बेचारे प्रधानमंत्री और मजबूर जनता
भारत के प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह ने उद्योगपतियों की बैठक में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर गहरी चिंताएँ जताई हैं. सबसे ज्यादा चिन्ता उन्होने इस समय की सबसे मौजू समस्या महंगाई पर जताई है. उद्योगपतियों से उन्होने अपेक्षा की है कि वे काकस बाना कर चीजों के दाम न बढ़ाएं. आर्थिक विकास का लाभ देश के आम आदमी को मिले, इसके लिए उन्होने भारतीय उद्योग जगत के सामने एक दस सूत्रीय एजेंडा भी रखा है. इस एजेंडे में वंचित वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को रोजगार के अधिक अवसर देना, प्रतिभाशाली युवाओं को स्काँलरशिप देना आदि बातें शामिल हैं. भारतीय उद्योग परिसंघ की बैठक में उन्होने उद्योगपतियों को यह उपदेश भी दिया है कि वे अपनी शान बघारने के लिए अपने वैभव का भोंडा प्रदर्शन न करें.
डॉ॰ सिंह ने यह जो बातें कही हैं, इनसे किसी को असहमति नहीं हो सकती है. रोजगार के अवसर वंचित वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को ही नहीं, समाज के सभी वर्गों को मिलने चाहिए. आख़िर रोजगार के अवसरों की जरूरत किसे नहीं है? बिना रोजगार के तो किसी का जीवन चल नहीं सकता है! प्रतिभाशाली युवाओं को स्कालरशिप दिए जाने की बात भी सही है. इस बात से भी किसी को नाइत्तफाकी नहीं हो सकती है कि शेखी बघारने के लिए धन-वैभव का भोंडा प्रदर्शन नहीं होना चाहिए. और यह तो पूरा देश चाहता ही है कि उद्योगपति काकस बना कर चीजों की कीमतें न बढाएं. लेकिन बडे दुर्भाग्य की बात यह है कि इनमें से कोई भी बात हो नहीं रही है.
देश का प्रधानमंत्री कोई बात कहे और वह हो न रही हो तो देशवासियों के लिए इससे ज्यादा हताशाजनक बात और क्या हो सकती है? खास तौर से एक ऐसा प्रधानमंत्री जो तीन साल सरकार चला चुका हो और अर्थशास्त्र का माहिर हो, इससे बड़ी विफलता और क्या हो सकती है कि उसके शासन में महंगाई लगातार बढ रही हो. इसके लिए वह और उसकी सरकार चौतरफा सिर्फ आलोचना नहीं बल्कि निंदा झेल रही हो तथा फिर भी कुछ न कर पा रहा हो. समझा जा सकता है कि जहाँ सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ व्यक्ति इस हद तक मजबूर हो, वहाँ जनता कितनी लाचार और मजबूर होगी. लेकिन क्या यह बात सचमुच सच है? क्या वास्तव में मनमोहन सिंह की सरकार महंगाई और बेकारी जैसी समस्याओं पर चाहकर भी काबू नहीं कर पा रही है और यह वास्तव में उसकी लाचारी ही है? या फिर इसके मूल में कुछ और भी है?
इस संदर्भ में सही निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए जरूरी है कि हम यूंपीए सरकार के पिछले तीन साल के कार्यकाल का एक सिंहावलोकन करें. एक बात और कि किसी सरकार के कार्यकाल का सिंहावलोकन करते हुए इस बात का ध्यान जरूर रखें कि सरकार के हाथ में बहुत सारी शक्तियां तो होती हैं, पर कोई जादू की छड़ी नहीं होती है. वह समस्याओं का निपटारा कर सकती है, लेकिन इसके लिए उसे समय, सहयोग और संसाधन चाहिए होते हैं. पुनश्च, यह बात भी हमें ध्यान में रखनी होगी कि कुछ समस्याएँ तो ऐसी हैं जिनके कारण देश के भीतर ही होते हैं, लेकिन कई समस्याओं के कारण वैश्विक होते हैं. जब कोई समस्या विश्व स्तर पर होती है तो देश के भीतर हम उस पर बहुत ज्यादा नहीं कर सकते. लेकिन हाँ, इन कारणों के साथ-साथ एक मुद्दा इच्छाशक्ति का भी होता है. इतिहास में ऐसा कई बार देखा गया है कि राजनेता जब चाहता है तो परिस्थितियों के लाख विपरीत होने के बावजूद अपनी मनमानी कर ही लेता है. इस संदर्भ में उदाहरण गिनाने की जरूरत नहीं है. इस देश की जनता इमरजेंसी से लेकर मंडल कमीशन और अयोध्या काण्ड तक सरकार प्रोयोजित कई मुसीबतों की भुक्तभोगी रह चुकी है.
यह गौर करने की बात है कि जब यह सरकार सत्ता में आई थी उस समय तक ऐसी कोई बात यहाँ नहीं थी. तेल-गैस से लेकर चावल-दाल तक सभी चीजें बाजारों में आसानी से उपलब्ध थीं और लोग इत्मीनान से ख़रीद रहे थे. संप्रग सरकार के ही देश या दुनिया पर कोई बड़ी आपदा आ गई हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता है.
संप्रग सरकार ने सत्ता सँभालने के बाद सबसे पहला काम दाम बढ़ाने का ही किया है. पहले तो पेट्रोल- डीजल की कीमतें बढाई गईं, फिर गैस की. इसके बाद सुनियोजित साजिश के तहत गैस को बाजार से गायब करा दिया गया. तब से लेकर आज तक गैस आम आदमी के लिए बाजार से ग़ायब ही चली आ रही है. इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है कि इसके पीछे सरकारी तंत्र का ही हाथ था. अगर ऐसा नहीं था तो फिर ऐसा क्यों हुआ कि ठीक उसी समय गैस की डिलीवरी पर नए सिरे से कोटा-परमिट का झमेला क्यों लाद दिया गया जब कि गैस पूरे बाजार से ग़ायब थी. उस समय सम्बंधित मंत्री ने इसके पीछे तर्क यह दिया था कि घरेलू गैस का प्रयोग व्यावसायिक कार्यों के लिए किया जा रहा है। उसे रोकने के लिए यह व्यवस्था की जा रही है. क्या अब यह प्रक्रिया बंद हो गयी है? केवल जनता ही नहीं मंत्री और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी इस बात को जानते हैं कि घरेलू सिलिंडरों के व्यावसायिक इस्तेमाल की प्रक्रिया बिल्कुल नहीं रुकी है. अगर कोई मंत्री यह बात नहीं जनता है तो इस गरीब देश में उसे राजनीति करने का ही कोई हक नहीं है. इसके बावजूद और चाहे जो हो गया हो, लेकिन एक काम नहीं हुआ तो नहीं ही हुआ और वह है गैस से कोटा-परमिट का चक्कर हटाने का आदेश. क्यों? क्योंकि इससे एक वर्ग का फायदा है और वह ऐसा वर्ग है जिसके फायदे का फायदा पार्टियों को मिलता है.
जाहिर है उसके फायदे को यह नजरअंदाज नहीं कर सकते. ध्यान से देखें तो पाएँगे कि लगातार किसी न किसी तरह से उसी के फायदे का ख़याल यह सरकार हमेशा से रखती आ रही है. किसान के घर से तीन रुपये किलो के रेट से चला आलू बाजार में २५ रुपये किलो बिका, चार रुपये किलो की दर से चले गेहूं का आटा २० रुपये किलो बिका. पिछले तीन सालों से सारी चीजों के दाम सिर्फ बढते ही रहे और अब तक प्रधानमंत्री को न तो किसी से कुछ कहने कि जरूरत महसूस हुई और न ही कुछ करने की. अब वह कह रहे हैं उद्योगपतियों से कि वे काकस बना कर कीमतें न बढाएं, शान बघारने के लिए फिजूलखर्ची न करें. उद्योगपति तो फिर भी अपना धन खर्च कर रहे हैं. फिजूलखर्ची कम करने की बात वे अपने मंत्रियों से क्यों नहीं करते जो सरकार यानी जनता के पैसे पर ऐयाशी की सारी हदें तोड़ते चले आ रहे हैं. अगर केवल केंद्र सरकार के मंत्री अपनी ऐयाशी में मात्र दस प्रतिशत की कमी कर दें तो निश्चित रूप से हजारों युवाओं को रोजगार दिया जा सकता है. आखिर प्रधानमंत्री इन पर लगाम क्यों नहीं लगा रहे हैं?
सवाल यह भी है कि इस सरकार ने युवाओं को रोजगार के अवसर देने के लिए क्या किया है? एक ऐसे देश में जहाँ पहले से ही बेकारी मुँह बाए खड़ी है, वहाँ रोजगार के अवसर सिर्फ घटाए गए हैं. क्या इसके बाद भी यह कहने की गलती की जा सकती है कि इस सरकार का जनता के हितों से कोई वास्ता है? क्या यही इसके सामाजिक सरोकार हैं? देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि माननीय प्रधानमंत्री के लिए देश का मतलब भारत नहीं सोनिया गाँधी है. इसके बाद भी वह ऐसी बातें किसे सुनाने के लिए कर रहे हैं? क्या उन्हें मालूम नहीं है कि इस देश में वोट देने का हक सिर्फ उन्हें ही है जिनकी उम्र १८ साल से अधिक हो चुकी है? या फिर वे यह मान कर चल रहे हैं कि यहाँ के लोग ६० साल के बाद ही बालिग होते हैं? अगर ऐसा है तो निश्चित रुप से इस तरह की दिखावटी बातें कर के वह जनता की बुद्धि का अपमान कर रहे हैं। जिसका उन्हें कोई हक नहीं है। ध्यान रखें जिस तरह आज वह यह सोच रहे हैं कि उनका कोई विकल्प नहीं है, ऐसे ही तीन साल पहले राजग के नेता भी यही सोचते थे कि उनका इस देश के पास कोई विकल्प नहीं है. उन्हें सोचना चाहिए कि दो साल बाद उनका क्या होगा. यह बात ध्यान में रखते हुए कि भारत की जनता उतनी मजबूर नहीं है जितने कि वह हैं. जनता के पास उनके और सोनिया गाँधी के अलावा भी कई और विकल्प हैं. वह लाचार भले होन पर भारत की जनता मजबूर नहीं है.
इष्ट देव सांकृत्यायन
डॉ॰ सिंह ने यह जो बातें कही हैं, इनसे किसी को असहमति नहीं हो सकती है. रोजगार के अवसर वंचित वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को ही नहीं, समाज के सभी वर्गों को मिलने चाहिए. आख़िर रोजगार के अवसरों की जरूरत किसे नहीं है? बिना रोजगार के तो किसी का जीवन चल नहीं सकता है! प्रतिभाशाली युवाओं को स्कालरशिप दिए जाने की बात भी सही है. इस बात से भी किसी को नाइत्तफाकी नहीं हो सकती है कि शेखी बघारने के लिए धन-वैभव का भोंडा प्रदर्शन नहीं होना चाहिए. और यह तो पूरा देश चाहता ही है कि उद्योगपति काकस बना कर चीजों की कीमतें न बढाएं. लेकिन बडे दुर्भाग्य की बात यह है कि इनमें से कोई भी बात हो नहीं रही है.
देश का प्रधानमंत्री कोई बात कहे और वह हो न रही हो तो देशवासियों के लिए इससे ज्यादा हताशाजनक बात और क्या हो सकती है? खास तौर से एक ऐसा प्रधानमंत्री जो तीन साल सरकार चला चुका हो और अर्थशास्त्र का माहिर हो, इससे बड़ी विफलता और क्या हो सकती है कि उसके शासन में महंगाई लगातार बढ रही हो. इसके लिए वह और उसकी सरकार चौतरफा सिर्फ आलोचना नहीं बल्कि निंदा झेल रही हो तथा फिर भी कुछ न कर पा रहा हो. समझा जा सकता है कि जहाँ सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ व्यक्ति इस हद तक मजबूर हो, वहाँ जनता कितनी लाचार और मजबूर होगी. लेकिन क्या यह बात सचमुच सच है? क्या वास्तव में मनमोहन सिंह की सरकार महंगाई और बेकारी जैसी समस्याओं पर चाहकर भी काबू नहीं कर पा रही है और यह वास्तव में उसकी लाचारी ही है? या फिर इसके मूल में कुछ और भी है?
इस संदर्भ में सही निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए जरूरी है कि हम यूंपीए सरकार के पिछले तीन साल के कार्यकाल का एक सिंहावलोकन करें. एक बात और कि किसी सरकार के कार्यकाल का सिंहावलोकन करते हुए इस बात का ध्यान जरूर रखें कि सरकार के हाथ में बहुत सारी शक्तियां तो होती हैं, पर कोई जादू की छड़ी नहीं होती है. वह समस्याओं का निपटारा कर सकती है, लेकिन इसके लिए उसे समय, सहयोग और संसाधन चाहिए होते हैं. पुनश्च, यह बात भी हमें ध्यान में रखनी होगी कि कुछ समस्याएँ तो ऐसी हैं जिनके कारण देश के भीतर ही होते हैं, लेकिन कई समस्याओं के कारण वैश्विक होते हैं. जब कोई समस्या विश्व स्तर पर होती है तो देश के भीतर हम उस पर बहुत ज्यादा नहीं कर सकते. लेकिन हाँ, इन कारणों के साथ-साथ एक मुद्दा इच्छाशक्ति का भी होता है. इतिहास में ऐसा कई बार देखा गया है कि राजनेता जब चाहता है तो परिस्थितियों के लाख विपरीत होने के बावजूद अपनी मनमानी कर ही लेता है. इस संदर्भ में उदाहरण गिनाने की जरूरत नहीं है. इस देश की जनता इमरजेंसी से लेकर मंडल कमीशन और अयोध्या काण्ड तक सरकार प्रोयोजित कई मुसीबतों की भुक्तभोगी रह चुकी है.
यह गौर करने की बात है कि जब यह सरकार सत्ता में आई थी उस समय तक ऐसी कोई बात यहाँ नहीं थी. तेल-गैस से लेकर चावल-दाल तक सभी चीजें बाजारों में आसानी से उपलब्ध थीं और लोग इत्मीनान से ख़रीद रहे थे. संप्रग सरकार के ही देश या दुनिया पर कोई बड़ी आपदा आ गई हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता है.
संप्रग सरकार ने सत्ता सँभालने के बाद सबसे पहला काम दाम बढ़ाने का ही किया है. पहले तो पेट्रोल- डीजल की कीमतें बढाई गईं, फिर गैस की. इसके बाद सुनियोजित साजिश के तहत गैस को बाजार से गायब करा दिया गया. तब से लेकर आज तक गैस आम आदमी के लिए बाजार से ग़ायब ही चली आ रही है. इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है कि इसके पीछे सरकारी तंत्र का ही हाथ था. अगर ऐसा नहीं था तो फिर ऐसा क्यों हुआ कि ठीक उसी समय गैस की डिलीवरी पर नए सिरे से कोटा-परमिट का झमेला क्यों लाद दिया गया जब कि गैस पूरे बाजार से ग़ायब थी. उस समय सम्बंधित मंत्री ने इसके पीछे तर्क यह दिया था कि घरेलू गैस का प्रयोग व्यावसायिक कार्यों के लिए किया जा रहा है। उसे रोकने के लिए यह व्यवस्था की जा रही है. क्या अब यह प्रक्रिया बंद हो गयी है? केवल जनता ही नहीं मंत्री और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी इस बात को जानते हैं कि घरेलू सिलिंडरों के व्यावसायिक इस्तेमाल की प्रक्रिया बिल्कुल नहीं रुकी है. अगर कोई मंत्री यह बात नहीं जनता है तो इस गरीब देश में उसे राजनीति करने का ही कोई हक नहीं है. इसके बावजूद और चाहे जो हो गया हो, लेकिन एक काम नहीं हुआ तो नहीं ही हुआ और वह है गैस से कोटा-परमिट का चक्कर हटाने का आदेश. क्यों? क्योंकि इससे एक वर्ग का फायदा है और वह ऐसा वर्ग है जिसके फायदे का फायदा पार्टियों को मिलता है.
जाहिर है उसके फायदे को यह नजरअंदाज नहीं कर सकते. ध्यान से देखें तो पाएँगे कि लगातार किसी न किसी तरह से उसी के फायदे का ख़याल यह सरकार हमेशा से रखती आ रही है. किसान के घर से तीन रुपये किलो के रेट से चला आलू बाजार में २५ रुपये किलो बिका, चार रुपये किलो की दर से चले गेहूं का आटा २० रुपये किलो बिका. पिछले तीन सालों से सारी चीजों के दाम सिर्फ बढते ही रहे और अब तक प्रधानमंत्री को न तो किसी से कुछ कहने कि जरूरत महसूस हुई और न ही कुछ करने की. अब वह कह रहे हैं उद्योगपतियों से कि वे काकस बना कर कीमतें न बढाएं, शान बघारने के लिए फिजूलखर्ची न करें. उद्योगपति तो फिर भी अपना धन खर्च कर रहे हैं. फिजूलखर्ची कम करने की बात वे अपने मंत्रियों से क्यों नहीं करते जो सरकार यानी जनता के पैसे पर ऐयाशी की सारी हदें तोड़ते चले आ रहे हैं. अगर केवल केंद्र सरकार के मंत्री अपनी ऐयाशी में मात्र दस प्रतिशत की कमी कर दें तो निश्चित रूप से हजारों युवाओं को रोजगार दिया जा सकता है. आखिर प्रधानमंत्री इन पर लगाम क्यों नहीं लगा रहे हैं?
सवाल यह भी है कि इस सरकार ने युवाओं को रोजगार के अवसर देने के लिए क्या किया है? एक ऐसे देश में जहाँ पहले से ही बेकारी मुँह बाए खड़ी है, वहाँ रोजगार के अवसर सिर्फ घटाए गए हैं. क्या इसके बाद भी यह कहने की गलती की जा सकती है कि इस सरकार का जनता के हितों से कोई वास्ता है? क्या यही इसके सामाजिक सरोकार हैं? देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि माननीय प्रधानमंत्री के लिए देश का मतलब भारत नहीं सोनिया गाँधी है. इसके बाद भी वह ऐसी बातें किसे सुनाने के लिए कर रहे हैं? क्या उन्हें मालूम नहीं है कि इस देश में वोट देने का हक सिर्फ उन्हें ही है जिनकी उम्र १८ साल से अधिक हो चुकी है? या फिर वे यह मान कर चल रहे हैं कि यहाँ के लोग ६० साल के बाद ही बालिग होते हैं? अगर ऐसा है तो निश्चित रुप से इस तरह की दिखावटी बातें कर के वह जनता की बुद्धि का अपमान कर रहे हैं। जिसका उन्हें कोई हक नहीं है। ध्यान रखें जिस तरह आज वह यह सोच रहे हैं कि उनका कोई विकल्प नहीं है, ऐसे ही तीन साल पहले राजग के नेता भी यही सोचते थे कि उनका इस देश के पास कोई विकल्प नहीं है. उन्हें सोचना चाहिए कि दो साल बाद उनका क्या होगा. यह बात ध्यान में रखते हुए कि भारत की जनता उतनी मजबूर नहीं है जितने कि वह हैं. जनता के पास उनके और सोनिया गाँधी के अलावा भी कई और विकल्प हैं. वह लाचार भले होन पर भारत की जनता मजबूर नहीं है.
इष्ट देव सांकृत्यायन
hello sir,
ReplyDeletemaine aapka artical pada. bahut acha laga.per sach kahu to hume ek bade badlaw ki jarurat hai.
mai bhi kuch kahna chahti hu. desh ki kai badi problems mai se ek problem reservation ki hai. neta banene se pahle kisi cast ko reservation ka lalach de kar unki simpathy hasil kr ek bada vote area cover kar lete hai or jab wohi neta logo ke emotion ke sath khel kar kursi per aa jata hai to wo resrvation ki bat bhul jata hai or natija hame waisa hi dekhne ko milta hai jaisa ise samay rajasthan mai dekhne ko mil raha hai. sachahi to ye hai ki aaj desh ko kisi bhi reservation ki koi jarurat nhi per desh ke neta ise apni kursi k charo pair sahi salamat rakhne ke liye isetemal kar rahe hai.
reservation ko desh mai jati-pati ka bhed mitane ke liye sirf 10 sal ke liye laya gaya tha per aaj ki date mai aarakshan ne ek bhayanak roop le liya hai. sabse upper cast mai mane jane wala bechara brahmin ab sirf private jobs mai hi dikhai deta hai. na jane kyu ise bare mai koi likhna nhi chahta jabki aaj sabse jayada isi bat ki jarurat hai ki desh se har tarah k bhed bhav ko mitaya jaye.
sahi mayne mai dekha jaye to reservation de kar neta log so called nicheli jati ko sahi mai backwork bana rahi hai. aaj ka youth koi bhi govt. job ka form bharte samay jab backwork ya obc per tick karta hai to use ke chare per ek muskan apne aap hi aa jati hai, dusri taraf general cast wale bhi apni category per tick karte huwe murjha jate hai. ye bate desh ki lachargi ko darshati hai. kyu ek backwoed class ya obc reservation ke karan proud feel karta hai or kyu ek general category ka candidate apni seat ki parwah bhi nhi karta.
reservation ka yaha tak bol bala hai ki agar obc ya backword class k candidate general category ke candidate jitne no. le kar aa gaye to unko automatically gen. cat. mai shift kar diya jata hai.aaise mai gen. cast walo ke man mai durbhaana aana swabhavik hai.agar aapko yad ho to jaipur mai do case aaise huwe the jise mai medical student ne mbbs se reservation ko hatane ki mang ko le kar aatmdah kar liya tha.aaj unke balidan ko koi yad nhi karta.
dukh hota hai jab har time period per reservation ke liye koi cast sadko per uttar aati hai or apne aap ko aandolankari bana leti hai. mai ise mai use cast ki galti nhi manti ye galti hai un bharst netao ki jo vote ki khatir koi bhi wada kar dete hai or bad mai piche hut jate hai.
ek brahimin hone ke karan hi mai ye sab kuch nhi kah rahi hu balki jab mai apne desh ke youth ko koi inovative kam karne ki bajay aandolan karte dekhti hu to mujhe dukh hota hai. kahne wale kahte hai ki brahim mai ekta nhi hoti isiliye aaj wo pichde huwe hai. shayad ye kahi sahi bhi hai. kisi bhi private job mai najar dal le, chahe wo media [print or electronic] ho ya phir court mai advocate, general cast ki sankhya bahut jayada dikhai degi. news chanel kyu nhi ise ek mudda bana kar samne late hai taki kanoon ki najar ise per pad sake, news paper mai bar bar ise per likha jana chahiye.
sabhi ministers ka gherav kar ke unko ye kahne per majboor kiya ja sakta hai ki ab desh mai reservation ki jarurat nhi.aap ki bat bilkul sahi hai ki lack of job se bhi youth apne dimag ko kharab kar raha hai. desh ka prime minister koi bhi ho agar wo desh ki taraki nhi soch sakta to bekar hai. sach kahu to aaj mere jaise kai yuwa desh ki gandi rajniti se dur rahna chahte hai.unka bharosa hi ab netao se or unke khokhle wado se hut gaya hai. desh ki 65% gao ki janta ko hi neta apna nishana bana rahe hai.yaha tak ki unke bhasan ko sun-ne ke liye paise de kar gao walo ko buso mai bhar bhar kar laya jata hai. sach kai bar apne desh ki durdsha dekh kar dukh bhi hota hai or apni lachargi per sharm bhi aati hai.aache khase graduate ho kar bhi man masoj kar rakhne ke siway hum kuch nhi kar sakte.
aaj shayad main kuch jayada hi aap ko likh diya.pata nhi kyu man huwa aapko ye sab likhne ka. ho sakta hai aap meri bato se sahmat na ho per ise per vichar jarur kigiyega or ho sake to kuch likhne ki koshish bhi...
u ek gen cast ka hti hu. aaj desh mai jis chij ki sabse jayada jarurat hai wo hai youth ko job provide krwana. ise wajah se na jane kitne youngester galat rah per ja rahe hai. aap ne jo kaha wo bilkul sahi hai ki ye party apne mantriyo ko kuch nhi kahti, unke khrcho ko kam
आपने अच्छे सवाल उठाए हैं लेकिन अगर प्रधानमंत्री ऐसे बेतुके सुझाव देंगे तो भला उस पर कौन अमल करेगा. गरीबों की दशा और दिशा सुधारने की जगह सीईओ के वेतन में कटौती के प्रस्ताव का क्या तुक है। सौ सीईओ का वेतन घटा कर करोड़ों गरीबों का भला कैसे हो सकता है।
ReplyDelete