Samarthan ka Sailaab
समर्थन का सैलाब
-हरिशंकर राढ़ी
अनुमान था कि होगा ऐसा ही। देशवासियों को एक इंजन मिल गया है और वे अब किसी भी ब्रेक से रुकने वाले नहीं। आज तो जैसे दिल्ली के सारे रास्ते रामलीला मैदान की ओर जाने के लिए ही हों , जैसे दिल्ली मेट्रो केवल अन्ना समर्थकों के लिए ही चल रही हो और हर व्यक्ति के पास जैसे एक ही काम हो- रामलीला मैदान पहुँचना और अन्ना के बहाने अपनी खुद की लड़ाई को लड़ना । साकेत मेट्रो स्टेशन पर जो ट्रेन बिलकुल खाली आई थी वह एम्स जाते-जाते भर गई और सिर्फ भ्रष्टाचार विरोधी बैनरों और नारों से। नई दिल्ली स्टेशन से बाहर निकलता हुआ हुजूम आज परसों की तुलना में कई गुना बड़ा था। सामान्य प्रवेश द्वार पर ही हजारों की भीड़ केवल प्रवेश की प्रतीक्षा में पंक्तिबद्ध थी। किसी भी चेहरे पर कोई शिकन नहीं, कोई शिकायत नहीं।
ऐसा शांतिपूर्ण प्रदर्शन मैंने तो अब तक नहीं देखा था। सच तो यह है कि प्रदर्शनों से अपना कुछ विशेष लेना -देना नहीं। राजनैतिक पार्टियों का प्रदर्शन भंड़ैती से ज्यादा कुछ होता नहीं, मंहगाई और बिजली पानी के लिए होने वाले प्रदर्शन जमूरे के खेल से बेहतर नहीं और तथाकथित सामाजिक आन्दोलन भी रस्म अदायगी के अतिरिक्त किसी काम के नहीं। लोग अनशन भी करते हैं पर सिर्फ और सिर्फ अपने लिए। अब स्वार्थ में डूबे एकदम से निजी काम के लिए परमार्थ वाले समर्थन कहाँ से और क्यों मिले? अगर ऐसे प्रदर्शनों से दूर रहा जाए तो बुरा ही क्या ? आज पहली बार लगा है कि कोई निःस्वार्थ भाव से देशरक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग के लिए तत्पर है तो लोगों में चेतना जागना स्वभाविक और अपरिहार्य भी है।
सारा कुछ पूर्णतया नियोजित और अनुशासित है। इस तरह के आन्दोलन का परिणाम क्या होगा, यह तो अभी समय बताएगा पर ऐसे आन्दोलन होने चाहिए। जिस तरह से लोकतंत्र से लोक गायब हो चुका है और उसका एकमात्र उपयोग मतपेटियाँ भरना रह गया है, यह किसी भी सत्ता को मदहोश कर देने के लिए पर्याप्त है। अपनी उपस्थिति स्वयं दर्ज करानी पड़ती है और लोकतंत्र के लोक को अब जाकर महसूस हुआ है कि अपनी उपस्थिति दर्ज करा ही देनी चाहिए।
ऐसे प्रदर्शनों के अपने मनोरंजक पक्ष भी हुआ करते हैं। भारतीय मस्तिष्क की उर्वरता को कोई जवाब तो है ही नहीं, यह आपको मानना पड़ेगा । पहले तो विरोध नहीं, और जब विरोध तो ऐसे -ऐसे तरीके कि विस्मित और स्मित हुए बिना तो आप रह ही नहीं सकते। सरकारी तंत्र के एक से एक कार्टून और एक से एक नारे! अविश्वसनीय !! कुछ तो अश्लीलता की सीमा तक भी पहुँचने की कोशिश करते हुए तो कुछ जैसे दार्शनिक गंभीरता लिए हुए।
हर तरह की व्यवस्था के लिए लोग न जाने कहाँ से आ गये हैं। बाहर से भोजन के पैकेट निवेदन करके दिए जा रहे हैं। अंदर भी कुछ कम नहीं। अनेक निजी और संगठनों के लंगर लगातार - चावल-दाल, छोले, राजमा , पूड़ी- सब्जी ही नहीं, जूस तक का भी इंतजाम बिलकुल सेवाभाव से।
शायद यही अपने देश की सांस्कृतिक और सह अस्तित्व की विशेषता है। अपने - अपने हिस्से का प्यार बाँटे बिना लोग रह नहीं पाते। जैसे कहीं से लोगों को पता चल गया हो कि कोई यज्ञ हो रहा है और अपने हिस्से की समिधा डाले बिना जीवन सफल ही नहीं होगा। है तो यह एक यज्ञ ही । परन्तु वापस आते - आते एक प्रश्न ने कुरेदना शुरू ही कर दिया । अन्ना का यह आंदोलन तो सफल होगा ही, सम्भवतः राजनैतिक , प्रशासनिक और सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार का एक बड़ा भाग समाप्त भी हो जाए, किन्तु क्या हम अपने निजी जीवन में भी भ्रष्टाचार से मुक्त हो पाएंगे? क्या ऐसा भी दिन आएगा जब तंत्र के साथ लोक भी अपने कर्तव्य की परिभाषा और मर्यादा समझेगा?
खैर, अभी तो अन्ना जी और उनके आन्दोलन में भाग लेने वाले असंख्य जन को सफलता की शुभकामनाएँ !
अब कुछ झलकियाँ भी जो रविवार के दिन देखी गईं-
सही कह रहे हैं,आभार.
ReplyDeleteदेश से जिस सांस्कृतिक एकता और सहअस्तित्व के ग़ायब होने की बात अकसर राजनेता करते हैं, वह अगर उन्हें देखना है तो आएं रामलीला मैदान. वाकई उन्हें बड़ी हताशा होगी. अगर सांस्कृतिक एकता और सहअस्तित्व की भावना ऐसे ही बनी रही तो 'फूट डालो राज करो' फार्मूले पर आधारित उनकी राजनीति का क्या होगा?
ReplyDeleteआपका यह लेख बहुत अच्छा लगा ... बधाई ..
ReplyDeleteदेखिये मैं तो अभी wait n watch में हूं... क्योंकि शहर के नामी दलाल और गुंडे जब गांधी टोपी लगाकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध इस आंदोलन को मैनेज कर रहे हों... तो फिर ???
ReplyDeleteआदरणीय भारतीय नागरिक जी
ReplyDeleteआपकी यह बात मानी जा सकती है कि आन्दोलनकारियों में एकाध भ्रष्टाचरण के किंचत दोषी हों ; जनसमुदाय में कुछ जेबकतरे भी शामिल होंगे क्योंकि एक दिन मैंने भी एक समर्थक को शिकार हुआ पाया था, किन्तु केवल इस आधार पर आंदोलन की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न नहीं खड़ा किया जा सकता। भाशा की दृश्टि से एक ककड़ीचोर और कसाब दोनों ही अपराधी हो सकते हैं किन्तु नैतिकता और यहाँ तक कि कानून की दृश्टि में दोनों को बराबर नहीं ठहराया जा सकता। इस आंदोलन को इतना जनसमर्थन मात्र इसलिए मिल रहा है क्योंकि उसकी अगुआई करने वाला व्यक्ति स्वार्थ से बहुत दूर है । वह किसी क्षेत्र विशेष के विकास या किसी जाति विशेष के लिए आरक्षण भी नहीं मांग रहा है - उसमें भी स्वार्थ की बू आती है। अगर कोई भ्रष्टाचार ,बेइमानी और लूट के लिए आंदोलन कर रहा है तो इससे अच्छा और कुछ भी नहीं हो सकता। यह मामला द्विविधा का नहीं है, अतः इसमें wait n watch की नीति मुझे तो उचित नहीं प्रतीत होती। जो समय कार्य का हो उस समय कार्य ही करना चाहिए। अवसर बार -बार नहीं आता। हाँ, लोकतंत्र तो है ही; विचार अलग- अलग होंगे ही।
"अन्ना के बहाने अपनी खुद की लड़ाई को लड़ना" यह सही भी है. हर वो व्यक्ति जो रामलीला मैदान में पहुँच रहा है, उसमे पीड़ा है, आक्रोश है. ऐसे अवसर बार बार नहीं आते. हर हाल में समर्थन करना ही चाहिए.
ReplyDeleteआन्दोलन का निष्कर्ष, देश के विकास में सबके सहयोग से परिलक्षित हो।
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