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Showing posts from February, 2013

ग़ज़ल

इष्ट देव सांकृत्यायन सरकार राजधानी में है, कोई लापता नहीं है कहीं कुछ भी हो, सवाल उसकी नाक का नहीं है वो जमता है कि गलता है अपनी मर्जी से बर्फ़ से अब कोई रिश्ता ताप का नहीं है तुमने बनाया मैं पहन लूं, ऐसा क्या क़ानून दुनिया का हर कुर्ता मेरी नाप का नहीं है बुलुआ के घर में सब टेढ़े, कुछ साजिश है ये मामला किसी औघड़ के शाप का नहीं है ललिया पर पत्थर बरसे, तुमने फेरी पीठ लोकतंत्र में यह निर्णय केवल खाप का नहीं है धूप-हवा-पानी पर सबका हक़ है भाई इतना बड़ा आसमान अकेले आप का नहीं है जबसे रेल चलने लगी बिजली से मारती है झटका सुनते हैं, अब कहीं कोई इंजन भाप का नहीं है.

लड़की पटेगी

इष्ट देव  सांकृत्याय न  भारत के बारे में जितने निष्कर्ष हम जानते हैं और जितने निष्कर्षों पर जी-जान से भरोसा करते हैं , वे सारे किसी न किसी विदेशी मूल के आदमी के निकाले हुए हैं। मामला चाहे संस्कृत के वैज्ञानिक भाषा होने का हो , या फिर योगा के फ़ायदे का। योगा जब तक योग था तब तक हम उस पर क़तई यक़ीन नहीं करते थे। अव्वल तो असली भारतीय आज भी उस पर यक़ीन नहीं करते। अंग्रेजी पद्धति के इलाज में सच्चे भारतीयों का पूरा भरोसा है। वे क़ब्ज़ से मुक्ति पाने के लिए ईसीजी और बुख़ार के लिए अल्ट्रासाउंड कराना और उससे ठीक होने की उम्मीद में लाखों रुपये ख़र्च करते जाना पसंद करते हैं , लेकिन आसन-प्राणायाम की जहमत उठाना उन्हें अपनी तौहीन लगती है। ठीक भी है। जिस काम पर कोई ख़र्चा ही न हो , उससे अपना स्टेटस तो गिरता ही है। वैसे   ख़र्चे से स्टेटस नापने की परंपरा हमारे यहां बहुत पुरानी है , लेकिन यह खोज भी अल्ट्राव्हाइट रेवोल्यूशन यानी उदारीकरण के बाद आई विदेशी कंपनियों के एमबीए डिग्री होल्डर मार्केट रिसर्चरों ने की। हमारे पास कोई चारा नहीं है सिवा इसके कि हम उस पर य $ कीन करें , क्योंकि वह किसी भारतीय

Teesari Punyatithi

तीसरी पुण्यतिथि                               - हरिशंकर  राढ़ी और आज मां की तीसरी पुण्यतिथि आ गई। धीरे-धीरे तीन साल का समय निकल गया । इधर व्यस्तताओं के चलते ब्लाग  पर आना जाना भी काफी कम हो गया और ब्लॉग  के मित्रों से संवाद भी बहुत कम हो गया। यह बात अलग है कि  ब्लॉग पर आने का मन बहुत होता है। यहां की आजादी याद आती है। पिछली दोनों  पुण्यतिथियों पर अपनी पीड़ा और अपनी भावनाओं को  ब्लॉग पर उंडे़ल गया था। इस बीच एक साल और निकल गया और आज फिर वह दिन आ गया कि मां को याद करूं, यह महसूस करूं कि मां अब नहीं रही और जिंदगी मां के बिना ही चल रही है। इसमें दो राय नहीं कि समय के मरहम ने अपना काम किया है और धीरे-धीरे दर्द की तीव्रता में कमी आ रही है। लेकिन यह भी सच नहीं है कि समय का मरहम पूरी तरह प्रभावी हो गया है। हो भी नहीं सकता क्योंकि कुछ क्षतियां अपूरणीय होती हैं और वह क्षति जो किसी के अस्तित्व से जुड़ी हो या अस्तित्व ही जिससे हो उसे तो कोई भी भर नहीं सकता। समय बलवान होता है लेकिन इतना बलवान भी नहीं होता कि आत्मीयता और आत्मा के रिश्ते तोड़ सके। एक तो यही अंतर्द्वंद्व  चलता रहा है कि क्या

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