Kanyakumari Mein

                                        कन्या कुमारी में सूर्योदय 
                                                                              
                                                                                     -हरिशंकर राढ़ी
       
            होटल की बॉलकनी में बैठा रात देर तक शहर  का दृश्य  देखने का आनन्द लेता रहा था। बॉलकनी के ठीक सामने लोकल बस स्टैण्ड था और मैं यह देखकर आश्चर्यमिश्रित सुख लेता रहा कि रात के ग्यारह बजे भी युवतियाँ निश्चिन्त  भाव से अपने गन्तव्य के लिए साधन का इन्तजार कर रही हैं। उनके चेहरे पर न कोई भय न घबराहट! निःसन्देह यह केवल प्रशासन  का परिणाम नहीं होगा। प्रशासन  तो कमोबेश  हर जगह ही है। हम तो देश  की राजधानी दिल्ली में रहते हैं जहाँ समूचे देश  को चलाने के लिए नियम-कानून बनते हैं। बनाने वाले भी यहीं रहते हैं और उनका पालन कराने वाले भी । किन्तु, जब तक पालन करने वाले नहीं होंगे, पालन कराने वाले चाहकर भी कुछ विशेष  नहीं कर सकते हैं। केरल में इसका उल्टा है। कानून बनाने वाले और उनका पालन कराने वाले हों या न, पालन करने वाले खूब हैं। कोई राह चलती युवती को आँख उठाकर देखने वाला ही नहीं है। शायद  पढे़-लिखे होने का असर हो। साक्षरता में केरल अग्रणी तो है ही। पर अगले क्षण मेरे मन ने यह तर्क मानने से मना कर दिया। हम दिल्ली वाले क्या कम पढ़े - लिखे हैं। साक्षरता में इधर के शहर  भले ही पीछे हों परन्तु उच्च शिक्षा  में तो कतई नहीं। फिर भी देखिए, अगर आप अखबार के ऐसे अंक की तलाश  में लग जाएं जिसमें बलात्कार, छेड -छाड  या महिलाओं से दुर्व्यवहार की कोई खबर न हो तो शायद  आपको निराशा  ही हाथ लगेगी। दक्षिण में (विशेषतः केरल में) मुझे ऐसे कई उदाहरण मिले जिससे मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाया और एक बार यह विचार पुनः पुष्ट हुआ  कि शिक्षा  से कहीं बहुत ऊपर संस्कार और स्वस्थ परम्पराएँ होती हैं। संस्कार और परम्पराएं हमें विरासत में उसी प्रकार मिलती हैं जैसे वायु और जल जबकि शिक्षा उस प्रकार मिलती है जैसे उद्यम से अन्न और धन। जहाँ यह बात मन के केन्द्र में बैठी है कि महिलाएं आदरणीय हैं, समाज और परिवार की इज्जत हैं, वहाँ इस प्रकार का दृश्य होना स्वाभाविक ही है। अब यदि कोई किसी सुन्दर युवती को एक बार मुड़कर देख लेता है या कई बार भी देख लेता है; उसके सौन्दर्य का निरापद नैत्रिक पान कर लेता है तो इस पर भी ज्यादा हायतौबा नहीं मचनी चाहिए। हम प्रकृति का अपमान करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं, यह हमें याद रखना चाहिए।  सौन्दर्य से बच पाना या फिर उसकी उपेक्षा करना भी स्वाभाविक नहीं है और यह सौन्दर्यबोध का प्रतीक भी है। कितना अच्छा हो कि सुख एक मर्यादा के भीतर ही लिए जाएं!


कन्या कुमारी का बाज़ार 
         
        रात में देर से सोया था- इस विश्वास  के साथ कि अलार्म बजेगा और सागर में सूर्योदय अवश्य  देखूँगा। किन्तु मुझे लगता है कि सारी की सारी योजना धरी रह जाती अगर श्रीमती जी की नींद आदतन समय पूर्व नहीं खुल जाती। स्थिति को भाँपने की उनकी क्षमता बड़ी  तीव्र है और मैं कई बार अपने खयालों में डूबा जरूरी चीजें भी भूल जाता हूँ । अलार्म बजा या नहीं, यह मैं नहीं जानता किन्तु उन्होंने सूर्योदय से काफी पहले ही मुझे जगाना शुरू  कर दिया। दरअसल नींद खुलते ही स्थानीय हलचल से उन्हें पता लग गया था कि लोग-बाग कहीं जाने की जल्दी में हैं और होटल के अन्य लोग भी छत पर जा रहे हैं। सो मामले की तस्दीक कर मुझे जगाना लाजिमी समझा। एक लेखक के दुर्गुणों से उन्होंने अच्छा सामंजस्य बिठा लिया है।

सूर्यादय का एक बिम्ब 
           वास्तव में ऐसा लग रहा था कि पूरा कन्या कुमारी छतों पर आ गया है। कभी मेरे मन में यह भ्रम था कि सूर्योदय देखने के लिए कोई स्थल होगा और सारे सैलानी वहीं जाते होंगे। यहाँ तो सबकी निगाहें और कैमरे बंगाल की खाड़ी के आसमान में छायी लालिमा की तरफ लगे थे। भागकर  नीचे से  मैं भी अपना कैमरा लाया और प्राप्त अवसर के स्वागत के लिए तैयार हो गया। सागर की सतह एकदम रक्ताभ हो रही थी और महसूस हो रहा था कि मैं पहली बार सचमुच उषारानी  को देख रहा हूँ- कितनी सुन्दर , कितनी कोमल और कितनी भावुक । ऐसे जैसे कोई नवपरिणीता अपने अप्रतिम सुन्दर मुख पर पड़े झीने से आँचल को सरकाए जा रही हो। पहली बार अपने प्रकृति का कवि न होने का मलाल हुआ। सुमित्रानन्दन पन्त से लेकर विलियम वर्ड्‌सवर्थ तक नजर गई, कालिदास भी याद आए किन्तु संतोष  नहीं हुआ । कोई ना कोई कमी तो वहाँ भी है और इस उषा  का चित्र खींचने में उनसे भी भूल हुई है। हाँ, बात महाकवि माघ पर आकर जरूर ठहरती है। इस फन में उनका कोई मुकाबिला नहीं है। जो देखा , उसे उससे भी सुन्दर लिखा। शायद माघ ही ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपने प्रकृति वर्णन से प्रकृति की सुन्दरता को मात दे दी है। उनके प्रातः वर्णन में एक और अमूल्य हीरा जुड  जाता अगर वे इस उषा और सूर्योदय को देखते!

         उस सघन मोहक लालिमा के घेरे में सागर की अतल गहराई से बाल अरुण का शनैः शनैः उदित होना अपने आप में एक सुख था। जैसे कोई सुन्दरी अपने सिर पर स्वर्ण कलश  लिए किसी पनघट पर जा रही हो या यह स्वर्णकलश  ही किसी सुन्दरी का मुखमंडल हो और वह धीर-धीर अपने घूँघट को उठा रही हो- संकोच भी हो, उत्कंठा भी हो और अपने प्रियतम को देखने की अकुलाहट भी ; और हाँ, अपने अनिन्द्य मुख को दिखाकर थोड़ी प्रशंसा  पाने का लोभ भी। यहाँ बस देखना ही देखना था। देखना  अपने आप में एक सुख था और इस सुख ले लेना भी एक सफलता!
सूर्योदय का दूसरा बिम्ब 

       इस दिन सूर्योदय देख लेना हमारे लिए सफलता ही हुई । यद्यपि कन्याकुमारी में एक सुबह और मिलती पर वह मिलकर भी नहीं मिली। वहाँ यदि आप सूर्योदय देखने से वंचित रह गए तो उस सुबह को सुबह मानना ही ठीक नहीं होगा। दरअसल वहाँ कब बादल हो जाए और सूर्योदय का दृश्य केवल बादल ही देख सकें, यह निश्चित नहीं है। हमारे साथ अगली सुबह ऐसा ही हुआ और बादलों ने पूरे सौन्दर्य पर पानी फेर दिया।

इस दिन हमारी योजना में पहला कार्यक्रम विवेकानन्द स्मारक  (इसे रॉक मेमोरियल भी कहते हैं) देखने का था जो कि यहाँ का  सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल है।  

Comments

  1. आप दिखाते रहो हम देख रहे है दिल्ली में तो चैन लुटेरों का आतंक छाया हुआ है,रॉक मेमोरियल भी देखी थी अब आप दिखायेंगे"

    ReplyDelete
  2. हरि जी, पढ़े लिखे होने का ही यह प्रतिफल होता तो एक ईसाई प्रोफेसर का हाथ क्यों काटा जाता और फिर उसे ही नौकरी से क्यों निकाल दिया जाता.

    ReplyDelete
  3. सूर्योदय का सौंदर्य तो देखते ही बनता है, और अगर वह दरिया के साथ हो तो चार चाँद लग जाते हैं।

    ReplyDelete
  4. सामाजिक संस्कार बचे रहें, सड़कें सुरक्षित रहें, यही हमारी धरोहर है।

    ReplyDelete

Post a Comment

सुस्वागतम!!

Popular posts from this blog

रामेश्वरम में

इति सिद्धम

Bhairo Baba :Azamgarh ke

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

आइए, हम हिंदीजन तमिल सीखें