गंगा-जमुनी तहज़ीब के दुश्मन कौन?

इष्ट देव सांकृत्यायन 
कहने के लिए पद्मावती को लेकर उठा विवाद थम गया. लेकिन यह बस थमा ही है, ख़त्म नहीं हुआ. क्योंकि जो विवाद एक बार उठ जाता है, वह कभी ख़त्म नहीं होता. उसके मूलभूत तत्त्व, जो विवाद के कारण होते हैं, बिलकुल निचले तल पर जाकर कहीं बैठ जाते हैं. वे समय-समय पर नए-नए रूपों में उभरते और समाज को दूषित करते रहते हैं. विवाद के हर दौर में पक्ष-विपक्ष की ओर से तर्कों के रूप में कई ऐसी बातें आ जाती हैं जो समाज के किसी तबके के थोथे अहंकार को बढ़ाती हैं और किसी के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाती हैं. यह आशंका उस समाज में बहुत अधिक होती है जहाँ बुद्धिजीवियों के रूप में मौजूदा या पूर्ववर्ती सत्ता के वकील होते हैं. जिनका काम नीर-क्षीर विवेक के ज़रिये किसी सत्य तक पहुँचना नहीं, केवल अपने-अपने पोषकों की सत्ता या प्रभाव को जैसे-तैसे बचाए रखने के लिए थोथे तर्क गढ़ना होता है.

लोकतंत्र में सत्ता या प्रभाव का मूल स्रोत वोट होता है. वोट पाने के लिए समाज के कल्याण के लिए जो काम किए जाने की ज़रूरत है, उसका भारतीय राजनीति में शुरू से ही सर्वथा अभाव है. इसीलिए ऐसी कोई नीति नहीं बनाई जाती जिससे सबमें अपने भोजन-कपड़े-मकान के इंतज़ाम की आत्मनिर्भरता के साथ-साथ लैप्टॉप-टैब्लेट ख़रीदने की औकात आ सके. यहाँ यह सब वोट के बदले बाँटे जाने की घोषणाएँ की जाती हैं और न जाने हमारा तंत्र किस नज़रिये से देखता है कि यहाँ यह सब वोट के बदले दिए जाने वाले प्रलोभन के तौर पर नहीं देखे जाते. तंत्र की तो ख़ैर छोड़िए, इसी से यह भी पता चलता है कि हमारे ये तथाकथित बुद्धिजीवी कितनी ईमानदारी और तत्परता से अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं जो जनता में उसके अपने व्यापक स्वार्थ की सही समझ और आत्मसम्मान भी पैदा नहीं कर सके. ये केवल बंद कमरों में बैठकर देश के वास्तविक इतिहास को नकारने या एयरकंडीशंड सभागारों में देश की सीमाओं को लेकर नए-नए विवाद खड़े करने में लगे रहते हैं. इनकी ज़बान हिलते ही पता चल जाता है कि अपना देश इनके लिए केवल साधन और सुविधाप्रदाता है, जनता केवल उपयोग की वस्तु है. वस्तुतः जुड़ाव तो इनका कहीं और से है. ऐसे बुद्धिजीवी किसी भी समाज के लिए उन तत्त्वों से ज़्यादा ख़तरनाक हैं, जिन्हें अराजक कहा जाता है.

यह पूरा विवाद ऐसी ही बौद्धिक अराजकता का नतीजा है. कला और कल्पनाशीलता के नाम पर केवल अपरिमित नहीं, आपराधिक छूट इनकी ही ज़रूरत है. हिंदी सिनेमा ने अपने इतिहास में कितनी रचनात्मकता दिखाई है और किन ईमानदार लोगों की कृपा पर पला है, यह बताने की ज़रूरत नहीं है. गुण का विरोध मात्रा से करने का बीभत्स याराना पूँजीवादी तरीक़ा ही बंबइया सिनेमा उर्फ़ बॉलीवुड की पहचान है. जैसा कि अब बन गए बॉलीवुड नाम से ही ज़ाहिर है, कथ्य के स्तर पर यह केवल हॉलीवुड का उच्छिष्ठ है. लागत के स्रोत की बात करें तो यह उन्हीं ईमानदारों से आती रही है जिनके ख़िलाफ़ अस्सी-नब्बे के दशक में सबसे ज़्यादा फिल्में बनीं. वो सारी मलिन बस्तियाँ उजाड़ने में हिंदी बॉलीवुड के आश्रयदाता ही सबसे आगे रहे हैं, जिनका प्रतिनिधित्व इनकी फिल्मों का एंग्री यंग मैन ब्रांड हीरो करता रहा है. आप जानते ही हैं कि किस तरह इनका एंग्री यंग मैन परदे पर पूँजीपतियों और राजनेताओं के विरोध का स्वांग करते-करते ख़ुद पूँजीपति से लेकर मंत्री तक बन जाता है. फिल्मी कलाकारों पर अवैध असलहे रखने से लेकर पारिवारिक संबंधों  में धोखाधड़ी तक के मुकदमों की तो छोड़िए, आपने यह भी देखा है कि कैसे एक मुंबइया हीरो फुटपाथ पर सोए अमीरों के सीने पर गाड़ी चढ़ाकर दनदनाते हुए निकल जाता है. आप भूले नहीं होंगे कि कैसे दुबई या लाहौर में बैठे महान संत पर्दे के शेर को चिकना कहते हैं और उनके सामने वह दीन-हीन सा रिरियाता नज़र आता है. ऐसे ही रचनाधर्मियों के पक्ष में खड़े जनधर्मियों को जब मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और रचनात्मक छूट की झंडाबरदारी करते देखता हूँ तो घिन सी आने लगती है.

रचनात्मक छूट के नाम पर अपने को पूँजीवाद के धुर विरोधी बताने और हर बात पर अमेरिका के ख़िलाफ़ झंडा उठा लेने वाले बुद्धिजीवी भी हॉलीवुड के उद्धरण देते नहीं थकते. दुनिया जानती है कि केवल मुनाफ़ा कमाने की होड़ में लगा भारत का पूँजीपति वर्ग अपने पूरे प्रोडक्शन पर भी उतना ख़र्च नहीं करता जितना हॉलीवुड केवल रिसर्च में लगा देता है. न्यूनतम लागत में अधिकतम मुनाफ़े की इसी होड़ से इनकी ज़िम्मेदारी का पता चलता है. कल्पनाशीलता और रचनात्मक छूट के नाम पर ये किसी भी देश के इतिहास के साथ वही करेंगे जो हीरोइन बनने के सपने सँजोए मुंबई पहुँची किसी भोली-भाली क़सबाई लड़की के साथ करते हैं. कास्टिंग काउच शब्द किसी व्याख्या का मोहताज नहीं है. उसी तर्ज पर ये पहले तो एक असभ्य, कायर और धूर्त लुटेरे के सपने में एक स्वाभिमानी स्त्री को उसके साथ रोमैंस करते दिखाएंगे. उस स्त्री को जिसने उसके हाथ लगने की तुलना में अपने प्राणों की आहुति देना बेहतर समझा. जब समाज इस पर कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं करेगा या उसकी प्रतिक्रिया दबा दी जाएगी तब आगे चलकर ये उसी स्त्री को उसी लुटेरे के साथ जोड़कर कोई प्रेम कहानी ही बना देंगे.

यही नहीं, बाद में कोई ऐसा स्वनामधन्य इतिहासकार, जिसका इतिहासकार होना किसी गिरोहबाज़ी के परिणास्वरूप हुई एक ऐतिहासिक दुर्घटना होगा और जो लोक में सदियों से रची-बसी गाथाओं को कपोलकल्पना मानता होगा, इनकी फिल्मी कहानी के आधार पर एक रक्तपिपासु समलैंगिक लुटेरे को न केवल एक आदर्श प्रेमी बल्कि महान प्रजापालक लोककल्याणकारी सम्राट बना कर पेश कर देगा. ये अलग बात है कि पद्मावती क्या, मौक़ा मिले तो जायसी तक को ये काल्पनिक घोषित कर देंगे. गोएबल्स के निर्लज्ज चेले याराना पूँजीवाद के सहयोगी प्रचार तंत्र का भरपूर उपयोग करते हुए अपने गढ़े झूठ को सत्य की जगह स्थापित करने के लिए अंग्रेज़ी में किताब लिखेंगे. जुगाड़ तंत्र के बल पर भारतीय इतिहास के ज्ञान से सर्वथा वंचित और भारत को हर हाल में नीचा दिखाने को तत्पर अपने किसी विदेशी आका से पुरस्कार ले लेंगे. यहाँ की सरकारों की इच्छाशक्ति के प्रतीकस्वरूप भरे पड़े बेरोज़गारों या किसी गिरोहबाज़ की कृपा से रोज़गारशुदा बने अपने कृपाकटाक्ष के चिर आकांक्षियों से उसका भरपूर सकारात्मक और विरोधात्मक प्रचार करवा लेंगे. इस प्रचार से आक्रांत भारतीय जन का कोई वर्ग अहंकार, तो कोई कुंठा से थोड़ा और ग्रस्त हो जाएगा. इसकी मदद से वैमनस्य फैलाकर ये समाज को बाँटने में थोड़ा और आगे बढ़ जाएंगे.

पद्मावती के अस्तित्व से जो इनकार कर चुके हैं, वे एक-न-एक दिन मलिक मुहम्मद जायसी, शेख़ फ़रीद, हज़रत निज़ामुद्दीन, बुल्ले शाह और दूसरे सूफ़ियों व संतों के अस्तित्व से भी इनकार करेंगे ही. क्योंकि ये जो करना चाहते हैं, सूफी और संत उस मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हैं. वह सूफ़ी और संत ही हैं जिन्होंने भारत में गंगा-जमुनी तहज़ीब के प्रवाह को बनाए रखने में अपना जीवन होम कर दिया. इसके लिए सूफ़ी और संत किसी शाह के वज़ीफ़ाख़्वार नहीं बने. वज़ीफ़ाख़्वार बनकर किसी संस्कृति, इतिहास या जन के साथ न्याय किया भी नहीं जा सकता. क्योंकि वजीफ़ाख़्वार किसी का भी हो, उसे लढ़िये की तरह एक तरफ़ उल्ल होना ही पड़ता है.

ज़रा सोचिए, जायसी चाहते तो क्या वे पद्मावत की कहानी को आध्यात्मिक टर्न देते हुए ही वह नहीं कर सकते थे जो भंसाली ने किया? उन्होंने ऐसा नहीं किया. उसी सत्य को अपना सत्य माना जो उनके समय के जनगणमन में अंतःसलिला धारा की तरह प्रवहमान था. यही वजह है कि उनके समय और बाद के कई धुरंधर बह गए, लेकिन जायसी, बुल्लेशाह, रसखान और उनके जैसे दूसरे रचनाकार लोक की स्मृति में रचे-बसे रहे. काँटों की राह पर ज़िंदगी गुज़ार देने वाले ये रचनाकार आज के पाँचसितारा छाप जनधर्मी बुद्धिजीवियों की राह के सबसे बड़े काँटे हैं.

जायसी जैसे रचनाकारों के भारत की सामूहिक स्मृति का हिस्सा बने रहते इनकी सफलता केवल कुछ लोगों को हिंदू-मुसलमान बना देने तक ही सीमित रहेगी. मैंने देखा कि सोशल मीडिया पर किस तरह कुछ लोग अपने को हिंदू या मुसलमान बनाते हुए पद्मावती के बहाने जोधा-अकबर, फ़िरोजा-वीरमदेव, जहाँआरा-शत्रुसाल से लेकर धरमन बीबी और बाबू कुँवर सिंह के प्रेम तक के मसले उठाकर एक-दूसरे को ललकारते रहे. धुर पुरुषवादी मानसिकता से आक्रांत लोगों में से किसी के लिए विकृत यौन मानसिकता का वहशी दरिंदा आदर्श हो गया तो किसी के लिए दो ऐतिहासिक पात्रों का पवित्र प्रेम एक-दूसरे को नीचा दिखाने का माध्यम बन गया. अगर इसे संस्कृति मान लिया जाए तो फिर विकृति क्या होगी?

पंथनिरपेक्षता का पाखंड रचने वालों ने यह स्थापित करने की पुरज़ोर साजिश रची कि भारत का मुसलमान पूर्वज के रूप में अपनी प्रेरणा उन्हीं लुटेरे और रक्तपिपासु आक्रांताओं से ग्रहण करता है, जिनके मनुष्य होने पर मनुष्यता शर्मिंदा है. इन आक्रांताओं से बहुत पहले अध्यात्म के संदेश लेकर आए सूफियों को उसने विस्मृति के हवाले कर दिया है. लेकिन आमजन का ऐसा मान लेना उतनी ही बड़ी ग़लती होगी जितना कि यह सोचना कि भारत का हिंदू अपनी प्रेरणा कंस, जरासंध, दुशासन या जयचंद जैसे कुपात्रों से लेता है.  मेरे मुसलमान दोस्तों में तो एक भी ऐसा नहीं जो खिलजी, गोरी या ग़ज़नी को अपना  प्रेरणास्रोत मानता हो. वे तो जायसी, फरीद और बुल्ले शाह को ही याद करने वाले हैं. मीर, ग़ालिब और  फ़िराक़ के उद्धरण देने वाले हैं. फिर हर राजनीतिक खेमे और उनके झंडाबरदार विद्वानों की ओर से यह स्थापित करने की साजिश क्यों रची जा रही है?

इसे इसी स्वांग के मार्फ़त समझने की ज़रूरत है. झापड़ पड़ने और फेसबुक-ट्विटर पर मिली गालियों के बाद आख़िरकार भंसाली इस पर राज़ी हो गए कि वह फिल्म में कोई रोमैंस सीन नहीं डालेंगे. पता नहीं उनका मानना कितना सच है और कितना निबाहा जाएगा. यह भी कि करणी सेना की मंशा के पीछे कितना आत्मगौरव और कितना न्यस्त स्वार्थ है. लेकिन एक बात तो तय है कि वह फिल्म बना रहे हैं और एक-दो चाटों के बदले मुफ़्त में उन्हें जो प्रचार मिला, वह करोड़ों रुपये विज्ञापन पर ख़र्च कर भी नहीं मिल पाता.

करणी सेना और ऐसे ही अन्य आत्मगौरववादी भले इसे अपनी जीत मानें, लेकिन विजय यह वास्तव में याराना पूँजीवाद की ही है. वह याराना पूँजीवाद ही है जिसके लिए वज़ीफ़ाख़्वार विद्वज्जन रचनात्मक छूट और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नारा ही नहीं, पद्मावती के एक काल्पनिक पात्र होने की कपोलकल्पित स्थापना तक लेकर आ गए थे. एक बार के लिए यह तो माना जा सकता है कि करणी सेना के लोग बिना सोचे-समझे इस जाल के हिस्से बन गए हों. लेकिन, कलात्मक कल्पनाशीलता के ध्वजवाहक वे विद्वज्जन जो दिन-रात पूँजीवाद की बखिया ही उधेड़ते रहते हैं, इस क्षुद्र ज्ञान से वंचित होंगे, यह मेरी कल्पना से बाहर है. उनसे अनजाने में कोई ग़लती नहीं हुई है. वे अच्छी तरह जानते हैं कि फिल्म बनाने वाले कितने ग़रीब होते हैं, इसके लिए पूँजी कहाँ से आती है और उसकी भरपाई की शर्तें क्या होती हैं. अब यह आपको सोचना होगा कि वे सब जान-बूझकर ऐसा क्यों करते हैं? यह भी कि भारत की गंगा-जमुनी तहजीब को नष्ट करने की साजिश रचने वाले कौन हैं और इसके पीछे उनके उद्देश्य क्या हैं?

Comments

  1. Hi, Really great effort. Everyone must read this article. Thanks for sharing.

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