकि मैं सूर्य हूँ ! मैंने भोगी है परिवर्तन की अनंत ज्वलंत यात्रा यही जलता हुआ परिवर्तन मेरी पूँजी है इस पूँजी का समान वितरण करना मुझी को पड़ता है क्योंकि मैं सूर्य हूँ   !   मैं ही तो हूँ सृष्टि का मूलाधार मेरे बिना तुम्हारे कल्प-विकल्प क्या हैं ? तुम्हारी सर्द विचारों से भरी दुनिया को भावों का ताप , देना मुझी को पड़ता है क्योंकि मैं सूर्य हूँ   !           आशा और निराशा   आशा ! एक अतिक्षीण डोरी-सी कभी तो अदृश्य जिस पर हम जीवन के मह...

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