एक धारधार हथियार के तौर पर उभर रहा है ब्लॉग
डॉ.भावना की कविता पर प्रतिक्रया देते हुये संतोष कुमार सिंह ने एक सवाल उठाया है कि भारत की कोख से गांधी, नेहरू, पटेल और शात्री जैसा नेता क्यों पैदा नहीं हो रहे है। अन्य कई ब्लॉगों पर की गई टिप्पणियों में भी बड़ी गंभीरता के साथ भारत की वर्तमान व्यवस्था पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं। एक छटपटाहट और अकुलाहट ब्लॉग जगत में स्पष्टरूप से दिखाई दे रहा है। विभिन्न पेशे और तबके के लोग बड़ी गंभीरता से चीजों को ले रहे हैं और अभिव्यक्त कर रहे हैं।
डा. अनुराग, ज्ञानदत्त पांडे, ताऊ रामपुरिया, कॉमन मैन आदि कई लोग हैं, जो न सिर्फ अपने ब्लॉग पर धुरन्धर अंदाज में की-बोर्ड चला रहे हैं, बल्कि अन्य ब्लॉगों पर पूरी गंभीरता के साथ दूसरों की ज्वलंत बातों को पूरी शालीनता से बढ़ा भी रहे हैं। प्रतिक्रियाओं में चुटकियां भी खूब ली जा रही हैं, और ये चुटकियां पूरी गहराई तक मार कर रही हैं।
सुप्रतिम बनर्जी ने एक सचेतक के अंदाज में अभी हाल ही में एक आलेख लिखा है दूसरो का निंदा करने का मंच बनता ब्लॉग। यानि ब्लॉगबाजी को लेकर हर स्तर पर काम हो रहा है, और लोग अपने खास अंदाज में बड़ी बेबाकी से सामने आ रहें हैं। अभिव्यक्ति का दायरा बड़ा हो गया है। पिछले कई दिनों से मैं ब्लॉगबाजी कर रहा हूं और दूसरों के ब्लॉग को देख सुन भी रहा हूं। अभिव्यक्ति का एक नया अंदाज सामने आ रहा है। एक नई स्टाईल और नई उर्जा प्रवाहित होने लगी है, जो शुभ है-ब्लॉगबाजों के लिए भी और देश और समाज के लिए भी।
नीलिमा अपने आलेख मुझे कुछ कहना है में जाने अनजाने तानाशाही सिस्टम की ओर प्रोवोक कर रही हैं। मौजूद हालात में देश का एक तबका एसा चाह भी रहा है। नीलिमा के ब्लॉग पर अपनी प्रतिक्रियाओं में डेमोक्रेसी को लेकर लोगों ने बहुत सारी बातें कहीं हैं। कमोबेश सभी डेमोक्रेसी को पसंद कर रहे हैं,तले दिल से। वाकई में डेमोक्रेसी तहे दिल से पसंद करने वाली चीज भी है, हालांकि इसके नाम पर बहुत प्रयोग और खून खराब हुआ है। इतिहास इस बात का गवाह है। जिस रूप में इस वक्त डेमोक्रेसी हमारे देश में मौजूद है, उस रूप को तोड़ने की जरूरत मैं नहीं समझता। हां, इतना जरूर है कि डेमोक्रेसी को चलाने वाले प्रतिनिधियों में कहीं कोई गड़बड़ी जरूर हो सकती है। हो सकता है इसके लिए हमारा सामाजिक बुनावट जिम्मेदार हो, हो सकता है हम खुद जिम्मेदार हो। कहीं कुछ चूक हो रही है। हो सकता है विभिन्न दलों की कार्यप्रणाली पुरानी पड़ गई हो,निसंदेह कहीं कोई गलती हो रही है। एक आम धारणा पिछले कई वर्षों से भारत में दौड़ रही है,अच्छे लोग राजनीति से दूर है,और अच्छे लोग आज की राजनीति में टिक नहीं सकते, आज की राजनीति अच्छे लोगों के लिए नहीं है। तो क्या यह मानकर बैठ जाना चाहिए भारत की राजनीति बूरे लोगों के हाथ में है और ये बुरे लोग ही भारत की दिशा तय करते रहेंगे?
भारत के अन्य संचार माध्यमों में व्यवसायिकता हावी हो गई है,खबरों को लाभ और हानि के दृष्टिकोण से तौला जाता है,गंभीर बहसों की गुंजाईश न के बराबर है। एसे में ब्लॉग एक धारधार हथियार के तौर पर उभरकर सामने आ रहा है। गहरी संवेदनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करने के साथ-साथ इसका इस्तेमाल जीवन और समाज, राष्ट्र, धर्म, अर्थ और संस्कृति से जुड़े गंभीर पहलुओं की पड़ताल करने के लिए भी किया जा रहा है। उम्मीद है कि समय के साथ जनमत निर्माण की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी यह बखूबी निभाने लगेगा।
मेरा स्पष्ट रूप से मानना है कि लोकतन्त्र के लिये अभी हम पूरे परिपक्व नहीं हुए हैं, हमें सिर्फ़ आजादी चाहिये, लेकिन कर्तव्य करने में कोताही बरतते हैं, भ्रष्टाचार, जातिवाद और शोषण हमारी रग-रग में समाया हुआ है। कानून के मुताबिक काम करने वाले भारतीय बहुत कम हैं… वैसे भी कानून का पालन और अनुशासन भारत के लोग तभी करते हैं, जब उनके सिर पर डंडा तना हुआ हो, वरना दिनदहाड़े बिजली चोरी करने से भी बाज नहीं आते…
ReplyDeletebhai suresh ji ke vicharo se mai sahamat hun . thanks
ReplyDeleteजब तक लोग संवेदना के चलते लिख रहे है तब तक हीं यह धार है। लेकिन मुझे डर है की जल्द ही विदेशी धन से चलने वाले आई.एन.जी.ओ. से जुडे लोग ब्लाग लिखना शुरु कर देंगें और छा जाएगे। तब ब्लाग का भी वही हाल होगा जो आज टीवी चैनल और लगभग प्रिंट मिडीया का भी है। लेकिन जब तक उनका हमला नही होता तब तक धारदार बाते पढने को मिलती रहेगी।
ReplyDeleteआपकी बात बिलकुल सही है । मैं जो शुरु से ही 'ब्लाग' को सामाजिक परिवर्तन में सहायक धारदार औजार के रूप में देख रहा हूं ।
ReplyDeleteमैं ने मई 2007 से ब्लाग जगत में प्रवेश किया है । हिन्दी के प्रचार-प्रसार में ब्लाग के सहायक होने को लेकर, 3 जुलाई 2007 को मैं ने 'ब्लागियों !उजड् जाओ' शीर्षक पोस्ट लिखी थी जिसे http://akoham.blogspot.com/2007/06/blog-post_18.html पर पढा जा सकता है । उसमें 'हिन्दी' के स्थान पर 'सामाजिक बदलाव' पढा जाने पर आपकी बात की पुष्टि स्वत: हो जाती है ।
यदि मुट्ठीभी ब्लागिए ही जुट जाएं तो क्या नहीं हो सकता ?
वस्तुत: 'ब्लाग' तो सर्वाधिक शक्तिशाली एनजीओ बन सकता है ।