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Showing posts from January, 2011

मत समझो आजादी गांधी ही लाया था....

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मत समझो आजादी गांधी ही लाया था.... बिस्मिल ने भी इसकी खातिर रक्त दिया था... बंगाली बाबू का भी बलिदान ना कम है... कितने अश्फाकों ने इसमें वक़्त दिया था... कली- कली निर्दय माली पर गुस्साई थी, सच कहता हूँ तब ही आजादी आई थी... लाखों दीवानों ने गर्दन कटवाई थी सच कहता हूँ तब ही आजादी आई थी.. (डॉ सारस्वत मोहन मनीषी की कविता का एक अंश )

इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है....

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ठण्ड गुजरने को है पर इस साल अभी तक बाजरे की रोटी नहीं खाई.गाँव में थे तो सर्दी शुरू होते ही रोजाना बाजरे की रोटी खाने को मिलती थी, गरमागरम. संग में कभी सरसों का साग, कभी चने का साग तो कभी उड़द की दाल.रोटी के ऊपर देशी घी की मोटी सी डली और गुड.बाजरे की खिचडी और बाजरे की रोटी का गुड मिला चूरमा भी कितना लजीज होता था...!!! गाँवबदर हो शहर आए तो मक्के की रोटी भी खाने को मिली, पर वो मजा कभी नहीं आया जो गाँव में आता था...जब तक घर में गैस का चूल्हा नहीं आया था तो मिट्टी के चूल्हे पर सिकी करारी रोटी मिलती थी.चौके में चूल्हे के सामने जमीन पर बैठकर तवे से उतरती गरमागरम रोटी खाने का मजा ही अलग था. माँ बनाती जाती और हम दोनों भाई खाते जाते, कभी छोटी बहन के साथ तो कभी पिताजी के साथ. कलई से चमके हुए पीतल के थाल में, जो हमारे होश सँभालते सँभालते स्टील की थाली बन गया और जब गैस का चूल्हा आ गया तो बाकी सब तो वही रहा पर रोटी की मिठास बदल गई. जो मीठापन लकड़ी की आग में चूल्हे पर सिकी रोटी में था वो गैस में कहाँ... मुझे याद नहीं कि माँ ने भी कभी अपने चौके में तवे से उतरती गरमागरम करारी बाजरे की रोटी खाई हो...!

आजादी को भीख ना समझो कीमत दी है..

आजादी को भीख ना समझो कीमत दी है.. देकर अपना लाल लहू यह रंगत दी है.. आज तिरंगा गीले नयन निहार रहा है.. देशभक्त वीरों को पुनः पुकार रहा है... (डाक्टर सारस्वत मोहन मनीषी की कविता से) - अनिल आर्य

कश्मीर के हर पहरुए के सीने पे तिरंगा है...हर सीने में तिरंगा है...

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क्या इसी का नाम आज़ादी है कि अपने ही देश में अपने ही राष्ट्रीय झंडे को फहराने पर रोक लगा दी जाए..? क्या यही गणतन्त्र है कि जन-गण-मन की भावनाओं का पूरी बेशर्मी के साथ अपमान किया जाए....? क्या इसे ही लोकतंत्र कहते हैं कि वोट की खातिर दुश्मन के मंसूबों को पूरा करने के लिए हर वक़्त अपना पाजामा खोल के रखा जाए ...? लुच्चेपन की हद हो गई है. पूरी बेशर्मी, ढिठाई और वाहियात तरीके से तिरंगा फहराने पर पाबंदी लगाने में जुटे हुए हैं उमर अब्दुल्ला और उनके इस बेसुरे 'राग गधैया' की संगत करने में संलिप्त हैं वो तमाम 'उल्लू के चरखे' जिन्हें दिन में भी 'सूरज-चांद' ही दिखते हैं .. पर अब यह प्रश्न केवल भाजपा की तिरंगा यात्रा का नहीं, बल्कि प्रश्न है भारत के स्वाभिमान का...तिरंगे की आन बान शान का...और उसके लिए कुछ भी करने के लिए इस देश को प्यार करने वाला हर जन-गण-मन सदैव सर्वस्व न्यौछावर करने को उद्यत रहता है....हैरानी तो यह है कि श्री नगर में पाकिस्तानी झंडा तो लहराया जा सकता है, तिरंगा फहराने पर आपत्ति है...पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे तो लगाये जा सकते हैं, भारत की जय जय करने से वह
सूरज हो मुकाबिल तो शरारा नहीं टिकता । दिन में कोई आकाश में तारा नहीं दिखता ॥ मुश्किल में बदल जाते हैं हर नाते और रिश्ते- रोने को भी काँधे का सहारा नहीं दिखता । ईमान की कीमत न चुका पाओगे मेरे- वरना सर-ए-बाज़ार यहाँ क्या नहीं बिकता । सरकारें बदल बदल के यह देख लिया है- हालात बदल पाने का चारा नहीं दिखता । संसद पे जमा रक्खा है बगुलों ने यूँ कब्ज़ा- हंसो का सियासत मे गुज़ारा नहीं दिखता । - विनय ओझा स्नेहिल

अपनी पवित्र गायों से द्रोह

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अपनी पवित्र गायों से द्रोह यह जानकर शायद आपको झटका लगेगा कि हमने अपनी देसी गायों को गली-गली आवारा घूमने के लिए छोड़ दिया है, क्योंकि वे दूध कम देती हैं और इसलिए उनका आर्थिक मोल कम है, लेकिन आज ब्राजील हमारी इन्हीं गायों की नस्लों का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है। ब्राजील भारतीय प्रजाति की गायों का निर्यात करता है, जबकि भारत घरेलू दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए अमरीका और यूरोपीय प्रजाति की गायें आयात करता है। वास्तव में, तीन महत्वपूर्ण भारतीय प्रजाति गिर, कंकरेज और ओंगोल की गायें जर्सी गाय से भी ज्यादा दूध देती हैं, यहां तक कि भारतीय प्रजाति की एक गाय तो होलेस्टेन फ्राइजियन जैसी विदेशी प्रजाति की गाय से भी ज्यादा दूध देती है। जबकि भारत अपने यहां दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए होलेस्टेन फ्राइजियन का आयात करता है। अब जाकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के गर्व - गिर प्रजाति की गाय - को स्वीकार करने का निश्चय किया है। उन्होंने हाल ही में मुझे बताया कि उन्होंने उच्च प्रजाति की शुद्ध गिर नस्ल की गाय को ब्राजील से आयात करने का निश्चय किया है। उन्होंने यह भी कहा कि आयात की गई गिर गाय क

लाल चौक पर तिरंगा...

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श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा लहराने से उमर की आपत्ति बेमानी है. घाटी का माहौल ख़राब होने का हौव्वा खड़ा कर वो अपनी नालायकी और नाकारापन ही दर्शा रहे हैं. क्यों नहीं वो खुद आगे आकर कहें कि आओ मैं भी सबके संग लाल चौक पर तिरंगा लहराऊंगा...!!! - अनिल आर्य

नहीं बनना नेता...

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इस साल गणतंत्र दिवस पर वीरता पुरस्कार से सम्मानित होने वाले बच्चों ने बड़े होकर नेता बनने से साफ इनकार कर दिया.... इन बच्चों से पूछा गया था कि बड़े होकर क्या बनना चाहोगे..? उन्होंने डाक्टर बनना चाहा, इंजिनियर बनना चाहा,वकील बनना चाहा, पत्रकार बनना चाहा पर नेता नहीं...जय हो..!!! - अनिल आर्य

मज़हब बदलने से पुरखे नहीं बदलते....सो अपने पुरखों की जय बोलने में गुरेज़ कैसा....!!!

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मज़हब बदलने से पुरखे नहीं बदलते....सो अपने पुरखों की जय बोलने में गुरेज़ कैसा....!!! दरअसल, मेरे एक मुस्लिम मित्र हैं. बीते सप्ताह यह बात उन्होंने मुझे कही. सन्दर्भ था सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मसले के जाने का.मुझे उनकी बात में दम लगा. कहीं भी किसी कोण से क्या आपको लगता है कि वो गलत कह रहे हैं ?क्या आपको लगता है कि यह साम्प्रदायिक कथन है?कम से कम न तो उन मुस्लिम मित्र को लगा न ही मुझे. उनका मानना है कि भारत में इस्लाम कुछ सौ साल पहले ही आया. उससे पहले यहाँ ना तो कोई इस्लाम को जानता था और ना ही मस्जिद नाम के किसी पूजा स्थल के बारे में.मुगलों के आने और खासतौर पर औरंगजेब द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन के बाद ही यहाँ मुसलमानों की आबादी इस कदर बढी है. लेकिन इससे उनके पुरखे तो नहीं बदले. सवाल यह है कि इस देश में अब रहने वाले मुसलमानों के पुरखे कौन थे ? क्या राम और कृष्ण उनके भी पूर्वज नहीं हैं..? क्या राम और कृष्ण जितने हिन्दुओं के हैं उतने ही उनके भी नहीं हैं ...आखिर राम और कृष्ण हैं तो हम सब हिन्दुस्तानियों के पुरखे ही सो पुरखों की जय बोलने में दिक्कत कैसी? भले ही आज हमारे पूजा-पाठ के तौर तरीके

वो यादें...

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बीती शाम ही छोटे भाई के साथ जमीन पर बैठकर एक ही थाली में आलू के झोल के साथ रोटी खा रहा था....भाई कहने लगा-"भैया याद आया कैसे गाँव में चूल्हे के सामने बैठकर आलू के झोल के साथ रोटी खाते थे..!!! माँ रोटी बनाती जाती और हम पहली गस्सी (रोटी का पहला ग्रास) के लिए झगड़ते थे कि पहले मैं लूँगा कि पहले मैं लूँगा. जब छोटी बहन भी संग बैठने लगी तो पहली गस्सी कौन उसे पहले खिलायेगा इस पर झगडा होता था." सच बहुत याद आए वो दिन पर अब कहाँ वो सब..!!! भाई अपने घर, बहन अपने घर और मैं अपने घर. अपने- अपने डब्बों में बंद, सिमटे हुए और माँ- पिता जी कभी इस घर तो कभी उस घर, जब जहां उनका जी चाहे. शायद परिवार यूं ही बढ़ते हैं और संसार यूं ही चलता है...बिना थके, बिना रुके, अनवरत.....

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