न तुमने निभाई,न हमने निभाया

कसमें खाई थी संग-संग हमने
न तुमने निभाई,न हमने निभाया ।
एक अनजानी डगर पे संग चले थे मीलों
न तुझे होश थी,न मैं कुछ जान पाया।
दुरियों के साथ मिटते गये फासले
मैं जलता गया,औ तुम पिघलती गई।
तुझे आरजू थी,मेरी नम्र बाहों की
मुझे आरजू थी तेरी गर्म लबों की।
दामन बचाना मुश्किल हुआ
तूम बहती रही, हम बहकते रहे।
टपकता रहा आंसू तेरी आंखों से
मेरी रातों की नींद जाती रही ।
चांद तले हम संग सफर में रहे
न मैं कुछ कहा, न तू कुछ कही ।
तेरी धड़कन मेरी सांसों में घुली
खामोश नजरों ने सबकुछ कहे ।
नये मोड़ पर नई हवायें बही
मैं भी ठिठका,और तू भी सिहरी ।
छुड़ाया था दामन हौले से तुमने
मैंने भी तुझको रोका नहीं था ।
हवाओं के संग-संग तू बह चली थी
घटाओं में मैं भी घिरता गया था।
बड़ी दूर तक निकलने के बाद
खाली जमीं थी,खुला आसमां था।
गुजरे पलों को समेटू तो कैसे
आगे पथरीला रास्ता जो पड़ा है ?
तुझे भी तो बढ़ना है तंग वादियों
जमाने की नजरे तुझपे टिकी है
मोहब्बत की मर्सिया लिखने से पहले
दफन करता हूं मै तेरी हर वफा को
तुमसे भी ना कोई उम्मीद है मुझको
लगाये न रखो सीने से मेरी खता को
कसमें खाई थी संग-संग हमने
न तुमने निभाई, न हमने निभाया।

Comments

  1. बहोत खूब लिखा है आपने .....

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  2. बहुत ख़ूब

    ---
    तखलीक़-ए-नज़र
    http:/vinayprajapati.wordpress.com

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  3. कसमें खाई थी संग-संग हमने
    न तुमने निभाई, न हमने निभाया।
    ??? क्या कहे? आप की कविता तो बहुत दुर तक लेजाती है, ओर जख्मो को ओर गहरा करती है.
    सुंदर कविता के लिये आप का धन्यवाद

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  4. कसमें खाई थी संग-संग हमने
    न तुमने निभाई, न हमने निभाया।
    बहुत सुंदर लिखा है...बधाई।

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  5. dil ke jazbat bahut sundar baan huye hai bahut badhai

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