Teesari Punyatithi
तीसरी पुण्यतिथि
- हरिशंकर राढ़ी
और आज मां की तीसरी पुण्यतिथि आ गई। धीरे-धीरे तीन साल का समय निकल गया । इधर व्यस्तताओं के चलते ब्लाग पर आना जाना भी काफी कम हो गया और ब्लॉग के मित्रों से संवाद भी बहुत कम हो गया। यह बात अलग है कि ब्लॉग पर आने का मन बहुत होता है। यहां की आजादी याद आती है।
पिछली दोनों पुण्यतिथियों पर अपनी पीड़ा और अपनी भावनाओं को ब्लॉग पर उंडे़ल गया था। इस बीच एक साल और निकल गया और आज फिर वह दिन आ गया कि मां को याद करूं, यह महसूस करूं कि मां अब नहीं रही और जिंदगी मां के बिना ही चल रही है। इसमें दो राय नहीं कि समय के मरहम ने अपना काम किया है और धीरे-धीरे दर्द की तीव्रता में कमी आ रही है। लेकिन यह भी सच नहीं है कि समय का मरहम पूरी तरह प्रभावी हो गया है। हो भी नहीं सकता क्योंकि कुछ क्षतियां अपूरणीय होती हैं और वह क्षति जो किसी के अस्तित्व से जुड़ी हो या अस्तित्व ही जिससे हो उसे तो कोई भी भर नहीं सकता। समय बलवान होता है लेकिन इतना बलवान भी नहीं होता कि आत्मीयता और आत्मा के रिश्ते तोड़ सके।
एक तो यही अंतर्द्वंद्व चलता रहा है कि क्या मैं अपने आप को अलगाव के दुख से बचाने के लिए मां को भूलना चाहता हूं या चाहता हूं कि याद रखूं? क्या कभी-कभी मेरे मन के किसी कोने में इस प्रकार का भाव आता है कि समय का मरहम उस घाव को भर दे जो तीन साल पहले लगा था और जो हर व्यक्ति के जीवन में कभी-न-कभी लगता है? क्या उनकी यादों को संजोने से कोई लाभ है या फिर स्वयं को अनावश्यक रूप से जलाने का एक तरीका है? बहुत सोचा, पर ऐसा लगा नहीं। मैं उन्हें याद करके कभी अपने आप को कमजोर महसूस नहीं किया। बार-बार यही लगा कि मुझे अभी भी मां से बहुत कुछ मिलता है और शायद पूरे जीवन मिलता रहा। यह सबके साथ होता होगा। मैं यदि शत -प्रतिशत आज्ञाकारी नहीं था तो बहुत अवज्ञाकारी भी नहीं था। उनकी बातों को मानता था, लेकिन कई बार लगता था कि मेरी सोच उनसे अच्छी है। उनके शब्दों में मुझे उतना अर्थबोध तब नहीं लगता था। हां, कई बातें मैं बिना तर्क के मान लेता था (यद्यपि वे मेरे तर्क की कसौटी पर खरी नहीं होती थीं।) मेरा मानना है कि रिश्तों में हर बात तर्क की कसौटी पर कसी नहीं जानी चाहिए। उनके बाद मैंने महसूस किया कि उनके हर शब्द पूरे वजन के साथ होते थे और उनमें अर्थ कूट-कूटकर भरे होते थे। अब वे दिन, वे बातें नहीं रहीं। बस रह गई हैं तो केवल स्मृतियां और एक अज्ञात सी प्रेरणा, जैसे किसी अंधेरी सुरंग से आती हुई रोशनी की एक किरण !
और हां, इस अवसर पर अंतिम विदा के मंजर याद कैसे नहीं आएंगे? वे तो आंएगे ही। पूरा दृश्य चलचित्र की भांति बार-बार आंखों के सामने घूम रहा है- बिलकुल वैसे ही जैसे किसी घटना की रिकार्डिंग को ए-बी के बीच सेट करके समाचार चैनल वाले दिखाते रहते हैं। और मैं....., मैं भी इस चलचित्र से बाहर नहीं आना चाहता । आज तो बिलकुल ही नहीं !
- हरिशंकर राढ़ी
और आज मां की तीसरी पुण्यतिथि आ गई। धीरे-धीरे तीन साल का समय निकल गया । इधर व्यस्तताओं के चलते ब्लाग पर आना जाना भी काफी कम हो गया और ब्लॉग के मित्रों से संवाद भी बहुत कम हो गया। यह बात अलग है कि ब्लॉग पर आने का मन बहुत होता है। यहां की आजादी याद आती है।
पिछली दोनों पुण्यतिथियों पर अपनी पीड़ा और अपनी भावनाओं को ब्लॉग पर उंडे़ल गया था। इस बीच एक साल और निकल गया और आज फिर वह दिन आ गया कि मां को याद करूं, यह महसूस करूं कि मां अब नहीं रही और जिंदगी मां के बिना ही चल रही है। इसमें दो राय नहीं कि समय के मरहम ने अपना काम किया है और धीरे-धीरे दर्द की तीव्रता में कमी आ रही है। लेकिन यह भी सच नहीं है कि समय का मरहम पूरी तरह प्रभावी हो गया है। हो भी नहीं सकता क्योंकि कुछ क्षतियां अपूरणीय होती हैं और वह क्षति जो किसी के अस्तित्व से जुड़ी हो या अस्तित्व ही जिससे हो उसे तो कोई भी भर नहीं सकता। समय बलवान होता है लेकिन इतना बलवान भी नहीं होता कि आत्मीयता और आत्मा के रिश्ते तोड़ सके।
एक तो यही अंतर्द्वंद्व चलता रहा है कि क्या मैं अपने आप को अलगाव के दुख से बचाने के लिए मां को भूलना चाहता हूं या चाहता हूं कि याद रखूं? क्या कभी-कभी मेरे मन के किसी कोने में इस प्रकार का भाव आता है कि समय का मरहम उस घाव को भर दे जो तीन साल पहले लगा था और जो हर व्यक्ति के जीवन में कभी-न-कभी लगता है? क्या उनकी यादों को संजोने से कोई लाभ है या फिर स्वयं को अनावश्यक रूप से जलाने का एक तरीका है? बहुत सोचा, पर ऐसा लगा नहीं। मैं उन्हें याद करके कभी अपने आप को कमजोर महसूस नहीं किया। बार-बार यही लगा कि मुझे अभी भी मां से बहुत कुछ मिलता है और शायद पूरे जीवन मिलता रहा। यह सबके साथ होता होगा। मैं यदि शत -प्रतिशत आज्ञाकारी नहीं था तो बहुत अवज्ञाकारी भी नहीं था। उनकी बातों को मानता था, लेकिन कई बार लगता था कि मेरी सोच उनसे अच्छी है। उनके शब्दों में मुझे उतना अर्थबोध तब नहीं लगता था। हां, कई बातें मैं बिना तर्क के मान लेता था (यद्यपि वे मेरे तर्क की कसौटी पर खरी नहीं होती थीं।) मेरा मानना है कि रिश्तों में हर बात तर्क की कसौटी पर कसी नहीं जानी चाहिए। उनके बाद मैंने महसूस किया कि उनके हर शब्द पूरे वजन के साथ होते थे और उनमें अर्थ कूट-कूटकर भरे होते थे। अब वे दिन, वे बातें नहीं रहीं। बस रह गई हैं तो केवल स्मृतियां और एक अज्ञात सी प्रेरणा, जैसे किसी अंधेरी सुरंग से आती हुई रोशनी की एक किरण !
और हां, इस अवसर पर अंतिम विदा के मंजर याद कैसे नहीं आएंगे? वे तो आंएगे ही। पूरा दृश्य चलचित्र की भांति बार-बार आंखों के सामने घूम रहा है- बिलकुल वैसे ही जैसे किसी घटना की रिकार्डिंग को ए-बी के बीच सेट करके समाचार चैनल वाले दिखाते रहते हैं। और मैं....., मैं भी इस चलचित्र से बाहर नहीं आना चाहता । आज तो बिलकुल ही नहीं !
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सुस्वागतम!!