एक लोककथा की पुनर्रचना


इष्ट देव सांकृत्यायन 

पहले वे अजगर को रस्सी बताते रहे.
लोग विश्वास करते रहे और उसके पेट में जाते रहे.
वे अहिंसा का पाठ पढ़ाते हुए समझाते रहे कि वो पचाएगा नहीं, जस का तस उगल देगा. जो अभी अजगर के पेट में गए हैं, सब सुरक्षित निकल आएंगे.
लोग जाते रहे और बस जाते ही रहे. न अजगर ने कभी उगला और न लोग कभी निकले.
निगलते निगलते उसने देश के दो पूरे हिस्से निगल लिए. पर संत जी तो अपनी बात पर डटे रहे.
फिर लोगों को संदेह होने लगा. उन्हें लगने लगा कि संत जी या तो भ्रम में हैं या फिर झूठ बोल रहे हैं.

लोगों ने संदेह जताया. उन्हें डांट कर चुप करा दिया.
लोग फिर अजगर के पेट में जाते रहे.
अब कुछ लोगों ने जोर जोर से चिल्लाना शुरू किया -
वह रस्सी नहीं, अजगर ही है.
संत जी और उनके चेलों को लगा कि अब गडबड हो जाएगी.
तब उन्होंने अपने पालतू और आज्ञाकारी विदेशी कुत्ते छोड़ दिए.
कुत्तों ने पहले भौंकना, फिर काटना और लोगो को नोचना शुरू कर दिया.
कुत्ते जोर जोर से नक्कारे बजाने लगे -
अजगर नहीं, वो रस्सी ही हैं. जरा नए किस्म की रस्सियां हैं.

वे इतनी जोर से चिल्ला रहे थे कि अजगर बताने वालों की आवाज न मालूम कहां गुम होने लगी.
कोई सुन ही नहीं सकता था.

कुछ लोग सच समझ रहे थे लेकिन कुछ फिर भी संत जी और उनके पालतू कुत्तों की जोरदार आवाज पर सहमे से यकीन कर रहे थे.

अब अजगर की भूख की लपट उनके घर तक आने लगी.
अजगर अपनी जोरदार सांस से सबको अपने पेट के भीतर खींचने लगा.
अब यह सबका अपना अनुभव था और इस अनुभव के साथ बहुत लोगों के भीतर बहुत तरह के भय भी थे.
फिर लोगों ने एकाएक अजगर को रस्सी मानने से मना कर दिया.

अब संत जी के कुत्ते क्या करते!
उन्होंने नई चाल चली.
अब वे रस्सी को अजगर बताने लगे.
लेकिन
अब क्या?

अब तो लोग समझ चुके थे.
अब रस्सी और अजगर का फर्क उनका निजी अनुभव था
और यह अनुभव उन्हें संत जी और उनके कुत्तों पर भरोसा करने से डिगा चुका था.
अब वे कुत्तों के भौंकने पर हंस रहे थे.
खैर

बेचारे कुत्ते क्या करते!
उनका भी तो अपना फर्ज है न!
वे अपना फर्ज निभा रहे हैं.
जितनी जोर से भौंक सकते हैं
भौंक कर बता रहे हैं कि
वो जो रस्सी है, वो असल में अजगर है
और
वो जो अजगर है, वो असल में रस्सी है.
लोग हैं कि वो
अपने ढंग से बस समझे और हंसे जा रहे हैं.

©Isht Deo Sankrityaayan



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