Kanyakumari Ke Liye
कन्या कुमारी की ओर
-हरिशंकर राढ़ी
योजनानुसार हमलोग प्रातः छः बजे तक रामेश्वरम बस स्टेशन पहुँच चुके थे। वहाँ मालूम किया तो कन्याकुमारी के लिए सात बजे बस नियत थी और वहीं खड़ी थी। बुकिंग खिडकी पर एक सभ्य तमिल उपस्थित था और हमारे साथ बहुत मैत्रीपूर्ण ढंग से बात कर रहा था। उसके अनुसार बस समयानुसार खुल जाएगी और यथासमय कन्याकुमारी पहुँचा देगी। यूँ तो बस बाहर से पुरानी ही लग रही थी परन्तु अन्दर से ठीक-ठाक थी। विशेष बात यह थी कि यह बस दो गुणा दो थी और पुशबैक थी, फिर भी प्रति व्यक्ति किराया एक सौ पचास रुपए मात्र! मैंने पहले भी कहा है कि तमिलनाडु सरकार की बसों में किराया काफी कम है। रामेश्वरम से कन्याकुमारी की कुल दूरी तीन सौ किलोमीटर है और यात्रा में लगभग आठ -नौ घंटे लग जाते हैं। कुल मिलाकर मामला बहुत अच्छा था। चाय वगैरह पी रहे थे तब तक एक दूसरी बस आ गई जिसके बोर्ड पर हमारे लिए पठनीय केवल अंगरेजी में एक शब्द लिखा था - कन्याकुमारी। मित्र महोदय ने तुरन्त उस बस को पकडा और ड्राइवर - कंडक्टर से मालूम किया तो पता चला कि वह बस तुरन्त ही कन्याकुमारी जा रही थी। हालाँकि साढ़े छः बज चुके थे और अपनी बस सात बजे की थी ही। जल्दी-जल्दी सामान उठाकर बस में रखा गया। अन्दर जाने पर मुझे दो बातें मालूम हुई- एक तो यह कि बस तीन गुणा दो थी, सीटें सामान्य थीं। किराया उसका भी डेढ सौ ही! क्यों भाई? कोई ना कोई रहस्य तो जरूर है । और रहस्य यह था कि वह बस मदुराई होकर जा रही थी।
दरअसल रामेश्वरम से कन्याकुमारी के दो रास्ते हैं। एक रास्ता बंगाल की खाड़ी के समानान्तर जाता है- वाया तूतीकोरिन। यह रास्ता लगभग तीन सौ किमी (तीन सौ बीस) और पूर्वी तमिलनाडु की सैर कराता है। दूसरा रास्ता मदुराई होकर जाता है और यह काफी प्रचलित और व्यस्त है। यहाँ से मदुराई 170 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और राष्ट्रीय राजमार्ग संखया 49 पर चलना पड ता है। मदुराई से कन्याकुमारी 250 किमी है। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 7 (जो वाराणसी से कन्याकुमारी तक जाता है और देद्गा सबसे लम्बा राजमार्ग है) मदुराई और कन्याकुमारी को जोडता है। अब मेरे समझ में आ गया कि दोनों बसों की सुविधाओं में अन्तर के बावजूद किराया बराबर क्यों है। वाया मदुराई 100 किमी की यात्रा अधिक करनी पडती है, यद्यपि यात्रावधि बराबर ही है। मेरा मन पहले से ही था कि पूर्वी घाट होकर ही चलना है और उधर के भूगोल की जानकारी जरूरी है। मैंने निर्णय लिया कि हम वाया तूतीकोरिन वाली बस से ही चलेंगे- इतनी दूर आना-जाना बार - बार नहीं होता। सामान उतारा गया और पहली वाली बस में सवार हो गए।
यात्रा का पहला ही रोमांचक आनन्द इंदिरा गांधी सेतु से गुजरते ही मिलने लगा। यह राजमार्ग 49 पर बना है रामेश्वरम द्वीप को भारत के मुखय भूभाग से जोडता है। यह पुल काफी लंबा है और रेल के अद्वितीय पंबन पुल के समानान्तर है। अथाह समुद्र के ऊपर तैरता यह पुल अत्यन्त ही मनोहारी दृश्य उपस्थित करता है। एक बार तो मुझे ऐसा लगा मानो हम त्रेतायुग में निर्मित सेतुबंध के नवीन संस्करण से होकर गुजर रहे हों। बस की तीव्र गति के आगे पुल की लंबाई ज्यादा नहीं ठहर सकी और हम सेतुसागर का आनन्द देर तक नहीं ले सके पर जो ले लिया वह कम नहीं था।
नमक के टिब्बे |
आगे रामनाथपुरम नामक शहर आता है जो कि जिला मुखयालय भी है। यहीं से कुछ दूर चलकर हमारी बस मदुराई वाला रास्ता छोड कर बाएं मुड गई । जैसे - जैसे आगे बढ ती गई, पूर्वी घाट का वास्तविक दृश्य जो कभी भूगोल की किताबों में पढ़ा या पढाया था, साक्षात होने लगे और समुद्रतटीय इलाका आकर्षित करने लगा। अक्टूबर के महीने की सुबह के लगभग नौ बजे रहे होंगे किन्तु ऐसा लग रहा था कि मई या जून की सुबह हो।
नमक बटोरने की प्रक्रिया |
गाँव और शहर काफी दूरी पर बसे हुए लगते हैं। देखकर यूँ लगता है कि प्रकृति बिलकुल फुरसत में बैठी आराम कर रही हो। लगभग बारह बजे बस ने समुद्र के समानान्तर सीधी सडक पकड़ ली । जगह - जगह सफेद चमकते हुए टिब्बे दिखने लगे l बच्चे जो अब तक थक कर शांत हो चुके थे, टिब्बे देखकर पुनः जागृत हो गए और पूछने लगे कि यह क्या है? क्या इस रंग का भी पहाड होता है? टिब्बों की चमक रेगिस्तान की रेत की तरह आँखों को चुंधिया रही थी । दरअसल ये नमक के टिब्बे थे। इस क्षेत्र में खाड़ी के जल से नमक बनाने का कार्य होता है। यह बिना साफ किया गया नमक होता है। किसी समय यही नमक बाजार में बिकने के लिए आ जाता था। अभी पंद्रह -बीस साल पहले तक मैंने अपने गाँव में लोगों को यही नमक जो छोटे-छोटे ढेलों के रूप में होता था, बाजार से लाकर खाते देखा था। अभी भी गाँव जाता हूँ तो देखता हूँ कि वहाँ के बाजार में यह नमक बिकता है और कुछ लोग खरीद कर लाते हैं। चिकित्सकों के अनुसार उन्हें अपने स्वास्थ्य (?) की चिन्ता ही नहीं है। अब इन्हें कौन समझाए कि स्वास्थ्य की चिन्ता वह करता है जिसका पेट भरा हो और पेट उसका भरता है जिसकी जेब भरी हो। बड़ी - बड़ी क्यारियों में समन्दर का पानी भरा हुआ था, जैसे धान की क्यारियों में भरा जाता है। हवा चल रही थी और तीन-चार इंच गहरे पानी में भी लहरें मचल रही थीं। यही पानी सूख जाएगा तो नमक इकट्ठा कर लिया जाएगा और ऊँचे- ऊँचे टिब्बे बना दिए जाएंगे।
नमक की क्यारियां |
एक लम्बी यात्रा के बाद हम लगभग चार बजे कन्याकुमारी के नजदीक पहुँचने लगे। यहाँ हरियाली का साम्राज्य स्थापित था। नारियल के बगीचे हमारी आँखों में जैसे बस चुके थे और जैसे हमें आदत सी हो चली थी इन्हें देखने की।यहाँ प्रकृति समृद्ध है, इसलिए क्षेत्र समृद्ध होगा ही। यहाँ पहली बार हमने पवनचक्की (विण्डमिल) देखी। ऊँचे-ऊँचे खम्भों पर बड़ी - बड़ी पंखुडियाँ अपनी मस्ती में पवन का साथ पा डोले जा रही थीं मानो कोई प्रेमिका अपने प्रियतम से मिलने का उत्सव मना रही हो।
कन्याकुमारी एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है और पर्यटन ही यहाँ का मुख्य व्यवसाय है, इसलिए यहाँ होटलों की भरमार है। अक्टूबर यहाँ यात्रा का सीजन है, हालाँकि प्रमुख सीजन दिसम्बर को माना जा सकता है। सन 2009 में यहाँ हमें रु.500 में तीन बिस्तर वाला एक बड़ा कमरा मिल गया था। कमरे में सुविधाएँ भी ठीक थीं। यहाँ स्वामी विवेकानन्द का एक आश्रम है जिसमें ठहरने की सुविधा अच्छी है किन्तु इसकी दूरी कन्याकुमारी के मुख्य बिन्दु से लगभग दो किमी होगी। इस आश्रम में कमरों की बुकिंग ऑन लाइन होती है। आप कन्याकुमारी जाएँ तो ठहरने के लिए अन्तिम प्वाइंट के आसपास के किसी होटल को वरीयता दें। दूसरी यह बात ध्यान में जरूर रखें कि होटल की तीन- चार मंजिल से कम ऊँचा न हो। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि आप को अपने होटल की छत से सूर्योदय दर्शन का अकथनीय सुख मिलेगा। यदि कन्याकुमारी में आप सूर्योदय नहीं देख पाए तो आप की यात्रा अधिकांशत: निरर्थक गई।
आज बस की यात्रा ने हमें थका दिया था। थोड़ी देर आराम किया और भोजन के लिए निकल गए। वह भी अच्छा ही रहा। अन्ततः सूर्योदय के लिए मोबाइल में सचेतक लगाकर सो गए। अगले अंक में सूर्योदय का दृश्य आपके सामने होगा.......
इस वाले मार्ग से तो हम गये ही नहीं
ReplyDeleteवाकई ये तो एक बेहतरीन मार्ग है,
ज्यादा कुछ जानने को है इस मार्ग में।
सूर्योदय व सूर्यास्त वाली बात ठीक बतायी आपने, हमने तो जैट बोटी के पास ही कमरा लिया था जिससे आसानी से दोनों पल देख सके।
ReplyDeleteपास में ही मारवाडी भोजनालय भी था जिसे कोई राजस्थानी महाराज चला रहे थे जहाँ पर भोजन की भी समस्या नहीं थी।
रोचक वर्णन है, यादें ताजा हो गयीं।
ReplyDeleteSandeep ji ,
ReplyDeleteWe too had taken our one lunch at Marwadi Bhojnaalay during our two day stay.
बहुत रोचक पोस्ट,आभार.
ReplyDelete