आप क्या तय कर रहे हैं?
बिहार चुनाव के नतीजों ने पूरी भारतीय राजनीति को झकझोर दिया है. जाति-धर्म-क्षेत्र जैसे झूठे मुद्दों पर बन्दर की तरह नाचने वाले देसी मतदाताओं ने इन छलावों को मेटहे में बन्द कर लोकतंत्र की बहती नदी की तीव्र धारा के हवाले कर दिया है. बबुआ का जादू भी नहीं चला. स्विस बैंक के खुलासे सामने हैं और आम भारतीय उनमें रुचि ले रहा है. ग़ौर करने की ज़रूरत है, यह लगभग वैसा ही दौर है, जैसा राजीव गान्धी के दौर में हुआ था. आम आदमी का ध्यान पहली बार ख़ास लोगों के काले कारनामों की ओर गया था और जिसने झूठमूठ मुद्दा बना कर जनता को बहकाया था उसी ने मदारी के झोले से मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों का ख़तरनाक सांप निकाल दिया था. कांग्रेस को छात्र नेताओं के जरिये अपनी राजनीति चमकाने का मौक़ा मिल गया और उसने तुरंत पिछले दरवाज़े से छात्र नेताओं को हवा देकर आत्मदाहों का दौर चलवा दिया. पूरे देश में लगभग ख़त्म हो चुका जातिवाद नए सिरे से स्थापित हो गया. यह न तो अकेले कांग्रेस की चाल थी, न वीपी सिंह की और न भाजपा की. वस्तुतः यह इन सबकी मिली-जुली चाल थी. इस बात पर व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में सोचने की ज़रूरत है. हम फिर एक कठिन दौर