इन दरिंदों के रहते...


चेन्नै में कुल 18 दरिंदे 11 साल की एक बच्ची का सात माह तक यौन शोषण करते रहे. अभी यह बात आरोप के स्तर पर है. जाँच चल रही है, लेकिन अभी आरंभिक स्तर पर है. बात की किसी तरह पुष्टि नहीं हो पाई है. इसकी ख़बरें प्रायः सभी अख़बारों में हैं, लेकिन मेडिकल परीक्षण की बात कहीं नहीं है. जाहिर है, उसकी रिपोर्ट का अभी इंतज़ार होगा.

आक्रोश से भरा मन भी कहता है कि काश यह सच न हो. लेकिन अगर हुआ तो? और ज़्यादा आशंका इसी बात की है कि आरोप सच होगा. कोई क्यों ऐसे आरोप लगाएगा?  
आरोपियों में सब उसी अपार्टमेंट के लिफ्ट ऑपरेटर, सिक्योरिटी गार्ड, वॉटर सप्लायर आदि थे. मान लीजिए अगर ये भीड़ के हत्थे चढ़ जाते तो? किसी हद तक हो सकता है कि आरोप ग़लत ही हो. फिर भी कल्पना करिए अगर ये भीड़ के हत्थे चढ़ जाते तो क्या होता?

कुछ लोग रेप और मॉब लिंचिंग जैसी जघन्य घटनाओं को भी जाति-धर्म के नज़रिये से ही देखते हैं. किसी जाति या संप्रदाय विशेष का व्यक्ति किसी दुर्घटना का शिकार हुआ तो उनकी संवेदना की बाँछें खिल जाती हैं. उन्हें उसमें अपने आकाओं का वोट बैंक जो दिखने लगता है. लेकिन अगर उसके विपरीत हुआ, यानी उसी जाति या संप्रदाय का व्यक्ति शिकारी की भूमिका में नज़र आया तो उनका टोन डाउन हो जाता है. उनकी संवेदना की घिग्घी बँध जाती है.

आपको क्या लगता है? उस जाति या संप्रदाय के हितैषी हैं? कैसे सोच लेते हैं आप ऐसे? कहाँ से लाते हैं इतना भोलापन? जिस जाति या संप्रदाय की भलाई और जिसके हकूक की लड़ाई का बीड़ा उठाए वे दिखते हैं उससे उनको उतना ही प्यार होता है जितना एक शिकारी को शिकार से होता है. और इसीलिए वे कभी मुकम्मल मनुष्यता के साथ नहीं, उसे कई खाँचों में बाँटकर उन खाँचों के साथ खड़े दिखाई देते हैं.

वास्तव में वे किसी सत्ता या ताक़त के ख़िलाफ़ भी नहीं होते. उनकी कुल मुख़ालफ़त केवल उस व्यक्ति या झुंड के प्रति होती है जो संसाधनों पर काबिज होता है. बस संसाधनों पर उन्हें क़ब्ज़ा मिल जाए, सारा विरोध ख़त्म. अगर यह क़ब्ज़ा हाथ मिलाकर मिले तो उन्हें हाथ मिलाते भी देर नहीं लगेगी. बीते सत्तर सालों में आप ऐसे दो हज़ार उदाहरण देख चुके हैं.

कोई भरोसा नहीं है कि जैसे ही घटना की सच्चाई साबित होने लगे, ये आरोपी दरिंदे साबित होने लगें, कुछ लोग दरिंदों के साथ भी खड़े नज़र आने लगें. आपके इतिहास में ऐसा हो चुका है. बेशक निर्भया मामले में आपका भी ग़ुस्सा कोर्ट और क़ानून पर होगा, लेकिन कोर्ट क्या करता? क़ानून का वह केवल निर्वचनकर्ता है, निर्माता नहीं. उसे बने हुए क़ानून के अनुसार ही काम करना होता है.

उम्र 18 साल में एक दिन भी कम हुई तो बलात्कार की पूरी क्षमता रखने वाला मर्द बच्चा बन जाता है. यह कोई बहुत पुराना क़ानून नहीं था. बमुश्किल दस साल पहले का बदलाव था. हमारे माननीयों ने क्या सोच कर बलात्कार में सज़ा के लिए आरोपी की उम्र 14 से बढ़ाकर 18 की थी, इसका आज तक देश को जवाब नहीं मिल पाया. उस देश को जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. बीच में ढाई साल की बात छोड़ दी जाए तो बाक़ी समय यह लोकतंत्र निर्बाध रहा है.

और हमारे पास अभी भी ऐसा क़ानून नहीं है जिसके तहत उन दरिंदों को कोई सज़ा दी जा सके जिहोंने उस दरिंदे को नाबालिग बताकर उसका पुनर्वास कराया. सच यह है कि बलात्कारी को पुरस्कार है और पुरस्कार किसी घटना का जस्टिफिकेशन होता है. सक्रिय और प्रभावी जस्टिफिकेशन. हद ये है कि वही दरिंदे अगर जाति-संप्रदाय की राजनीति करने का मौक़ा मिले तो फिर किसी बलात्कार की घटना के ख़िलाफ़ फर्जी झंडे उठाए दिखेंगे.

ये बहुरूपिये दरिंदे SHAME की तख्ती उठाए भी दिख सकते हैं. और किसी एक व्यक्ति से बात कर भारत को स्त्रियों के लिए दुनिया का सबसे असुरक्षित देश भी घोषित कर सकते हैं. इन्हें अमेरिका, इंग्लैंड, पाकिस्तान, सीरिया या और किसी भी देश के आँकड़े देखने की ज़रूरत महसूस नहीं होगी. दूसरे का हर मजबूत तर्क इनके लिए सरलीकरण और सामान्यीकरण होता है लेकिन ख़ुद मेढक की तरह कुएँ की एक बिल को पूरी दुनिया मान लेंगे. और दुनिया भर की एजंसियों के सारे आँकड़ों को अपने कुविचारों से ढक देंगे. क्योंकि इसी के लिए इन्हें मोटी रकम मिलती है. क्या इनके छुट्टा घूमते दुनिया में कहीं की कोई स्त्री सुरक्षित हो सकती है?

सच पूछिए तो चेन्नै की घटना का सच मेडिकल रिपोर्ट सामने आते ही काफ़ी हद तक पुष्ट हो जाएगा. और आशंका यही है कि पुष्ट ही होगा. लेकिन पुष्टि के बाद जिस गति से अदालती कार्यवाही होनी चाहिए, क्या वह हो पाएगी? क़ानून और उसकी प्रभावी भूमिका की आवश्यकता यहीं होती है. लेकिन क्या अदालतें अपना काम निष्पक्ष ढंग से करने पाएंगी? अगर करने पाएँ तो उन्हें कुल कितना समय लगना चाहिए और लगता कितना है? यह जो गैप है, वह क्यों है? और जहाँ इतना बड़ा गैप होगा, वहाँ मॉब लिंचिंग की कालिख कानून-व्यवस्था के माथे से कैसे मिटा देंगे?   


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