मेरी चीन यात्रा - 9
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सम्मेलन के पहले दिन आयोजन स्थल से जल्दी लौटकर
होटेल के पास ही थोड़ा घूमा फिरा। विविध फलों की सजी-संवरी
दुकानें आकर्षित कर रही थीं। जनरल स्टोर और
ड्रेसेज की ढ़ेर सारी दुकानें थीं और खानपान की
भी। चीन में सिगरेट धुआंधार पी जाती है। होटेल में भीतर तो मनाही है मगर सार्वजनिक
स्थलों पर जिसे देखो सिगरेट पीता दिख रहा था। सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान निषेध का यहाँ भारत जैसा प्रतिबंध नहीं है। इतना सिगरेट चीनी क्यों पीते हैं, समझ
में नहीं आया।
सड़कों को साफ सुथरा रखने के लिए हमेशा उनकी
यांत्रिक तरीके से सफाई होती दिखी। फलों की एक दुकान से मैंने एक बड़े बेर की आकार
के फल खरीदे - नाम था ज़ाओज़ी या जुजुबे। बेहद मीठा। वापसी में एकाध किलो घर ले
जाने की सोची मगर लोगों ने कस्टम निगरानी से डराया। यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा था
कि ताजे फल चीन से बाहर ले जाने की अनुमति है या नहीं। एक प्रतिभागी ने कहा कि
वापसी में आपके कस्टम पर भी इसे रोक लिया जाएगा। क्योंकि जननद्रव्यों (जर्मप्लाज्म) को देश के बाहर ले आने जाने पर
सख्त कानून हैं। मगर दस पीस ज़ाओज़ी मैं लेकर आ ही गया। उसके बीजरोपण की तैयारी
है।
पहले दिन की संध्या गैलेक्सी एवार्डों के वितरण
की थी जो चीनी विज्ञान कथाकारों के लिए एक
बड़ा सम्मान है। इसमें मैं नहीं जा सका। डॉ. नरहरि
ने भी कहा कि वहां डिनर भी शाम साढ़े पांच बजे से था इसलिए वे भी होटेल लौट आए हैं। उन्होंने मुझे द्रवपान का निमंत्रण भी दिया
पर मेरी रुचि नहीं थी। सुबह हमें चेंगडू के प्रसिद्ध पांडा रिसर्च और ब्रीडिंग सेंटर जाना था इसलिए जल्दी सो गए।
पांडा एक तरह की भालू प्रजाति है मगर शांत और अनाक्रामक। जबकि अन्य भालू बहुत आक्रामक होते
हैं। वैज्ञानिकों में बहुत दिन तक इनके 'नामेनक्लेचर' को लेकर विवाद था -
इसे रैकून और भालू के बीच की एक पशु प्रजाति माना जाता रहा, मगर
डीएनए अध्ययनों ने निर्विवाद रूप से इनका भालू होना
साबित कर दिया। इनका मूलावास चेंगडू के जंगलों में ही है। यहीं से इन्हें कड़ी शर्तों के तहत
दूसरे देशों के कुछ चिड़ियाघरों में भारी कीमतों में दिया गया है। राजनीतिक और
कूटनीतिक दोस्ती में भी पांडा भेंटस्वरूप यहीं से दिए जाते हैं - एक पूरी पांडा पोलिटिक्स ही है।
चेंगडू को पांडा सिटी भी कह सकते हैं। खिलौने, स्मृतिचिह्न, फैंसी ड्रेसेज, चारोंं ओर बस पांंडा ही पांंडा। बस
गनीमत यही कि चायनीज पांडा नहीं खाते।
डॉ. सामी, उनकी पत्नी ज़ारा और
हम एक टैक्सी होटेल से ही तय कर सुबह आठ बजे ही पंद्रह किमी दूर पांडा सेंटर को निकल लिए। होटेल बुकिंग के कारण टैक्सी काफी महंंगी थी (साढ़े चार हजार रुपये) मगर करते भी क्या।
एक विश्व पर्यटन केंद्र को तो
देखना ही था। इतनी सुबह जाने का कारण यह था कि पांडा सुबह ही उठ अपना बांसों का प्रिय नाश्ता करके थोड़ा खेलकूद उधम मचाकर
सोने चले जाते हैं फिर ठीक से नहीं दिखते।
हम आधे घंटे में पांडा स्थल पहुंच गए। विदेशियों की लंबी लाइन टिकट विंडो पर जुटी थी। टैक्सी ड्राइवर अंग्रेजी का अ भी
नहीं समझता था। ज़ारा मोबाइल ऐप से अंग्रेजी चायनीज अनुवाद कर उससे संवाद करने के
प्रयास में थीं कि वापसी में वह कहां मिलेगा। मेरी भारतीय बुद्धि कह रही थी कि चार
सौ से ऊपर युवान जिसे मिलना है वह खुद ही हमें ढूंढ़ निकालेगा। चिंता नको। एक टिकट विंडो आश्चर्यजनक रूप से खाली दिखी। डॉ. सामी ने तीन टिकटें लपक कर ले लीं। एक टिकट
पचपन यूवान यानि पांच सौ के लगभग।
वह तो जब हम पांडा केंद्र में घुसे तब समझ में आया कि वह विंडो खाली क्यों थी। वहां पैदल जाने वालों का टिकट मिल रहा था जबकि दूसरी
खिड़कियों पर फेरी शटल का टिकट था। कई किलोमीटर में फैले जंगल को शटल से ही देखना
ठीक था। युवाओं को तो फर्क नहीं पड़ता मगर मुझ वृद्ध के लिहाज से यह गलतफहमी का
निर्णय भारी पड़ने वाला था। एक डेढ़ किमी के बाद तो मुझे मुश्किल होने लगी। एक
बाड़ा दिखा तो वह रेड पांडा का था। मुझे चिड़चिड़ाहट हुई कि पांडा के नाम पर रेड
पांडा देखने हम नहीं आए। यह तो नेपाल में
भी है।
वह तो सौभाग्य रहा कि एक बाड़ा नजदीक ही दूसरा था
जहां पांडा नाश्ते के बाद उछलकूद में लगे थे। वाह अद्भुत। पांडा अवलोकन का आनंद आ
गया। खूब चित्र खींचे। करीब आधे घंटे हम पांडा कौतुक में मशगूल रहे और जब वे
खिसकने लगे तो हम भी खिसक लिए। मैं तो बाड़े से
बाहर निकलकर एक बेंच पर हजरते दाग़ जहां बैठ गए, बैठ गए की तर्ज पर ढ़ेर हो लिए। डॉ. सामी
और ज़ारा से अनुरोध किया कि वे घूम-फिर कर
मुझे वहीं से लेकर लौटे।
मुझे बैठे एक घंटे के ऊपर हो चले मगर युवा दंपती अभी भी ओझल था। मैं उकता रहा था। डॉ. सामी को फोन मिलाया। सौभाग्य से फोन मिला। उन्होंने कहा पंडित जी आप परेशान न हों मुझे लेकर ही वे
लौटेंगे। पंद्रह मिनट फिर बीत गए। अंखियां थक गईं पंथ निहार। कोई अता
पता नहीं। मुझे आशंका हुई कि वे लौटने के किसी और रास्ते पर भटक गए। और यह सच था - मैं जिस ओर डगर निहार रहा था उसके ठीक विपरीत पीछे से डा. सामी आए - पंडित जी। मैं घोर प्रश्नवाचक निगाह लिए मुड़ा। डॉ. सामी
लगता था दौड़ लगाकर आए थे। सांसें सभाल रहे थे। पंडितजी हम वाकई रास्ता भूलकर बाहर
निकल गए थे। अब चलिए। और उन्होंने जो रास्ता पकड़ा कि फिर भूल गए। और यह रास्ता चढ़ाई का था। मेरी हालत पतली। हांफते हूफते किसी तरह
निकास द्वार पहुंचे। वहां ज़ारा इंतजार कर रही थीं। पता
नहीं क्या सोचा होगा उन्होंने भी कि एक अनावश्यक लायबिलिटी हो गया मैं।
निकास द्वार पर पांडा स्मृति चिह्नों की कई
दुकाने थीं। फेरी वाले भी आक्रामक बिक्री कर रहे थे
जबर्दस्त कंधालड़ाऊ भीड़। उसी में वे इंडिगो की
दु:स्वप्न यात्रा के साथी भी मिल गए। एक पांडा टोपी
पसंद आई अपने भतीजे के लिए। भीड़ में पेमेंट
काउंटर तक पहुंचने की लंबे इंतजार पर बारी आई तो पता चला टोपी एक सौ चालीस युवान की है यानि
चौदह सौ भारतीय रुपये। मगर करते क्या। ले लिए। अब बाहर निकले तो टैक्सी वाला लपक कर सामने आया। सवाल चार सौ पचास
युवान का था। उसका तो दिन बन गया था। हम अपराह्न होटेल पहुंचे और आगे की प्लानिंग
में लग गए।
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सुस्वागतम!!