अथातो जूता जिज्ञासा-27
अब मध्यकाल से निकल कर अगर आधुनिक काल में आएं और जूतोन्मुखी रचनाधर्मिता की बात करें तो चचा ग़ालिब का नाम सबसे पहले लेने का मन करता है. एक तो सूफ़ियाना स्वभाव (तमाम तरह के दुराग्रहों को टाटा बाय-बाय वह पहले ही कह चुके थे) और दूसरे दुनियादारी की भी बेहतर समझ (ख़रीदारी कर के नहीं सिर्फ़ गज़रते हुए देखा था उन्होंने दुनिया के बाज़ार को), सच पूछिए तो दुनिया की हक़ीक़त ऐसा ही आदमी क़ायदे से जान पाता है. जूते की इस सर्वव्यापकता और सर्व शक्तिसम्पन्नता को उन्होंने बड़े क़ायदे से समझा और साथ ही उसे शहद में भिगोने की कला भी उन्हें आती है. ऐसा लगता है कि रैदास और तुलसी द्वारा क़ायम की गई परंपरा को उन्होंने ही ठीक से समझा और इन दोनों को वह साथ लेकर आगे बढ़े. कभी-कभी तो उनके यहां सूर भी दिखाई दे जाते हैं.
यह शायद सूर का, या कि सूफ़ी संतों का ही असर है जो वह भी ख़ुदा से दोस्ती के ही क्रम को आगे बढ़ाते हैं, यह कहते हुए - या तो मुझे मस्जिद में बैठकर पीने दे, या फिर वो जगह बता जहां पर ख़ुदा न हो. और ग़ालिब भी एक को मार कर दूसरे को छोड़ने वाले छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी नहीं हैं. वह भी अपने दूसरे पैर का जूता निकालते हैं, बिलकुल कबीर और रैदास की तरह. जब वह कहते हैं :
ईमां मुझे रोके है तो खेंचे है मुझे कुफ्र
काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे.
तब उनका मतलब बिलकुल साफ़ है.
दूसरे तो दूसरे, यहां तक कि वे ख़ुद को भी नहीं छोड़ते हैं. उनकी ही एक ग़ज़ल का शेर है:
बने है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगरना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है.
उनके बाद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी ख़ूब जूते उछाले. 'क्यों सखि साजन नहि अंगरेज?' जैसे सवाल उठा कर वह ग़ुलामी की भारतीय मानसिकता पर जूते ही तो उछालते रहे हैं. सद अफ़सोस हमें ज़रा सी भी शर्म आज तक नहीं अंग्रेज तो चले गए और कहने को लोकतंत्र भी आ गया, पर आज तक हम न तो लोकतंत्र अपना सके और अंग्रेजियत से ही मुक्त हो सके. निराला ने भी बहुत जूते चलाए और वह भी चुन-चुन कर उन लोगों पर जिन पर उस वक़्त जूते चलाने की हिम्मत करना बहुत बड़ी बात थी. 'अबे सुन बे गुलाब' और 'बापू यदि तुम मुर्गी खाते होते' उनकी इसी कोटि की रचनाएं हैं. वैसे सुनते तो यह हैं कि तुलसीदास पर भी जूते चलाते थे, पर यह काम वह कोई द्वेषवश नहीं, बल्कि श्रद्धावश करते थे. मैंने सुना कि वे सचमुच के जूते तुलसी की तस्वीर पर चलाते थे. एक-दो नहीं, सैकड़ों जूते बरसा देते थे. तब तक चलाते ही रहते थे वे जूते तुलसी पर, जब तक कि ख़ुद थक कर लस्त-पस्त नहीं हो जाते थे.
एक बार किसी आलोचक ने उन्हें यह करते देख लिया तो पूछा कि ऐसा आप क्यों करते हैं. उनका शफ्फाक जवाब था- भाई इसने कुछ छोड़ा ही नहीं हमारे लिखने के लिए. अब हम लिखें क्या? हालांकि उन्होंने हिंदी साहित्य को ऐसा बहुत कुछ दिया जिसके लिए हिन्दी साहित्य ख़ुद को ऋणी मानता रहे, पर वे उम्र भर यही मानते रहे कि उनका अवदान तुलसी के सामने धेले का भी नहीं है. अब सोचता हूं तो मुझे लगता है कि निराला जूतेबाज चाहे जितने भी बड़े रहे हों, पर कवि वे निश्चित रूप से बहुत छोटे रहे होंगे. क्योंकि आजकल कई तो ऐसे कवि ख़ुद को तुलसी क्या वाल्मीकि से भी बड़ा रचनाकार मानते हैं, जिन्होंने अभी कुल तीन-चार दिन पहले ही लिखना शुरू किया है. मुझे लगता है कि निराला जी को ज़रूर सीख लेनी चाहिए थी भारत के ऐसे होनहार कवियों से.
थका भी हूं अभी मै नहीं....
भाई सांकृत्यायन जी!
ReplyDeleteखूब जूते उछाल रहे हो। अगर निशाने पर लग जायें,
तो आनन्द आ जायेगा।
उग्रवादियों की गरदन में, डालो फाँसी की माला।
पहना दो अब मक्कारों को चप्पल-जूतों की माला।।
पहले तो मै आपका तहे दिल से शुक्रियादा करना चाहती हू कि आपको मेरी शायरी पसन्द आयी !
ReplyDeleteमुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा !आप बहुत ही सुन्दर लिखते है!
अथ श्री जूता पुराण का सस्करण दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है , अगर यही हाल रहा तो जूता पैरों में नहीं सर पर लेकर लोग घुमेगे और लोगों से भी यही कहेगे की "जूते की माया अजब है जिसपे इसकी कृपा है वही दुनिया में बड़ा बना है और जिन्हें इसका स्वाद नहीं मिला है वो मिटटी में मिल गया है " .
ReplyDeleteग़ालिब के इस शेर का मैं दीवाना हो गया
"बने है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगरना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है."
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ReplyDeleteइंडियन जूता ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट :
जूते के क्षेत्र में अपना करियर सवांरें ,सीखें जूता बनाना ,घिसना ,सूंघना ,चाटना अलग अलग अंगों पर धारण करना ,ठीक तरीके से चलाना ताकि ज्यादा टिके तथा जूते के अन्य रचनात्मक उपयोग .
HURRY ADMISSION OPEN LIMITED SEATS
हाहा! जूतों पर पूरा पुराण लिख डालेंगे क्या? यदि "जूतास्त्र" की कर्मभूमि में उतरना हो तो इनसे सीखिये!
ReplyDeleteहम निराला के बहुत बड़े फेन है जी...फक्कड़ .बिंदास कवि ओर उससे भी ज्यादा खास किस्म के इन्सान ....कवियों वाली अदा से दूर.....
ReplyDeleteचचा सचमुच बड़े जूतेबाज थे. कभी-कभी लगता है कि जूतों का भण्डार था उनके पास. किसको-किसको नहीं मारे? कोइयौउ नहीं बचा.
ReplyDeleteऔर निराला जी ऐसा करते थे! हमें नहीं पता था. आज होते तो न जाने कितनों की तस्वीर पर उन्हें जूते फेंकने पड़ते. उनदिनों तो केवल तुलसी बाबा ही थे.
आपने जूता जिज्ञासा लिखना आरंभ किया ...और देखिए समूचा वातावरण ही जूतामय हो गया है ...जूते सर से होकर गुजरने लगे हैं ... आजकल नेताओं को भाषण देते वक्त इस जूते के वार से बचाव के लिए अपना इंतजाम भी करना पडता है।
ReplyDeleteउम्र भर यही मानते रहे कि उनका अवदान तुलसी के सामने धेले का भी नहीं है. अब सोचता हूं तो मुझे लगता है कि निराला जूतेबाज चाहे जितने भी बड़े रहे हों, पर कवि वे निश्चित रूप से बहुत छोटे रहे होंगे. क्योंकि आजकल कई तो ऐसे कवि ख़ुद को तुलसी क्या वाल्मीकि से भी बड़ा रचनाकार मानते हैं, जिन्होंने अभी कुल तीन-चार दिन पहले ही लिखना शुरू किया है. मुझे लगता है कि निराला जी को ज़रूर सीख लेनी चाहिए थी भारत के ऐसे होनहार कवियों से.
ReplyDeleteमुंह उफ़ जूते की बात छीन ली आपने !
जूता भले ही मखमल के कपड़े में लपेटकर चले लेकिन चलता रहना चाहिए।
ReplyDeleteहाय,
ReplyDeleteकौन सो अस जनमा जग माहीं।
जूता खाय खिलायेसि नाहीं!
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