इमरजेंसी चालू आहे

आज २५ जून है. आज ही के दिन १९७५ में आपातकाल की घोषणा की गयी थी. यह घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने की थी. यह क्यों की गई थी और इसकी क्या प्रासंगिकता थी, इस पर बहुत बहस-मुबाहिसे हो चुके हैं. इसलिए मैं अब कुछ कहने की जरूरत नहीं समझता. लेकिन एक बात जरूर कहूँगा. वह यह कि अगर आपको थोडा भी याद हो या आपने अपने बुजुर्गों से कुछ सुना हो तो जरा इतिहास पर गौर करिएगा. गौर करिए कि तब क्या हो रहा था और अब क्या हो रहा है. गौर करिए कि उस निहायत तानाशाही फैसले के पक्ष में और कोई नहीं केवल कम्युनिस्ट थे. यही थे जो उस वक़्त इंदिरा गांधी के साथ खडे थे. इसी बात पर पंजाबी के तेजस्वी कवि अवतार सिंह पाश ने एक कविता लिखी थी. पूरी रचना तो याद नहीं, पर उसकी कुछ पंक्तियां जो मुझे चुभती हैं और मुझसे ज्यादा उन तथाकथित कम्युनिस्टों को जो चौकी पर कुछ और चौके पर कुछ हैं, आज भी याद हैं मुझे.
' मार्क्स का
शेर जैसा सिर
दिल्ली की सड़कों पर
करना था
म्याऊँ-म्याऊँ
यह सब
हमारे ही समय में होना था.'
अपने समय के समाज के प्रति असंतोष, ऐसा विक्षोभ अन्यत्र दुर्लभ है. यह पीड़ा केवल उस महान कवि की नहीं, पूरे भारतीय समाज की है. हम फिर मार्क्स के शेर जैसे सिर को म्याऊँ-म्याऊँ करते देख रहे हैं. हम देख रहे हैं कि कितनी चालाकी से भारतीय इतिहास के शेरों को एक-एक कर गायब कर दिया गया है. अव्वल तो उनके इतिहास की किताबों से उनके पन्ने ही फाड़ दिए गए हैं. जो बचे रह गए, ऐसे जिन्हे नहीं मिटाया जा सकता था किसी भी तरह से कुछ खजैले कुत्तों और कुछ लिभड़े सूअरों को उनका वारिस बना दिया गया. इतिहास के पटवारियों की मदद से. फिर यह साबित कर दिया गया और जनता के मन में यह बात भर दी गयी कि आजादी हमें भीख में मिली है और जिन्होंने इसे भीख में माँगा है. वही हमारे माई-बाप है. हमें उनकी पूजा करनी चाहिए. आइए पूजें. गीदड़ों को शेर साबित करने और शेरों को धरती से गायब कर देने की जैसी उदात्त परम्परा भारतीय इतिहास में पिछले सौ सालों में कायम की गयी है वह और शायद ही कहीं मिले. अंगरेज बदनाम जरूर हैं और यह सच है कि इसकी शुरुआत उन्होंने ही की थी पर घालमेल का ऐसा दुस्साहस वे भी नहीं कर सकते थे. इससे सबसे बड़ी सुविधा यह हो गयी कि अब आजादी जब चाहे हमसे छीनी जा सकती है. अरे भाई भीख पर भी किसी का हक हो सकता है क्या? जिसने दिया है वह छीन भी सकता है. इंदिरा गांधी ने इसी सोच के आधार पर १९७५ में हमसे आजादी छीनी थी. उनकी छीनी हुई आजादी फिर हमें मिल गयी, ऐसा सोचना निरी बेवकूफी के अलावा और कुछ नहीं होगा. सल्तनतिया कानून के तहत राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बना दिए गए. शायद यही वजह थी जो पाश ने लिखा
...... अगर उसके मरने के शोक में
पूरा देश शामिल है
तो इस देश से
मेरा नाम काट दो.

भारत नाम का जो देश था, वह अब प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में तब्दील हो चुका है. कोई बावेला न हो, जनता अचानक उठ कर जूतम-पैजार शुरू न कर दे, इसलिए अभी प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति जैसे पद बने हुए है. लेकिन अब ये लोग चुने नहीं जा रहे हैं. कान पकड़ कर बैठा दिए जा रहे हैं. कोई भरोसा नहीं कि कल को सोनिया गांधी सड़क चलते किसी ऐरे-गैरे का कान पकड़े और कहें कि चल बैठ वहाँ. वो प्रधान मंत्री की कुर्सी खाली पडी है. राष्ट्रपति पद के साथ तो यह प्रयोग पहले भी हो चुका है. असल में असली शासकों के लिए अपने हित साधना तब सबसे आसान होता है जब वे जिम्मेदार पदों पर दूसरों को बैठा देते हैं. शर्त यह है कि ये दूसरे ऐसे लोग कतई न हों, जिनका अपना कोई वजूद हो. ये हमेशा ऐसे लोग ही होने चाहिए जिनकी काबिलियत 'यस् माई बाप' के अलावा और कुछ न हो. अभी तक थोडा संतुलन था. राष्ट्रपति पद पर एक पढ-लिखा आदमी था, जिसका राजनीति से बहुत लेना-देना नहीं था और देश उसकी चिन्ता का विषय था. लेकिन देखते रहिए. नौटंकी लोकतंत्र चालू आहे. इस नाटक के अगले अंक में प्रधानमंत्री तो वही मनोनीत वाला रहेगा और राष्ट्रपति पद पर शायद नागार्जुन की एक कविता होगी :

'...... पढिये गीता
बनिए सीता '

और
'भर-भर भात पसाइये'

(देश के लिए नहीं, तथाकथित गाँधी परिवार के लिए)
फिर परदे के पीछे बैठी एक सूत्रधार भयावह आश्वस्ति से उपजे अंहकार के साथ मुस्कराएगी. अब लो, कर दिए हर तरफ अपने गोटे फिट. इसके साथ ही यह देश प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी में पूरी तरह तब्दील हो जाएगा. इस बात पर अपने कामरेड लोग थोडा फूं-फां करेंगे. इसके बाद भोज पर बुला लिए जाएंगे. थोडा भोज-भात होगा. बोद्का-शोद्का चलेगी. बस. इसके बाद उनकी सारी नाराजगी दूर हो जाएगी और लौटकर वो बिल्कुल चकाचक होंगे. इमरजेंसी को फिर अनुशासन पर्व बताएँगे. और मस्त हो जाएंगे. वो तो खैर चलिए वही करेंगे जो करने लायक हैं. आख़िर बेचारे और कर भी क्या सकते हैं? लेकिन ये बताइए, ये देश थोडा बहुत-आपका भी तो है न! तो अब इस लिहाज से तो थोडा-बहुत आपका भी कर्तव्य बनता है! अब बताइए आप क्या कर रहे हैं?........

?

?

?

इमरजेंसी के ही दौरान अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात हुआ था. तब कुछ अखबारों ने अपना सम्पादकीय स्तम्भ खाली छोड़ दिया था. बीच वाली जगह को आप उसी परम्परा का हिस्सा समझिए. लेकिन यह जगह चुप रहने के लिए नहीं, आपके लिए छोड़ी गयी है. इसलिए कि ताकि आप अपनी भूमिका तय कर सकें. किधर जाना है? क्या करना है? कैसे करना है?
और अंत में श्रीकृष्ण तिवारी की एक पंक्ति :
भीलों ने लूट लिए वन
राजा को खबर तक नहीं
रानी हुई बदचलन
राजा को खबर तक नहीं.

अब बताइए भाई. अभी भी आपको कुछ खबर हुई कि नहीं?

(बेहतर होगा कि भूख पर सत्येंद्र श्रीवास्तव की कहानी लोकतंत्र का राजा भी पढ़ लें.)
इष्ट देव सांकृत्यायन



Comments

  1. 'padhiye Geeta,naiye Seeta' Raghuveer Sahay ki rachana hai.

    ReplyDelete
  2. बढ़िया है, लेकिन 'भात पसाइए' वाली कवितवा रघुवीर सहाय की है- ठीक कर लीजिएगा।

    ReplyDelete
  3. एक अहम दिन कई गंभीर सवाल उठाए हैं आपने।

    ReplyDelete
  4. "अभी प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति जैसे पद बने हुए है. लेकिन अब ये लोग चुने नहीं जा रहे हैं. कान पकड़ कर बैठा दिए जा रहे हैं."

    ये कान पकड़ कर बैठाये शख्श हमेशा खतरा होते हैं.

    ReplyDelete
  5. सही सोच है मैथिली जी. दरअसल यह भी एक तरह की इमरजेंसी की ही तैयारी है. हमें इससे सतर्क रहना होगा.

    ReplyDelete
  6. बिल्कुल सही चिन्ता है आपकी । पर मुझे नहीं लगता कि ७५ जैसा फिर से हो पायेगा । मुझे ऐसा लग रहा है कि महाराष्ट्र में उस समय एमर्जेन्सी के लिए आणीबाणी जैसा कोई शब्द था ।
    यदि आप मराठी हैं तो मुझे बताइये कि क्या ऐसा था ?
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete

Post a Comment

सुस्वागतम!!

Popular posts from this blog

रामेश्वरम में

इति सिद्धम

Bhairo Baba :Azamgarh ke

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

आइए, हम हिंदीजन तमिल सीखें