ग़ज़ल
विनय ओझा स्नेहिल
हर एक शख्स बेज़ुबान यहाँ मिलता है.
सभी के क़त्ल का बयान कहाँ मिलता है..
यह और बात है उड़ सकते हैं सभी पंछी -
फिर भी हर एक को आसमान कहाँ मिलता है..
सात दिन हो गए पर नींद ही नहीं आयी -
दिल को दंगों में इत्मीनान कहाँ मिलता है..
न जाने कितनी रोज़ चील कौवे खाते हैं -
हर एक लाश को शमशान कहाँ मिलता है..
हर एक शख्स बेज़ुबान यहाँ मिलता है.
सभी के क़त्ल का बयान कहाँ मिलता है..
यह और बात है उड़ सकते हैं सभी पंछी -
फिर भी हर एक को आसमान कहाँ मिलता है..
सात दिन हो गए पर नींद ही नहीं आयी -
दिल को दंगों में इत्मीनान कहाँ मिलता है..
न जाने कितनी रोज़ चील कौवे खाते हैं -
हर एक लाश को शमशान कहाँ मिलता है..
वाह विनय भाई!! बहुत खूब!!
ReplyDeleteशब्द ऐसे बाँधे हैं कि बहुत प्रभावित करते हैं।
ReplyDeleteन जाने कितनी रोज़ चील कौवे खाते हैं -
ReplyDeleteहर एक लाश को शमशान कहाँ मिलता है..
बहुत खूब
कुछ इसी तरह कभी मैने लिखा था,
कौन कह रहा हर मिट्टी को मिल जाते हैं काँधे चार,
लावारिस बैरक में इतनी लाशें सड़तीं क्यों आखिर?
bahut sundar ,,,,
ReplyDelete31DFE02E03
ReplyDeletesms onay
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