चलना हुआ दुशवार हमारी दिल्ली में


ऐसे समय में जबकि सारी चीजें तेजी से महंगी होती चली जा रही हों, तब आने-जाने के खर्च का भी बढ जाना कोढ़ में खाज ही तो कहा जाएगा! फिलहाल दिल्ली में यही हुआ है. अभी हफ्ता भी नहीं बीता बसों और आटो के किराये में बढोतरी हुए कि अब पैट्रोल और डीजल के दाम भी बढ़ा दिए गए हैं. किराया बढ़ा देने के बाद आटो या बसों की सेवाओ में कोई सुधार आया हो ऐसा कुछ भी भारतीय जनता तो सपने में भी नहीं सोच सकती है. राजनेताओं ने भी इस सिलसिले में कोई बयान जारी करने और यहाँ तक कि सोचने की भी जहमत नहीं उठाई. न तो आटो या टैक्सी वालों का तौर-तरीका बदला है, न बस वालों का और न ही चौराहों-नाकों पर तैनात पुलिस वालों का. बदला अगर कुछ है तो वह सिर्फ किराया है और आम आदमी की जेब पर बढ़ा बोझ है. हालांकि बसों-आटो के किराये के बढ़ने की बात तो लोगों को पहले से ही पता थी. इसके लिए पहले से ही हौले-हौले माहौल भी बनाया जा रहा था. लेकिन पैट्रोल-डीजल के दाम तो एक झटके से ही बढ़ा दिए गए. बिना कोई सूचना दिए, बिना कोई बात किए, चुपके से. इसे क्या कहिएगा?
अधिसूचना के मुताबिक पैट्रोल ६७ पैसे और डीजल २२ पैसे महंगा हो गया है. दिल्ली सरकार का तर्क यह है कि यह बढोतरी वैट गणना में विसंगति दूर करने के लिए की गयी है. यह कितनी हास्यास्पद बात है. विसंगति ही अगर दूर करनी थी तो वह दाम थोडा घटा कर भी तो की जा,, सकती थी. लेकिन नहीं सरकार ऐसा कैसे कर सकती थी? अब बात दरअसल केवल किराये बढ़ने या पैट्रोल डीजल के दाम बढ़ने के चलते यातायात मंहगे होने तक की ही नहीं है. एक-एक कर अगर गौर करें तो हम पाते हैं कि दिल्ली में आम आदमी का चलना ही दूभर कर दिया गया है. पिछले तीन वर्षों में पांच बार पैट्रोल-डीजल के दाम बढाए गए. पैट्रोल का दाम करीब डेढ़े पर पहुंच गया है. दिल्ली पर आबादी का बोझ कम करने के इरादे से विकसित किए गए एनसीआर में ही एक से दूसरी जगह आना-जाना इतना दुशवार है कि दिल्ली से गजियाबाद, गुडगाँव या फरीदाबाद जैसी जगहों पर गए लोग कई बार लौट कर दुबारा वहीं आ जाते हैं. ऐसा केवल यातायात की दिक्कत के कारण होता है.
एनसीआर की बात तो छोडिए, ऐन दिल्ली में ही आने-जाने के लिए आटो और टैक्सी चालाक भाडा बिल्कुल वैसे ही तय करते हैं जैसे ग्रामीण इलाक़ों में रिक्शे वाले तय करते हैं. इनका मीटर कभी भी ठीक तरह से काम नहीं कर रहा होता है. यह किराया बढे जाने के पहले ही नहीं, उसके बाद की स्थिति मैं आपको बता रहा हूँ. बसों में भी किराये को लेकर झिकझिक होते आए दिन देखी जा सकती है. यही नहीं ज्यादा किराया देने के बाद भी आटो, टैक्सी या बस वाला आपको ठीक समय पर सही जगह पहुँचा ही देगा, इस संदर्भ में आप बिल्कुल आश्वस्त नहीं हो सकते. अगर आपको नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से कनाट प्लेस तक जाना हो तो कोई ठीक नहीं कि आटो वाला आपको शाहदरा घुमा कर ले आए. आख़िर जो तीन-चार गुना किराया वह आपसे वसूलेगा उसका औचित्य तो उसे सिद्ध करना होगा न! यह वे ऐसे ही साबित करते हैं, आपके धन के साथ-साथ समय का भी सत्यानाश करके. यह बात बस वाले भी करते हैं, थोडा दूसरे तरीके से.
आपने गौर किया डीटीसी की बसों पर आम तौर पर रूट नहीं लिखा होता है. सिर्फ नंबर लिखा होता है और अन्तिम गंतव्य दर्ज होता है. डीटीसी के कंडक्टर चूंकि पहले से ब्लू लाइन बस वालों से खा-पी कर चलते हैं, लिहाजा उनकी पूरी कोशिश इसी बात की होती है कि कहीँ कोई सवारी बैठ न जाए. जो बैठे दिखते हैं वे तो अपनी बेहयाई से वहाँ नजर आते हैं. ब्लू लाइन बसों का हाल यह है कि अगर उन्हें स्टेशन से सीधे नेहरू प्लेस जाना हो और आप बाहर से आए हों और पूछ बैठें तो वे आपको आजादपुर के लिए भी बैठा सकते हैं. सारा शहर फालतू घूमने के बाद अगर आपने कहीँ ग़ुस्सा दिखाया इस बदसलूकी पर तो उनके कंडक्टर रूपी गुर्गे तुरंत सरिया भी निकालेंगे और आपके हाथ-पैर सब दुरुस्त भी कर देंगे.
एनसीआर का आलम यह है कि अगर आपको दिल्ली से बाहर, यानी नोएडा-गजियाबाद-गुडगाँव या फरीदाबाद आदि जाना हो तो आटो मिलाने की उम्मीद ही छोड़ दें. यही वजह है जो यहाँ से जुडे शहरों में फ़्लैट खरीदने के बाद लोग वर्षों झेलते रहते हैं और कुछ तो वापस लौट भी आते हैं. जो लोग वहाँ जाकर रह लेते हैं वह सिर्फ अपनी गाढी कमाई लगा चुके होने के नाते. चैन से वहाँ सिर्फ वही लोग रह सकते हैं जिनके पास अपना चार पहिया वाहन हो. दिल्ली में जहाँ आपने किसी आटो या टैक्सी वाले से गाजियाबाद या गुडगाँव चलने की बात की नहीं कि वह भागेगा. सिर्फ अपना भाव बढ़ाने के लिए. वह बताएगा कि नाके पर पुलिस वाले को देना पड़ता है. वो तंग करेगा. दूसरा इस्टेट है न.
सवाल यह है कि अगर इतने दिनों में सरकार एक एनसीआर के लिए एक यातायात नीति नहीं बनाई जा सकती तो इसे बनाने और विकसित करने का मतलब क्या है? अगर दुपहिया, तिपहिया और चर्पहिया जैसी बुनियादी जरूरत और निजी इस्तेमाल वाले वाहनों के लिए पूरे एनसीआर में एक लाइसेंसिंग और एक परमिट व्यवस्था ही लागू नहीं की जा सकती तो इसे बनाने का मतलब क्या है? क्या सिर्फ दिल्ली का कूड़ा बाहर फेंकने के लिए ऐसा किया गया है? इसका निर्माण तो इसीलिए किया गया था कि लोग दिल्ली से बाहर रह कर भी दिल्ली में नौकरी या व्यवसाय कर सकें. अब अगर किसी को दिल्ली के बाहर से दिल्ली में व्यवसाय करने आना होगा तो उसे वाहन का प्रयोग तो करना ही होगा. इसके लिए अगर दिल्ली और इसके आसपास के शहरों में लोगों को वाहन ले जाने की ही अनुमति नहीं होगी या इसके नाम पर पुलिसिया वसूली होगी तो फिर इसका अर्थ ही क्या रह जाएगा?
इसी क्रम में अभी हाल ही में हुई एक और बात का जिक्र करना जरूरी लगता है. यह मसला है दिल्ली में यातायात व्यवस्था की नई आचार संहिता का. इसे लेकर बमुश्किल दो महीने पहले ख़ूब हो-हल्ला हुआ था. ऐसा लग रहा था जैसे अब दिल्ली में यातायात नियमों का उल्लंघन करने वालों की खैर नहीं ही रह जाएगी. सबसे ज्यादा हल्ला लेन ड्राइविंग को लेकर मचाया गया था. अखबारों में जैसा प्रचार इसका किया गया था उससे तो ऐसा लग रहा था गोया अब पूरी दिल्ले लेन में ही सजी नजर आएगी. थोड़े दिन चालान-वालां काटने की कसरत भी हुई, लेकिन फिर नतीजा वही ढाक के तीन पात. चालान-वालाना ही कट कर रह गए, यातायात की व्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पडा. अभी भी पूरी दिल्ली वैसे ही चल रही है. वही भेड़ियाधसान, वही मारामारी.
हाईकोर्ट के आदेश के बहाने शुरू हुए इस अभियान से आम आदमी के आने-जाने पर कोई फर्क नहीं पडा है. न तो उसकी सुरक्षा बढ़ी है, न समय की बचत हुई है. बढ़ी है सिर्फ एक चीज और वह है राजस्व. सरकार और पुलिस दोनों की जेबें अपने-अपने ढंग से गर्म हो गयी हैं. बेचारा कोर्ट फिर ठगा सा रह गया. वह क्या करे? वह तो सिर्फ आदेश ही कर सकता है, उसे लागू नहीं करा सकता है. लागू कराने के लिए कार्यपालिका में ईमानदारी का होना जरूरी . वह विधायिका कभी होने देगी क्या? अगर कार्यपालिका सुधर गयी तो विधायिका आम जनता का ख़ून कैसे चूसेगी? चाहे पैट्रोल-डीजल का दाम बढ़े या आटो-बस का या रेल का भाडा, जेब कटेगी हमेशा आम जनता की ही. मारे जाएँगे सिर्फ वही जो आदतन या मजबूरन ईमानदार हैं. नेताओं-साहबों का खर्च नहीं घटाया जाएगा, आम जनता की जेब काटी जाएगी. उसकी जान ली जाएगी. यह सब आख़िर कब तक चलेगा?
इष्ट देव सांकृत्यायन

Comments

  1. सा.कृत्यायन जी,

    आपके ब्लाग की रंग व्यवस्था बहुत अच्छी लगी। 'मसिजिवि' के चिट्ठे पर आपकी एक टिप्पणी पढ़ी- बहुत अच्छी लगी।

    आपका यह प्रविष्टि का विषय - "भीड़" भी बहुत सार्थक है। यही हाल भारत के लगभग सभी शहरों की हो गयी है। अब यह भीड़ सरकारों द्वारा कोई साहसिक निर्णय लेने से ही दूर होगी। सबसे दु:ख की बात है कि शहरों में पैदल चलना आजकल बहुत ही कष्टकर हो गया है-वाहनों और उनके धूयें और कर्कश आवाज के कारण।

    लिखते रहिये।

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  2. ' चाहे पैट्रोल-डीजल का दाम बढ़े या आटो-बस का या रेल का भाडा, जेब कटेगी हमेशा आम जनता की ही। मारे जाएँगे सिर्फ वही जो आदतन या मजबूरन ईमानदार हैं। नेताओं-साहबों का खर्च नहीं घटाया जाएगा, आम जनता की जेब काटी जाएगी। उसकी जान ली जाएगी।'
    बहुत सही बात कही है आपने । हमारे देश की असल में यही हकीकत है । सवाल भी मुफीद उठाया है । इसके लिए आवाज हमें ही बुलंद करनी होगी ।
    आसिफ़ फारुखी

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  3. ब्लोगों की दुनिया में मेरी दिलचस्पी काफी दिनों से है । लेकिन आम तौर हिंदी ब्लॉगों में मैं अधिकतर वही कुंठाओं वाली प्रवृत्ति देख रहा हूँ । केवल साहित्य के नाम पर सार्थक सामग्री मिल जाती है और नहीं तो ज़्यादातर बकवास, केवल भडास निकलने वाली आदत दिखती है । निरी खाखाली बकवास और उस पर बहस की चोचालेबजी, जैसे साहित्य और संसद में भी होता है । सबको पता है की लोग जो बात कह रहे हैं उनमें खुद उनकी ही कितनी आस्था है । पर बंडल्बाजी हुए जा रही है और अब तो इसमें गाली-गलौच तक शामिल हो गयी है । आपका ब्लोग देखा और अपके दो-तीन लेख पढे । कविताएँ भी पढ़ीं । पहली बार लगा की इसका ऐसा सार्थक इस्तेमाल भी हो सकता है । आपने कविताओं और लेखों दोनों ही चीजों में बहुत ही असली मुद्दे उठाए हैं और सही बातें कही हैं । ब्लागरी लेखन को यह गरिमा बख्शने के लिए धन्यवाद स्वीकारें ।
    राजू तैतुस

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  4. भाई इश्त्देव्जी
    आपका ब्लोग मुझे नारद से मिला । पढ़ कर तो मजा आ गया । खास तौर से दिल्ले में महंगाई और ट्राफिक समस्या को आपने जितने ढंग से उठाया है, वैसा कहीँ ब्लोग पर नहीं दिखाता है । हाँ, कॉंग्रेस और नेहरू परिवार और प्रधानमंत्री वाला लेख आपका जरूर थोडा अटपटा लगा । अपके विचार बहुत कड़े हैं, पर गलत भी नहीं कहे जा सकते । नेहरू परिवार और मनमोहन सिंह से लगता है apko शायद nafrat है, fir भी bade gusse के बाद भी अपने भाषा को ashleel नहीं hone दिया है । और bat भी अपनी पुरी कह गाए हैं । यह अपके ब्लोग की बड़ी अचीवमेंट है।
    सतनाम सिंह

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