कानून किसके साथ?


इष्ट देव सांकृत्यायन

कश्मीर में ये अनपढ़ और बेरोजगार युवा थे. गरीबी और बदहाली से तंग.
दिल्ली में ये विश्वविद्यालय के छात्र निकले.
लखनऊ में ये गरीब बेसहारा मजदूर हो गए.
और कानून तो हुजूर वह तो कुछ लोगों की उस टाइप वाली रखेल है जिसका कोई हक नहीं और जिसे वे जैसे चाहें प्रताड़ित कर सकते हैं.
निर्भया के बाद भी अगर किसी को कोई शक बचा हो तो उसका कोई इलाज नहीं है.

केवल इसी देश में न्याय आतंकवादियों के बचाव में सेना का रास्ता रोकने और उस पर हमला करने वाले नागरिकों पर गोलियां चलाने से रोक सकता है.
जनता की गाढ़ी कमाई से बनी सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुँचाने वालों को वसूली की नोटिस भेजे जाने पर स्टे दे सकता है.
इस पृथ्वी नामक ग्रह के किसी और कोने के इतिहास में अगर ऐसा कुछ हुआ दिखा हो तो जरा बताइएगा.

अब सवाल यह है कि विश्वविद्यालय स्तर पर पहुंचकर अगर यही पत्थरबाजी ही पढ़ाई जानी है तो बेहतर होगा कि इसकी पढ़ाई सभी बोर्डों में प्राइमरी स्तर से ही करा दी जाए.
वरना इस समाज का क्या होगा?
क्या एक बड़ा तबका सिर्फ़ अपराधों का भुक्तभोगी बनने के लिए होगा
?
और दूसरा बड़ा तबका सिर्फ लूट-मार और अपराध-अत्याचार करने के लिए होगा?
अगर ऐसा होगा तो समाज में संतुलन कैसे बनेगा
?

आप कराएं या न कराएं
, एक खास तबके के स्कूलों में यह प्राइमरी स्तर से ही सिखाया जा रहा है. उन्हें घुट्टी में पिलाया जा रहा है.
वही दिल्ली में अब विश्वविद्यालय स्तर पर उतर रहा है.
कश्मीर और लखनऊ में सड़कों तक आ गया.

अगर इसी समाज में उन्हें भी रहना है और आपको भी रहना है और आपको ख़ुद को अपना अस्तित्व बचाए रखना है तो अब ये जो बेमतलब की शोशेबाजियां हैं, उन्हें छोड़िए. कोई कानून आपको बचाने आएगा, ये सोचना छोड़ दीजिए.

क्योंकि कोई भी बचाने वाला किसी एक को ही बचा सकता है. या तो कानून मानने वाले आम नागरिक को या फिर कानून तोड़ने वाले अपराधी को. निर्भया के दोषसिद्ध अपराधियों में एक भी इस लायक नहीं है कि अपने मुकदमे के कागजों के भी खर्च उठा सके. लेकिन उन्हें सबसे महंगे वकील मिले हुए हैं. क्या वे मुफ्त में पेंच पर पेंच निकाले जा रहे हैं?

देश के लिए जान देने वाले सिपाहियों और सैनिकों पर यहाँ मुकदमे चलते हैं और उनके खिलाफ़ फ़ैसले आते हैं. मीडिया के पन्ने रंग जाते हैं. लेकिन ये पत्थर चलाने वालों के लिए पैलेट गन और प्लास्टिक की गोलियों की भी साइज तय कर दी जाती है. और उसके बाद अगर इन बेहद सज्जन कलंदरों से निपटने के लिए पुलिस जरा सा बल प्रयोग कर दे तो देश भर के बुद्धिजीवियों की भौंहें तन जाती हैं.

सरकार प्रेसकर्मियों के लिए कानून बनाती है और उसके तहत वेजबोर्ड बिठाती है. वेजबोर्ड अपनी संस्तुतियां देता है और वह संस्तुतियां कहीं लागू नहीं होतीं. खुद माननीय सर्वोच्च न्यायालय की ही अवमानना करने वाले मालिकों के बचाव में केंद्र में ही कानूनमंत्री रहे एक महापुरुष वकील बनकर आ जाते हैं और फैसले के नाम पर जलेबी छान दी जाती है. मजदूर वर्षों खाक छानने के लिए फिर से लेबर कोर्ट भेज दिए जाते हैं. नतीजा पालेकर से लेकर मजीठिया तक कई वेजबोर्ड बन चुके, लेकिन आज तक एक भी कहीं लागू न हो पाया. देखिए न, कानून किसके साथ खड़ा है!

ऐसे तो एक महात्मा जी अपनी आत्मा की आवाज पर अहिंसा के व्रत के नाम पर इस देश के नागरिकों के सबसे बड़े तबके से आत्मरक्षा का अधिकार बहुत पहले ही छीन चुके हैं. फिर भी अगर आपको लगता है कि आत्मरक्षा आपका मौलिक अधिकार है और जरूरत है तो कानून के इस हाल में कम से कम खुद की रक्षा का उपाय आपको खुद ही करना होगा. अगर यह करना है तो अभी जुट जाइए, प्राइमरी लेवल से पत्थरबाजी को कोर्स में शामिल कराने में.

©इष्ट देव सांकृत्यायन


Comments

  1. अब सवाल यह है कि विश्वविद्यालय स्तर पर पहुंचकर अगर यही पत्थरबाजी ही पढ़ाई जानी है तो बेहतर होगा कि इसकी पढ़ाई सभी बोर्डों में प्राइमरी स्तर से ही करा दी जाए....पूरी व्यवस्था पर अच्छा व्यंग्य

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