परमाणु करार का सच - 1


माकपा के पोलित ब्यूरो ने पार्टी नेतृत्व को यह फैसला लेने का हक दे दिया कि यूपीए सरकार को मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए. क्या होगा यह तो बाद की बात है, लेकिन यह बात गौर किए जाने की है कि पार्टी नेतृत्व ने पोलित ब्यूरो से तब ऐसा कोई हक मांगने की जरूरत नहीं समझी जब उसकी सहानुभूति का केंद्रीय वर्ग (लक्ष्य समूह इसलिए नहीं कह रहा हूँ क्योंकि यह पूंजीवादी कोष का शब्द है) यानी सर्वहारा अपने को सबसे ज्यादा तबाह, थका-हरा और सर्वहारा महसूस कर रहा था. महंगाई और बेकारी, ये दो ऎसी मुसीबतें हैं जो इस वर्ग को जमींदोज कर देने के लिए काफी हैं और यूपीए सरकार के कार्यकाल में ये दोनों चीजें बेहिसाब बढ़ी हैं. ऐसा नहीं है कि अब ये घट गई हैं या नहीं बढ़ रही हैं, पर कामरेड लोगों ने इन मसलों पर थोडा-बहुत फूं-फां करने के अलावा और कुछ किया नहीं. यह बात भी सुनिश्चित हो गई कि परमाणु करार वाले मसले पर भी ये लोग इससे ज्यादा कुछ करेंगे नहीं. प्रकाश करात ने कह दिया है कि हम सरकार अस्थिर करने के पक्ष में नहीं है, लेकिन इसके बाद भी सरकार को करार पर कदम बढाने से पहले अपने भविष्य का भी फैसला करना होगा. सवाल यह है कि जब आप सरकार अस्थिर करने के पक्ष में नहीं ही हैं तो सरकार को अपने भविष्य का फैसला करने की धमकी देने का क्या मतलब है? भाषा की जलेबी छानना इसे ही कहते हैं. ऐसा नहीं है कि मैं कामरेड लोगों की नीयत पर शक कर रहा हूँ. मेरा शक सरकार की नीयत पर भी नहीं है. बस कुछ छोटे-छोटे सवाल हैं, जिनसे मैं जूझ रहा हूँ और चाहता हूँ कि आप भी जूझें. क्योंकि भारत जितना मेरा है, उतना ही आपका भी है और उतना ही मनमोहन सिंह का भी है. सरकार का तर्क है कि वह यह करार इसलिए कर रही है कि इससे भारत में ऊर्जा उत्पादन बढ़ जाएगा. मान लिया, पर सवाल यह है कि उस बढ़े हुए ऊर्जा उत्पादन का हम क्या करेंगे? यह बात गौर करने की है कि भारत क्या वास्तव में ऊर्जा संकट से जूझ रहा है या ऊर्जा के कुप्रबंधन से जूझ रहा है? इस मसले पर नए सिरे से और गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए. ध्यान रहे भारत में तीस प्रतिशत से ज्यादा बिजली सिर्फ लाईन फाल्ट के चलते नष्ट हो जाती है. इस समझौते की जो कीमत भारत को चुकानी पडेगी उसकी तुलना में यह फाल्ट ठीक कराने पर बहुत मामूली लागत आएगी.
यह कौन नहीं जानता कि हमारे देश में बिजली को बरबाद करने की ही तरह उसकी चोरी भी एक शगल है. इस चोरी के लिए आम जनता और उनमें भी खास तौर से मलिन और दलित बस्तियों में रहने वाले गरीब लोग ज्यादा बदनाम हैं. हकीकत यह है कि यह चोरी सफेदपोश लोगों की बस्तियों में ज्यादा होती है. इस काम में कोई और नहीं बिजली विभाग और बदले परिदृश्य में कंपनियों के कर्मचारी ही सहयोग करते हैं. अव्वल तो बात यह है कि घरेलू कामकाज में बिजली की जो चोरी होती है वह भारत में होने वाली बिजली चोरी का दसवां हिस्सा भी नहीं है. बिजली की इससे ज्यादा चोरी सरकारी सेक्टर में होती है. कौन नहीं जानता कई सरकारी संस्थानों पर विभिन्न राज्यों में बिजली बोर्डों के अरबों रुपये बकाया पडे हैं. इस बकाये के चलते बोर्ड ग्रिडो को भुगतान नहीं कर पाते, ग्रिड बिजली घरों को भुगतान नहीं कर पाते, बिजली घर ऊर्जा स्रोतों का इंतजाम नहीं कर पाते और अंततः देशवासियों को बिजली नहीं मिल पाती.
क्या वर्षों से चला आ रहा अरबों रुपये का यह बकाया जिसके लौटने की अब कोई उम्मीद भी बेमानी है, चोरी से कम है. यह सरकारें देशवासियों से लेकिन नहीं कैसे करती हैं कि वे इसकी बकाया रकम का भुगतान कर दें? लेकिन नहीं बिजली की सरकारी चोरी भी बहुत बड़ी चोरी नहीं है. बिजली की सबसे ज्यादा चोरी दरअसल औद्योगिक क्षेत्र में हो रही है. यह चोरी छोटे-छोटे कर्मचारियों के जरिये नहीं हो रही है. इसमें बिजली विभाग के बडे अफसर शामिल होते हैं. औद्योगिक आस्थानों में बिजली चोरी की जांच-पड़ताल के लिए अगर कभी रेड भी पडी होती है तो उन्हें हफ्ता भर पहले से पता होता है और इस दौरान वे अपनी खाता बही तक सब कुछ दुरुस्त कर चुके होते हैं. जहाँ चोरी का यह आलम हो वहाँ कोई यह उम्मीद कैसे कर सकता है कि ऊर्जा का उत्पादन बढ़ जाने भर से ही उसका संकट हल हो जाएगा?

और तो और, केंद्र सरकार भारत में ऊर्जा संकट को लेकर कितनी गम्भीर है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ऊर्जा क्षेत्र के लिए नियामक का पद पिछले एक साल से भी ज्यादा समय से खाली पड़ा है. जहाँ तक सवाल बिजली उत्पादन का है, इस पर ज़द (यू) नेता दिग्विजय सिंह की बात गौरतलब है. वह कहते हैं कि अगर यह समझौता हुआ तो 2020 तक देश में 20 हजार मेगावाट बिजली पैदा की जा सकेगी. लेकिन अगर सिर्फ नेपाल से आने वाली नदियों को बाँध कर जल विद्युत परियोजनाओं को दुरुस्त कर लिया जाए तो 60 हजार मेगावाट बिजली पैदा की जा सकती है. इससे हम बिहार और उत्तर प्रदेश को बढ़ की तबाही से बचाने के साथ-साथ अपने पड़ोसी देश नेपाल की गरीबी भी दूर कर सकेंगे.

मेरा ख़्याल यह है कि आप बिजली उत्पादन बढ़ा कर भी क्या करेंगे, अगर आप उसके पारेषण और वितरण की व्यवस्था दुरुस्त नहीं कर सकते हैं तो? यह बात तो जगजाहिर है कि केवल यूपीए ही नहीं, हमारे देश की किसी भी पार्टी या गठबंधन की सरकार में किसी भी सेक्टर की व्यवस्था सुधारने के प्रति कोई इच्छाशक्ति नहीं है. अगर होता तो अब तक ऊर्जा संकट जैसी कोई बात ही भारत में नहीं बची होती. अब अगर केवल इतनी सी बात के लिए यह समझौता किया जा रहा हो, तब तो बहुत बुरी बात है. सच यह है कि उत्पादन बढाने के नाटक से ज्यादा जरूरी व्यवस्था में सुधार है और व्यवस्था में सुधार का मतलब किलो चोरों को परेशान कर सस्ती लोकप्रियता अर्जित करना नहीं, टन डकैतों को पकड़ कर जनता के हक पर डकैती को रोकना है. पर ऐसा कोई सरकार क्यों करे?
(फिलहाल आप इस मुद्दे पर सोचें. परमाणु करार से जुडे अन्य मसलों का सच अगली कडी में)
इष्ट देव सांकृत्यायन

Comments

  1. ऊर्जा के क्षेत्र में घोर कुप्रबन्ध है ही, कमी भी है. आप नाभिकीय ऊर्जा को काट कर समाधान देख रहे हैं, मुझे लगता है, वह (नाभिकीय ऊर्जा) जरूरी है.

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  2. यार ये आप इत्ती समझदारी की बातें कर रहे हैं कि लग ही नही रहा है कि आपकी हैं।

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  3. तीन दिन के अवकाश (विवाह की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में) एवं कम्प्यूटर पर वायरस के अटैक के कारण टिप्पणी नहीं कर पाने का क्षमापार्थी हूँ. मगर आपको पढ़ रहा हूँ. अच्छा लग रहा है.

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