...यूं ही कभू लब खोलें हैं


आने वाली नसलें तुम पे रश्क करेंगी हमअसरों
जब उनको ये ध्यान आयेगा तुमने फिराक को देखा था
इसे आप चाहें तो नार्सिसिया की इंतहां कह सकते हैं. जैसा मैने लोगों से सुना है अगर उस भरोसा कर सकूं तो मानना होगा वास्तव में
फिराक साहब आत्ममुग्धता के बहुत हद तक शिकार थे भी. यूँ इसमें कितना सच है और कितना फ़साना, यह तो मैं नहीं जानता और इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं करूंगा कि आत्ममुग्ध होना सही है या ग़लत, पर हाँ इस बात का मलाल मुझे जरूर है कि मैं फिराक को नहीं देख सका. हालांकि चाहता तो देख सकता था क्या? शायद हाँ, शायद नहीं.... ये अलग है कि फिराक उन थोड़े से लोगों मैं शामिल हैं जो अपने जीते जी किंवदंती बन गए,पर फिराक के बारे में मैं जान ही तब पाया जब उनका निधन हुआ। 1982 में जब फिराक साहब का निधन हुआ तब मैं छठे दर्जे में पढता था. सुबह-सुबह आकाशवाणी के प्रादेशिक समाचार में उनके निधन की खबर जानकर पिताजी बहुत दुखी हुए थे। यूँ रेडियो बहुत लोगों के मरने-जीने की बात किया करता था, पर उस पर पिताजी पर कोई फर्क पड़ते मैं नहीं देखता था. आखिर ऐसा क्या था कि वह फिराक साहब के निधन से दुखी हुए. मेरे बालमन में यह कुतूहल उठना स्वाभाविक था. पिताजी दुखी हुए इसका मतलब यह था कि फिराक साहब सिर्फ बडे नहीं, कुछ खास आदमी थे. पूछने पर पिताजी ने बातें तो तमाम बताएँ, पर मेरी समझ में कम ही आईं. लब्बो-लुआब जो मैं समझ पाया वह यह था कि फिराक गोरखपुरी एक बडे शायर थे और उर्दू व अन्ग्रेज़ी के बडे विद्वान भी थे. मूलतः वह गोरखपुर जिले की बांसगाँव तहसील के रहने वाले थे. बावजूद इसके पिताजी ने भी उन्हें देखा नहीं था. यूँ फिराक साहब का गुल-ए-नगमा पिताजी के पास था और उसके शेर वह अक्सर सुनाते रहते थे. बात-बात पर वह उससे उद्धरण देते थे और शायद इसीलिए फिराक को न जानते हुए भी उनके कई शेर मुझे तभी याद हो गए थे. इनमें एक शेर मुझे खासा पसंद था और वह है :
किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी
ये हुस्न-ओ-इश्क सब तो धोका है मगर फिर भी.
ये अलग बात है कि तब इसके अर्थ की कोई परछाईं भी मेरी पकड़ में नहीं आने वाली थी. फिराक साहब और उनका गुल-ए-नगमा मुझे समझ में आना शुरू हुआ तब जब मैने दसवीं पर कर गया. जैसे-जैसे बड़ा होता गया फिराक साहब अपनी शायरी के जरिए मेरे भी ज्यादा अजीज होते गए. फिराक, उनकी शायरी, उनके क्रांतिकारी कारनामे और उनसे जुडे तमाम सच्चे-झूठे किस्से. खास तौर से कॉलेज के दिनों में तो हम लोगों ने फिराक के असल अशआर की जगह उनकी पैरोदियाँ ख़ूब बनाईं. पैरोडियों के बनाने में जैसा मनमानापन सभी करते हैं हमने भी किया.
पर अब सोचते हैं तो लगता है कि जिन्दगी की जैसी गहरी समझ फिराक को थी, कम रचनाकारों को ही हो सकती है. कहने को लोग कुछ भी कहें, पर यही नार्सिसिया फिराक की शायरी जान भी है. जब वह कहते हैं :
क़ैद क्या रिहाई क्या है हमीं में हर आलम
चल पडे तो सेहरा है रूक गए तो जिंदां है.

वैसे फिराक की यह नार्सिसिया ठहराव की नहीं है. यह मुक्ति, अपने से पर किसी और अस्तित्व के तलाश की और उससे जुडाव की ओर ले जाने की नार्सिसिया है. यह वह रास्ता है जो अस्तित्ववाद की ओर ले जाता है. वह शायद अस्ति की तलाश से उपजी बेचैनी ही है जो उन्हें यह कहने को मजबूर करती है:
शामें किसी को मांगती हैं आज भी 'फिराक'
गो ज़िंदगी में यूं तो मुझे कोई कमी नहीं

अस्ति की खोज उनकी शायरी लक्ष्य है तो प्रेम शायद उसका रास्ता. ऐसा मुझे लगता है. कदम-कदम पर वह अपनी तासीर में अस्तित्ववाद की ओर बढते दिखाई देते हैं :
तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो
तुमको देखूं कि तुमसे बात करूं
या फिर जब वह कहते हैं :
आज उन्हें मेहरबां पा कर
खुश हुए और जी में डर भी गए.

द्वंद्व का यह आलम फिराक में हर तरफ है. तभी तो प्रेम का साफ-साफ जिक्र आने पर भी वह कहते हैं:
मासूम है मुहब्बत लेकिन इसी के हाथों
ऐ जान-ए-इश्क मैने तेरा बुरा भी चाहा
फिर वही फिराक यह भी कहते हैं :
हम से क्या हो सका मुहब्बत में
खैर तुमने तो बेवफाई की.

व्यवहार में फिराक जो भी रहें हों, पर यकीनन शायरी में तो वह मुझे आत्ममुग्धता के शिकार नहीं, आत्मविश्लेषण और आत्मानुसंधान के आग्रही नजर आते हैं.
लीजिए इस अलाहदा शायर की एक गजल आपके लिए भी :
अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूं ही कभू लब खोलें हैं
पहले "फिराक" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं
दिन में हम को देखने वालो अपने अपने हैं ओकात
जाओ ना तुम इन खुश्क आंखों पर हम रातों को रो ले हैं
फितरत मेरी इश्क-ओ-मुहब्बत किस्मत मेरी तनहाई
कहने की नौबत ही ना आई हम भी कसू के हो ले हैं
बाग़ में वो ख्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं
उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंधें
हाय वो आलम जुम्बिश-ए-मिज़गां जब फित्ने पर तोले हैं
इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होए है नदीम
खल्वत में वो नर्म उंगलियां बंद-ए-काबा जब खोलें हैं
गम का फ़साना सुनाने वालो आख़िर-ए-शब् आराम करो
कल ये कहानी फिर छेडेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं
हम लोग अब तो पराए से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फिराक"
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं.
इष्ट देव सांकृत्यायन

Comments

  1. यकीनन फिराक साहब को ज़िंदगी ही नहीं, भाषा की भी गहरी समझ थी। वो हिंदी को कोई भाषा नहीं मानते थे। हिंदवी या हिंदुस्तानी ही उनके मुताबिक असली भाषा है। वो गाली देकर कहते थे कि हज़ार लोगों में एक हिंदी साहित्यकार को खड़ा कर दो, मैं पहचान लूंगा। हां, एक बात और मैंने भी फिराक को देखा था और ये शेर भी उनसे सुना था कि आनेवाली नस्लें...

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  2. फ़िराक हमेशा फैसिनेट करते रहे - अब भी करते हैं. पर दिक्कत यही है कि उर्दू में अपना हाथ बहुत तंग है.
    यह आप का लिखा बहुत अच्छा लगा.
    क़ैद क्या रिहाई क्या है हमीं में हर आलम
    चल पडे तो सेहरा है रूक गए तो ज़िंदा है.

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  3. फिराक साहब की बात ही जुदा है. अच्छा लगा आपको पढ़कर.

    आप ब्लॉग के फॉन्ट थोड़े से बड़े कर सकें तो पढ़ना सरल हो जाये. अगर संभव हो तो.

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  4. लो जी महराज यही शिकायत लेकर टिप्पणी करने आये थे कि इष्टदेव जी फाण्ट थोड़े और छोटे कर दीजिए तब कम्प्यूटर में घुसकर पढ़ेंगे. लेकिन समीर जी ने पहले ही सुझाव दे दिया है.

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  5. साहिरजी की खूबसूरत गजल पढवाने के लिये ध्न्यवाद,
    आपकी इस पोस्ट से प्रेरित होकर मैने अपने चिट्ठे पर उनकी इस गजल को जिसे जगजीत सिंह ने गाया है पोस्ट की है, गौर फ़रमाईयेगा..
    http://antardhwani.blogspot.com
    साभार,
    नीरज

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  6. फिराक की सबसे दिलचस्‍प बात मुझे उनका रोमांटिसिज्‍म लगती है । जिस तूफानी तरीके से उन्‍होंने अपनी रोमांटिक शायरी लिखी है वो निराला है, उर्द गजल के क्‍लासिकी अंदाज के साथ साथ फिराक में आधुनिकता है वो अपनी मार्क्‍सवादी सोच को अपने रोमांटिसिज्‍म में मिलाकर बड़े ही अनूठे अंदाज में पेश करते हैं ।

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  7. ज्ञानदत्त जी, (इष्टदेव जी से क्षमायाचना सहित), शेर का सही स्वरूप यह है-

    कैद क्या रिहाई क्या, है हमीं में हर आलम
    चल पड़े तो सहरा है, रुक गए तो जिंदां है।

    ...यानी जिंदगी अगर चलती रहे तो रेगिस्तान है और रुक जाए तो जेलखाना है...बंधन और मुक्ति के अलग से कोई मायने नहीं होते, क्योंकि सारा कुछ अंततः अपने मन की कारस्तानी है।

    और हां, मार्क्सवाद से फिराक का सिर्फ कोई बौद्धिक रिश्ता शायद हो तो हो। उनकी सोच और शायरी आद्योपांत वैदिक या वेदांती दर्शन से प्रभावित रही है... इस तरह की घोषणा वे एकाधिक बार कर चुके थे और उनकी शायरी (इस खास शेर समेत) इसका जीता-जागता प्रमाण है।

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  8. फ़िराक गोरकपुरी पर आपका लेख पढ़ना सुखद रहा।
    मेरी भी यही उम्र थी जब रघुपति सहाय फ़िराक गोरखपुरी साहब का निधन हुआ था, तब तक मैने भी फ़िराक साहब के बारे में कुछ नहीं पढा था।
    पिताजी को उदास देखकर मैने जब उनसे पूछा तो पिताजी ने कारण बताया और फिराक साहब की कविता माँ मुझे पढ़वाई। और मैं तब से फ़िराक साहब का प्रशंषक बना।
    आदरणीय फुरसतियाजी (अनूप शुक्लाजी) ने मेरे अनुरोध पर फ़िराक गोरखपुरी की यह लम्बी कविता (दस पन्नों की) अपने ब्लॉग पर प्रकाशित भी की थी और फ़िराक साहब के जीवन पर भी उसमें विस्तार से लिखा था।
    मैं उस लेख का लिंक यहाँ दे रहा हूँ।
    रघुपति सहाय फ़िराक़’ गोरखपुरी

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  9. भाई उड़न तश्तरी जी और संजय जी
    आपके सुझावानुसार मैने फॉण्ट की साइज़ तो बढ़ा दी.

    भाई चंदू जी
    बात आपकी बिल्कुल सही है. फिराक की ज्यादा निकटता शैव दर्शन से है. पर चेतना के स्तर पर मार्क्सवाद से भी उनका जुडाव था. मार्क्सवादी तो नहीं, पर सिम्पेथाइज़र जरूर कहे जा सकते हैं. और जिंदां दरअसल यूनीकोड में आ नहीं रहा था, तो उसे मैने आपकी टिप्पणी से कपिया कर चेप दिया है. धन्यवाद.

    भाई सागर जी
    फ़ुरसतिया जी का लिंक देने के लिए धन्यवाद. अब उसे मैने यहाँ से भी जोड़ दिया है. सचमुच दिलचस्प है.

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  10. फिराक के बारे में आपका ये लेख पसंद आया शुक्रिया ! :)

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