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एलोरा: जहां पत्थर बोलते हैं

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-हरिशंकर राढ़ी  गुफा पर नक्काशी                             छाया : हरिशंकर राढ़ी  घृष्णेश्वर  के बाद हमारे आकर्षण  का केंद्र एलोरा की गुफाएं थीं। अजंता - एलोरा की गुफाएं एक तिलिस्म के रूप में मन में किशोरावस्था से ही स्थापित थीं। उनके  विषय  में छठी से आठवीं कक्षा के दौरान हिंदी की पाठ्यपुस्तक में पढ़ा था। तब पाठ्यक्रम में बड़ी उपयोगी बातें शामिल  की जाती थीं और पाठ्यक्रम का संशोधन  कम होता था। भारत और दुनिया के तमाम पर्यटन एवं धर्मस्थलों की जानकारी दी गई होती। बच्चे इसमें रुचि दिखाते थे। शायद  अतिबुद्धिजीवी लोगों की पैठ पाठ्यक्रम में नहीं रही होगी और मनोविज्ञान तथा आधुनिकता के नाम पर उबासी लाने वाली विषयवस्तु कम से कम छात्रों को ढरकी (बांस की एक छोटी नलकी जिससे पशुओं को बलपूर्वक दवा पिलाई जाती है, पूर्वी उत्तर प्रदेश  में इसे ढरकी कहा जाता है।) के रूप में नहीं दी जाती थी। कंबोडिया के अंकोरवाट तक के  मंदिरों का यात्रावृत्त उस समय के छात्र ऐसी ही पुस्तकों में पढ़ते थे। उसी समय मेरे किशोर  मन में देश -दुनिया घूमने - देखने की अभिलाषा  पैदा हुई थी जो अब कार्यरूप में परिणित हो रही

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