आत्मबल और धैर्यः कोरोना से जंग जीतने के सबसे बड़े हथियार

विजय विनीत

भयानक सुनामी की तरह मेरी जिंदगी में घुसा कोरोनावायरस। महामारी से भीषण लड़ाई भी हुई। इस लड़ाई ने हमें मुझे बहुत कुछ सिखाया। ताकत का एक बड़ा मंत्र दिया। कोरोना से लड़ने का सबसे बड़ा हथियार-धैर्य और आत्मबल।

हम कोरोना की भयावहता को जानते थे। ये भी जानते थे कि यह यह महामारी जान भी ले सकती है। चौदह दिनों तक इस बीमारी का भयंकर कष्ट सहा। रात कराहते बीतती थी। लेकिन मेरा आत्मबल जरा भी कम नहीं हुआ। मैं टूटा नहीं। अपनी जिंदगी का फैसला खुद करता रहा। संज्ञाहीन (कोमा) होने के पहले और बाद में भी। वाइप ऐप के बगैर आक्सीजन के सांस लेना मुश्किल था, पर चेहरे पर तनिक भी शिकन नहीं आने दी। परिजनों और शुभचिंतकों से जब भी बातें होती थी, तो अपनी सेहत के बारे में ढेरों झूठी बातें और कहानियां सुना देता था। अस्पताल में जिनके फोन आते थे, उनसे खूब बातें करता था। उत्साह से बोलता था। एहसास नहीं होने देता था कि कोरोना मेरा कुछ बिगाड़ पाएगा।

26 जुलाई को अस्पताल के डा. सारस्वत राठौर ने मेरी बातें सुन ली। यूं तो वो रोज ही मुझे अल्टीमेटम दिया करते कि आपकी स्थिति ठीक नहीं है...। वह अक्सर नसीहत देते थे। आप यह बात क्यों नहीं सोचते कि आपके फेफड़े हर तीन-चार घंटे में एक सिलेंडर आक्सीजन गैस सोख जाते हैं। लेवल-टू का अस्पताल है और आप लेवल-तीन के मरीज हैं। जब तक आक्सीजन बंद नहीं हो जाती, तब तक हम उत्साहजनक बात नहीं कर सकते। तब मैं अपनी आंखें बंद करता और कहता-हां डाक्टर, देखना हम जल्द ठीक हो जाएंगे।  

Image may contain: one or more people

डा. राठौर हर रोज रात में अपने अटेंडेंट के साथ आते। हाथ में रिंच और ढेरों औजार होते थे। इलाज करने वाले नहीं, आक्सीजन गैस के सिलेंडरों को चालू करने के लिए। आक्सीजन के दो सिलेंडर आगे और तीन पीछे रखवाते। रिंच-पेचकस लेकर खुद उन्हें चालू हालत में करते थे। इसके बाद ही वो आराम करने के लिए निकलते थे। शायद वो जानते थे कि आक्सीजन के ये सिलेंडर ही मेरी सांसें हैं। जिस वक्त फेफड़े आक्सीजन सोखना बंद कर देंगे, सांसें भी थम जाएंगीं।

बनारस के नदेसर स्थित जिस गुप्ता इन होटल (अस्पताल में परिवर्तित) में भर्ती था, उसके दो संचालक हैं। एक हैं शहर के ख्यातिलब्ध चिकित्सक डा.राम मूर्ति सिंह (त्रिमूर्ति हास्पिटल-गिलट बाजार) और दूसरे डा.विजय राय। कोरोना के इलाज से पहले तक इनसे सीधे तौर पर रुबरु नहीं हुआ था। फिर भी डा.सिंह मुझे रोजाना तीन बार फोन करके हालचाल पूछते थे। मैं जानता था कि कोरोना इलाज की वो एक बड़ी और कारगर थिरैपी थी। मेरे लिए ये थिरैपी भी रामबाण साबित हुई।

अस्पताल में प्रबंधन का काम देखने वाले डा.विजय राय का तो जवाब ही नहीं। वही डा.विजय राय जिन्होंने नदेसर में जब कोविड अस्पताल खोला था तब समूचे मुहल्ले के लोगों ने उन्हें घेर लिया था। लेकिन अस्पताल में मेरे पहुंचने के बाद हालात सुधर गए थे। तभी तो खाने-पीने की मेरी हर फरमाइश बगैर देर किए पूरी कर दी जाती थी। दूसरों से अलग।

कोरोना के चलते गंध और स्वाद जा चुका था, इस लिए मैं ज्यादा परेशान था। पनीर की भुजिया, लहसुन-अदरक की चटनी, नाश्ते में अंकुरित मूंग और चना मुझे पसंद थे, जो जेल रोड के होटल के बेस किचन से मेरी फरमाइश पर हाजिर हो जाया करते थे। अस्पताल के हर कोई मेरे भावों को समझने की कोशिश कर रहा था। होटल गुप्ता इन के मालिक गुप्ताजी सबसे ज्यादा परेशान थे। वो जानते थे कि हठी पत्रकार है, गंभीर है। मर जाएगा पर, यहां से जाने वाला नहीं है। लिहाजा उन्होंने भी मेरी सेहत की सलामती के लिए दुआएं करनी शुरू कर दी थी।

Image may contain: text that says "10:25 Search DrVijay Rai and 20 others Like Comments Share DrVijay Rai Aug at PM होटल इन का संचालन करने क साथ आप सबको पता है की मै हॉस्पिटल का भी संचालन करता हु और एक समाज सेवक भी हु परंतु और साहस मुझे बार बार स्टाफ और डॉक्टर ने बताया की उनकी हालत ख़राब है पर जिद पे अड़े है की मै यहाँ से कही और गर्व हो परंतु हम सबको डर भी लग रहा था की अगर इनको कुछ हो गया तो सबको kya देंगे हम लोग बड़े भाई इच्छा राय बनारसी अल्हड़ पण को दण्डवत"

23 जुलाई से मेरी सेहत तेजी से बिगड़नी शुरू हुई। अस्पताल के डाक्टर निराश थे। 27 जुलाई की शाम करीब चार बजे सिर्फ एक बार एहसास हुआ कि कोरोना से जंग हार जाऊंगा। तब मैने अपने व्हाट्सएप पर मैसेज लिखा-'लगता है जिंदा नहीं बच पाऊंगा।' शायद पहली बार मैं अपनी जिंदगी को लेकर इतना संजीदा हुआ। हालांकि चंद मिनट बाद फिर मेरा आत्मबल पहले की तरह हो गया। मौत के चौदह दिनों के बीच मेरी जिंदगी में जो कुछ घटा, जो बीता-सारी यादें, व्हाट्सएप पर बोलकर दर्ज करता था।

अस्पताल के डाक्टरों और कर्मचारियों के लिए मैं अबूझ पहेली की तरह था। उन्हें मुझे समझने में कई दिन लग गए। अक्सर कहते थे, -'कितना अजूबा आदमी है। जिंदा बचना है नहीं है फिर भी डाक्टरों तक को जिंदा रहने का झूठा दिलासा दिला रहा है।' डा.राठौर जब यह कहते कि आपकी हालत अच्छी नहीं है। तक संकेत में मैं भी बता देता था-'मैं सब जानता हूं। प्रकृति मेरी परीक्षा ले रही है। शायद वो देखना चाहती है कि कैसे इस चुनौती का सामने करेंगे। हमें बस इलाज और देखभाल की जरूरत है। हमेशा चुनौतियों से जंग जीतते आए हैं। मुश्किल की इस घड़ी में भी जीत हमारी ही होगी।'

अपने फेफड़े पर कोरोना के बढ़ते शिकंजे को मैं देख रहा था। जीवन में मुझे अटके रहने का कोई घटिया मोह नहीं था। बस मेरी जिद थी, कोरोना से आखिरी दम तक लड़ते रहने की। कभी न हारने की। यही आत्मविश्वास मेरी ताकत बना और हम कोरोना से लड़कर जिंदगी की जंग जीत पाए। यह महामारी हमें भले ही नहीं मार सकी, पर तोड़ दिया पूरी तरह। फिर भी मेरा फैलादी आत्मबल नहीं। जैसे जिन्दगी में कभी किसी से लाभ के लिए समझौता नहीं किया, वैसे मृत्यु से भी कोई समझौता करने को तैयार नहीं था।

कोरोनाकाल में मौत के चौदह दिनों में हमने जो कुछ सीखा-समझा, वो यह है कि इस महामारी से आप तभी जीत पाएंगे, जब मनोबल ऊंचा रहेगा। पलटकर देखता हूं तो लगता है कि कैदखाने की तरह अस्पताल में आखिर 14 दिन कैसे गुजर गए? दरअसल, कोरोना होने पर आप एक ऐसी सिचुएशन में हैं, जहां आपको कई तरह की परीक्षाएं देनी हैं। जिनके टेस्ट बार-बार पॉजिटिव आ जाते हैं, उन्हें अस्पताल में ज्यादा रुकना पड़ सकता है। उस समय सबसे जरूरी है मनोबल और धैर्य बनाकर रखना। इसके लिए आपके दिमाग का शांत होना बहुत जरूरी है। बीमारी के दौरान मित्रों और परिजनों के साथ लगातार बातचीत करेंगे तो कभी निराश नहीं होंगे। अस्पताल में इलाज के दौरान लोग एक-दूसरे से जुड़ने लगते हैं। सच कहूं तो इस दौरान आप कब एक-दूसरे के हो जाते हैं पता नहीं चलता है। ये कुछ टिप्स हैं जिनके जरिए आप कोरोना संक्रमण से जल्द उबर सकते हैं।

अस्पताल में जब कोरोना का नया मरीज आता है तो बहुत ज्यादा बदहवास और परेशान होता है। उसे रिलेक्स देने की कोशिश करें। अक्सर लेवल-दो-तीन हर मरीज चिड़चिड़ा हो जाता है। उसे ये समझाने की कोशिश की जानी चाहिए कि वो पूरी तरह ठीक हो जाएगा। अस्पताल में परिवार और दोस्तों से अलग हुए कोरोना पीडितों के साथ घुल-मिल जाएं, जिससे वह परिवार की कमी महसूस न करे। कोरोना अस्पताल में कौन अजनबी, अपना बन जाता है, पता ही नहीं चलता। महामारी की जद में हैं तो अस्पताल में एक-दूसरे का सहारा जरूर बनिए। बातचीत जारी रहनी चाहिए, जिससे अस्पताल कोई भी खुद को अकेला महसूस न करें।

जो बातें मुझे कचोटती रहीं....

कोरोना के संकटकाल में हमें खुद के अलावा अगर किसी की चिंता थी तो आपने उन दो साथियों की जिनका परिवार भी महामारी की जद में आ गया था। पत्नी और बच्चे भी। हर समय मेरे जेहन सवाल कौधते रहते थे कि इनके गुनहगार को हम ही हैं। हमारा एक साथी तो बात करते हुए फूट-फूटकर रोने लगा और उस रोज हमें नींद नहीं आई। मैं परेशान इसलिए था कि अखबार के दफ्तर में हम जिन लोगों काम लेते रहे हैं और कोरोनाकाल में हम कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। अच्छी बात यह रही कि इन पर कोरोना का असर ज्यादा नहीं हुआ। कुछ ही दिनों में सब के सब चंगे हो गए।

राकेश मरे नहीं..., हारे नहीं...!

कोरोनाकाल के दौर में साथी पत्रकार राकेश चतुर्वेदी का अचानक चले जाना बहुत अखरा। आखिरी सांस तक रचनाधर्मिता में सन्नद्ध रहे। ड्यूटी पर जाते-आते रहे। वो न मरे, न हारे। मरना कोई हार नहीं होती। वैसे भी लेखक-पत्रकार कभी नहीं मरते, वो लोगों की अनुभूतियों और अपनी रचनाओं में हमेशा जीवित रहते हैं। उनकी सरल मुस्कान, हर किसी और हर स्थिति में अच्छाई देखने की सकारात्मकता और रचनाधर्मिता के प्रति प्रतिबद्धता को सादर नमन!

✍️ विजय विनीत 

Comments

Post a Comment

सुस्वागतम!!

Popular posts from this blog

रामेश्वरम में

इति सिद्धम

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का