अथातो जूता जिज्ञासा-32

आप कई बार देख चुके हैं और अकसर देखते ही रहते हैं कि ख़ुद को अजेय समझने वाले कई महारथी इसी खड़ाऊं के चलते धूल चाटने के लिए विवश होते हैं. यह अलग बात है कि अकसर जब आप धूल चाटने के लिए उन्हें मजबूर करते हैं तो यह काम आप जिस उद्देश्य से करते हैं, वह कभी पूरा नहीं हो पाता है. हर बार आप यह पाते हैं कि आप छले गए. इसकी बहुत बड़ी वजह तो यह है कि आप अकसर 'कोउ नृप होय हमें का हानी' वाला भाव ही रखते हैं. कभी अगर थोड़ा योगदान इस कार्य में करते भी हैं तो केवल इतना ही कि अपना खड़ाऊं चला आते हैं, बस. और वह काम भी आप पूरी सतर्कता और सम्यक ज़िम्मेदारी के साथ नहीं करते हैं. आप ख़ुद तमाशेबाज खिलाड़ियों के प्रचार तंत्र से प्रभावित होते हैं और इसी झोंक में हर बार अपने खड़ाऊं का पुण्यप्रताप बर्बाद कर आते हैं. और यह तो आप अपनी ज़िम्मेदारी समझते ही नहीं हैं कि आपके आसपास के लोगों के प्रति भी आपकी कोई ज़िम्मेदारी बनती है.
अगर आपका पड़ोसी ग़लती करता है और आप उसे ग़लती करते हुए देखते हैं तो ज़्यादा न सही पर थोड़े तो आप भी उस ग़लती के ज़िम्मेदार होते ही हैं न! बिलकुल वैसे ही जैसे अत्याचार को सहना भी एक तरह का अत्याचार है, ग़लती को देखना भी तो एक तरह की ग़लती है! अगर आप अपने पड़ोसी को ग़लती करने से बचने के लिए समझाते नहीं हैं, तो इस तरह से भी एक ग़लती ही करते हैं. वैसे अगर आप पॉश लोकेलिटी वाले हैं तो वहां कोई ग़लती अनजाने में नहीं करता. वहां ग़लती करने के पहले भी उसकी पूरी गणित लगा ली जाती है. ग़लतियां वे करते हैं जिन्हें आप कम-अक्ल मानते हैं. और वे ग़लतियां इसलिए नहीं करते कि उनका विवेक आपसे कम है, वे ग़लती सिर्फ़ इसलिए करते हैं क्योंकि वे इतने सूचनासमृद्ध नहीं हैं जितने कि आप. उनके पास इसका कोई उपाय नहीं है. आपके पास उपाय तो है और आप सूचना समृद्ध भी हैं. चाहें तो दुनिया के सच को देखने के लिए अपना एक अलग नज़रिया बना सकते हैं. पर आप वह करते नहीं हैं. क्योंकि आप एक तो अपनी सुविधाएं नहीं छोड़ सकते और दूसरे वह वर्ग जो आपको सुविधाएं उपलब्ध कराता है, उसके मानसिक रूप से भी ग़ुलाम हो गए हैं.
यह जो आपकी दिमाग़ी ग़ुलामी है, इससे छूटिए. उनके प्रचार तंत्र से आक्रांत मत होइए. यह समझिए कि उनका प्रचारतंत्र उनके फ़ायदे के लिए है, आपके फ़ायदे के लिए नहीं. वह हर हवा का रुख़ वैसे ही मोड़ने की पूरी कोशिश करते हैं, जैसे उनका फ़ायदा हो सके. अगर उनका न हो तो उनके जैसे किसी का हो जाए. सांपनाथ न सही, नागनाथ आ जाएं. नागनाथ के आने में आपको ऐसा भले लगता हो कि सांपनाथ का कोई नुकसान हुआ, पर वास्तव में सांपनाथ का कोई नुकसान होता नहीं है. यह जो झैं-झैं आपको दिखती है, वह कोई असली झैं-झैं नहीं है. असल में नागनाथ और सांपनाथ के बीच भी वही होता है जो बड़े परदे पर नायक और खलनायक के बीच होता है. ज़रा ग़ौर फ़रमाइए न, सांपनाथ का ऐसा कौन सा पारिवारिक आयोजन होता है, जिसमें नागनाथ शामिल नहीं होते हैं और नागनाथ का ऐसा कौन सा काम होता है जिसमें  सांपनाथ की शिरकत न हो?
फिर? भेद किस बात का है? असल में यह भेद नहीं, भेद का नाटक है. अगर वे ऐसा न करते तो अब तक कब के आप यह समझ गए होते कि बिना पूंजी के भी चुनाव जीता जा सकता है और ज़रूरी नहीं कि बड़ी-बड़ी पार्टियों के ही माननीयों को जिताया जाए, आप अपने बीच के ही लोगों को चुनाव लड़ा-जिता कर सारे सदनों पर अपने जैसे लोगों का कब्ज़ा बनवा चुके होते. भारत की व्यवस्था से पूंजी, परिवारवाद, क्षेत्रवाद और जाति-धर्म का खेल निबटा चुके होते. लेकिन आप अभी तक ऐसा नहीं कर सके. क्यों? क्योंकि आपके दिमाग़ में यह बात इस तरह बैठा दी गई है कि जनतंत्र में जीत धनतंत्र की ही होनी है, कि आप आज अचानक चाहें भी तो उसे अपने दिमाग़ से निकाल नहीं सकते हैं. अभी जो मैं यह कह रहा हूं, शायद आपको ऐसा लग रहा हो कि इसका दिमाग़ चल गया है.
लेकिन नहीं दोस्तों, आप अचानक कलम छोड़ कर जूता निकाल लेते हैं, तब आपकी मनःस्थिति क्या सामान्य होती है? नहीं. यह आपको इसीलिए करना पड़ता है क्योंकि कलम को आपने सिर्फ़ रोजी-रोटी से जोड़ लिया है. यह आपके भीतर एक तरह का अपराधबोध भी पैदा करता है, समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी न निभा पाने की और अपराधबोध आपको एक दिन उबलने के लिए मजबूर कर देता है. यह सिर्फ़ शोषण-दमन की पीड़ा नहीं है जो जूते के रूप में उछलती है, यह स्वयं अपनी ही आत्मा के प्रति धिक्कार की भी पीड़ा है, जो दूसरों के साथ-साथ अपने पर भी उछलती है और यह अनियंत्रित उछाल कोई सही दिशा नहीं ले सकती. इसका तो उपयोग वही अपने हित में कर लेंगे जिनके ख़िलाफ़ आप इसे उछाल रहे हैं. क्योंकि उनके पास एक सुनियोजित तंत्र है, जो हारना जानता ही नहीं. वह हर हाल में जीतने के लिए प्रतिबद्ध है. साम-दाम-दंड-भेद सब कुछ करके. दो सौ वर्षों से चली आ रही भारत की आज़ादी की लड़ाई ऐसे ही केवल बीस वर्षों में हाइजैक कर ली गई. इसके पीछे कारण कुछ और नहीं, केवल ऊर्जा का अनियंत्रित प्रवाह था.
अकसर होता यह है कि आपने कुछ लिखा और अपनी ज़िम्मेदारी पूरी मान ली. अपने पाठक को शंकाएं उठाने और तर्क़ करने का तो आप कोई मौक़ा देते ही नहीं. उसे वह मौक़ा दीजिए. यह मौक़ा उसे भी दें जो आपका पाठक-दर्शक या श्रोता नहीं है. जो किसी का भी पाठक होने लायक तक नहीं है. थोड़ा निकलिए दीन-दुनिया में. मिलिए ऐसे लोगों से जिनसे मिलना आपको ज़रा निम्न कोटि का काम लगता है. अगर आप एक दिन में एक व्यक्ति से भी आमने-सामने का संपर्क करेंगे तो यह न सोचें कि वह संपर्क केवल एक ही व्यक्ति तक सीमित रहेगा. याद रखें, बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी.  यह रास्ता थोड़ा लंबा ज़रूर है, पर अंतहीन नहीं है. और ख़याल रखें, ज़िन्दगी का कोई शॉर्टकट नहीं होता. शॉर्टकट तो हमेशा मौत का ही होता है. अगर शॉर्टकट के फेर में पड़ेंगे तो फिर से वही जलालत झेलनी होगी. लड़ाई हाइजैक हो जाएगी. सिर्फ़ चेहरे बदल जाएंगे, व्यवस्था वही बनी रहेगी.
इसलिए कहीं भी अकेले-अकेले जूते चलाने की ग़लती न करें. अगर दुनिया के मजदूर-किसान यानी असली फोर्थग्रेडिए इकट्ठे नहीं हो सकते तो कोई बात नहीं, पर कम से कम भारत के तो सारे चिरकुट एक हो जाएं. चुनाव का समय भी वस्तुतः देश के सारे चिरकुटों की सोच की एकता प्रकट करने का एक मौक़ा होता है. यह क्यों भूलते हैं कि 19वीं सदी के आरंभ तक इस देश का आम आदमी चुनाव के बारे में जानता भी नहीं था. और तब जब उसे इसके बारे में पता भी चला तो माननीयों के चयन में उसकी भागीदारी नहीं थी. सिर्फ़ माननीय ही चुनते थे माननीयों को. लेकिन अब माननीयों को वह सिर्फ़ चुन ही नहीं रहा है, उनकी मजबूरी बन चुका है. यह काम कोई एक दिन में नहीं हुआ है. क़रीब सवा सौ साल लगे हैं इतिहास को बदलने में. यह कोई एनसीआरटी की किताब वाला इतिहास नहीं था, जिसे च्विंगम चबाते-चबाते जब चाहे बदल दिया जाए. यह असली इतिहास है. इसके बदलने में कई बार हज़ार-हज़ार साल भी लग जाते हैं.
जानकारी का अधिकार अभी तक आपके पास नहीं था, पर अब है. यह आपको मिल सके इसके लिए कितना संघर्ष करना पड़ा, यह आप जानते ही हैं. थोड़े दिन और संघर्ष के लिए तैयार रहिए, आपको इन जिन्नों को वापस उसी बोतल मे भेजने का अधिकार भी मिलने वाला है. अभी यह विकल्प भी आपके सामने आने वाला है कि जो लोग मैदान में दिख रहे हैं उनमें अगर आपको कोई पसन्द नहीं है तो आप यह भी ईवीएम में दर्ज करा आएंगे. टीएन शेषन ने अगर यह सोचा होता कि भारत की चुनाव प्रक्रिया को बदलना अकेले उनके बस की बात नहीं है तो क्या होता? क्या आज यह सोचा जा सकता था कि बिना बूथ कैप्चरिंग के भी चुनाव हो सकता है. लेकिन नहीं उन्होंने आलोचनाओं को बर्दाश्त करते हुए अपनी ख़ब्त को ज़िन्दा रखा और आज यह संभव हो गया. ऐसे ही एक दिन नागनाथ-सांपनाथ से मुक्ति भी संभव दिखेगी. वह भी शांतिपूर्वक. लेकिन ऐसा तभी संभव होगा जब आप उतावली में न आएं. इस दुनिया को धीरे-धीरे बदलने की कोशिश करें. इसके पहले कि बड़े बदलाव के लिए कोई प्रभावी कदम उठाएं चेतना के अधिकतम दिये जला लें. अगर ऐसा नहीं करेंगे तो आपकी कुर्बानी भी वैसे ही हाइजैक हो जाएगी जैसे मंगल पान्डे, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला ख़ां, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, शचीन्द्रनाथ सान्याल और उधम सिंह की कुर्बानी हाइजैक हो गई. या फिर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की तरह आप ख़ुद ही हाइजैक कर लिए जाएंगे.

इसके विपरीत, चेतना का एक दिया अगर आप जलाएंगे तो वह अपने जैसे हज़ार दिये जला देगा. उन हज़ार दियों से हज़ार हज़ार दिये जल जाएंगे. फिर जो जूतम-पैजार शुरू होगी, वह चाहे किसी भी रूप में हो, उसे रोकना या हाइजैक कर पाना किसी माननीय के बस की बात नहीं होगी.  आख़िर एक न एक दिन तो नासमझी इस दुनिया से विदा होनी ही है, तो आज से ही हम इस महायज्ञ में हिस्सेदार क्यों न हो जाएं. बस अपने संपर्क में आने वाले हर शख़्स को यह समझाने की ज़रूरत है कि एक बोतल, एक कम्बल, एक सौ रुपये के लिए अगर आज तुमने अपने पास का खड़ाऊं बर्बाद कर दिया, झूठे असंभव किस्म के प्रलोभनों में अगर आज तुम फंस गए, तो उम्र भर तुम्हें इसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा के जाल में फंसने जैसा महापाप अगर आज तुमने किया तो इसका प्रायश्चित तुम्हारी कई पीढ़ियों को करना पड़ेगा. इसलिए सिर्फ़ इस पाप से बचो. निकालो अपना-अपना खड़ाऊं और दे मारो उन माननीयों के मुंह पर जो आज तक तुम्हें भांति-भांति की निरर्थक बातों से बहकाते रहे हैं. मुंगेरी लाल के हसीन सपने दिखा कर जलालत की भेंट देते रहे हैं.  तो भाई, अब ताक क्या रहे हैं निकालिए और दे मारिए अपना खड़ाऊं-जूता-चप्पल-चट्टी ... जो कुछ भी है.....पर ज़रा देख के .. ज़रा ध्यान से..  एक साथ .. एक तरफ़... ताकि असर हो. ऐसा कि ......

(दोस्तों अथातो जूता जिज्ञासा की तो यह इति है, पर मुझे पूरा विश्वास है कि जूता कथा अब शुरू होगी और उसे लिखेंगे आप.... अपने-अपने ....................

अथातो जूता जिज्ञासा-31

ओम क्रांति: क्रांति: क्रांति: ओम

Comments

  1. तो भाई, अब ताक क्या रहे हैं निकालिए और दे मारिए अपना खड़ाऊं-जूता-चप्पल-चट्टी ... जो कुछ भी है.....पर ज़रा देख के .. ज़रा ध्यान से.. एक साथ .. एक तरफ़... ताकि असर हो. ऐसा कि ......

    भाई अविनाश वाचस्पति जी।
    जूता पुराण अच्छा चल रहा है।
    इसे 16 मई तक चलने दीजिए।

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  2. हाँ इसका समापन १६ को ही करें !

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  3. ओह, क्या जबरदस्त पोस्ट! मैं आत्मसात करने में लगा हूं। असल में जूता चलाने में मनोवृत्ति "उतलहिली (जल्दबाजी)" की है। यह युग असीम क्षमतावान लोगों का है तो असीम इम्पेशेंण्टों का भी है।
    खैर --- पूरी पोस्ट पर समग्रता से शायद टिप्पणी न कर पाऊं।
    इस पोस्ट से आपके प्रति सम्मानभाव और बहुत बढ़ गया है।

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  4. नागनाथ या सांपनाथ ही नहीं सारे मनमोहक सांप ,लाल सांप ,मायावी सांप ,मुलायम सांप ,कराऐत सांप ...जैसे विषैले साँपों से हमे छुटकारा पाना है .क्योंकि ये न सिर्फ कलम वालों को बल्कि घुरहुओं को भी काट रहे हैं.
    मनामोहकों के लिए भ्रष्टाचार और परिवारवाद ,पाखंडी लालों के लिए साम्प्रदायिकता ,मुलायमों के लिए अपराधीकरण ,मायाविओं के लिए जातिवाद और बाहुबलीकृत अराजकता ,प्रो- पाकचीन करैतों के लिए आतंकवाद और अवैध घुसपैठ ,....वगैरह वगैरह ....कभी असल और घम्भीर मुद्दा बन ही नहीं सकता .जिस दिन ऐसा हो जाए वह दिन भारत के लिए स्वर्णिम होगा ,पर आज ऐसा १०० प्रतिशत असंभव है .अब परम पवित्र राम जी का खडाऊं ही एकमात्र साहरा है .

    कलम वालों की खडाऊं शक्तिहीन न हो इसके लिए जरूरी है कि घुरहुओं की खडाऊं न बिके. कलम वालों के खडाऊं के चेतना बल के पीछे घुरहुओं के खडाऊं का संख्याबल जरूरी है वरना चारदीवारी के अन्दर चिल्लाते रहने से कुछ भी सिद्ध नहीं होने वाला .
    पर कलम वालों में से कई भारत माँ के साथ मुह काला करने वालों का विरोध करने की बजाए खुद अपनी बारी और हिस्सेदारी के लिए बेचैन हैं .साथ ही उसकी चेतना और रोटी को हाइजैक कर घुरहू को भी अशिक्षा और भूख के दलदली कुचक्र में फंसा दिया गया है.घुरहू रोटी का मोहताज है उसके सामने जो रोटी फेंके उसी के सामने लगता है दुम हिलाने .
    खैर जो भी हो इन चुनौतियों से दुम दबाकर भागने से हम अपनी मातृभूमि को बलात्कारियों के पाश से आजाद नहीं करा सकते .देशी-विदेशी हिन्दुस्तानी कलम खोंसने वाले जिनकी आत्मा अभी पूरी तरह से बुझी न हो घृणाभावः यदि हो तो उससे ऊपर उठकर सात्विक मन से उसकी बस्ती में जाकर एक घुरहू की चेतना दीप जलाने की जिम्मेवारी लें.

    ध्यान रख सकते हैं आप कभी भी नाजायज़ विधि का सहारा नहीं लें.
    ...तो आप अब किस श्रेणी में हैं आप चुनें ?

    अपनी माँ के साथ दुष्कर्म --
    १)करने वालों की श्रेणी में
    २)होते देखने वाले रीढ़विहीनो की श्रेणी में
    ३)करने वालों को बर्दाश्त न करने वालों की श्रेणी में
    यदि आपका जवाब ३ है तो आज ही एक घुरहू की जिम्मेदारी लें और यदि पहले और दुसरे श्रेणी के लोग आपको पागल कहें तो विचलित न हों.

    हिंदुस्तान जिंदाबाद ,बन्दे मातरम ,जय हिंद

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  5. इस पोस्ट नें तो रोचकता बढा दी .

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  6. वैसे तो पूरी श्रृंखला अच्‍छी रही .. साथ ही अंत भी बहुत सुंदर ढंग से किया है .. ये पंक्तियां खास अच्‍छी लगी 'ज़िन्दगी का कोई शॉर्टकट नहीं होता. शॉर्टकट तो हमेशा मौत का ही होता है. अगर शॉर्टकट के फेर में पड़ेंगे तो फिर से वही जलालत झेलनी होगी. लड़ाई हाइजैक हो जाएगी. सिर्फ़ चेहरे बदल जाएंगे, व्यवस्था वही बनी रहेगी.' .. बहुत बढिया लिखा है।

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  7. अंत तो "इमोशनल" कर गया सर....
    मेरे ख्याल से तो ये हिंदी ब्लौग-जगत का अपने आप में नायाब अनूठा प्रयास होगा अब तलक का।

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  8. अंत ऐसे जल्दी आ गया कि यकीन नहीं हुआ!!

    हां इस परंपरा ने आपकी लेखन शक्ति को एकदम व्यक्त कर दिया है. मेरा सुझाव है कि गंभीर एवं चितनिय विषयों को आप इस शैली में प्रस्तुत करना शुरू कर दें. रोचकता बनी रहेगी, ज्ञान बढेगा, रोशनी कुछ और दूर तक फैलेगी!!

    सस्नेह -- शास्त्री

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
    http://www.Sarathi.info

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  9. पंडित जूतादासजी आपके श्रीचरणों में लोटने को जी चाहता है बडे ज्ञान की बातें करते हैं महाराज.आप हमारे ब्लाग पर आये और अपनी जूता कथा का रस लेने को आमंत्रित कर गयें. सो आप साफ साफ सुनिए. समस्या जुतियाने की नहीं जूते है की खास कर हमारे जैसे लोग सिर्फ फेंक कर काम नहीं चलायेंगे हमने फेंका तो दूसरा जूता कहां से लायेंगे पुराने जूते बड़ी मुश्किल से साथ निभा रहे हैं.
    हम से ज्यादा हालत खराब तो उन बदनसीबों की है जिनके पाँव ता उम्र जूते को तरस जाते हैं हमारे गुजरात का आहवा डांग आदिवासी क्षेत्र जहां मुझे पहली पोस्टिंग में फेंका गया था वहां के निवासी आज भी बिना जूते और आदिम रूप में गुज़र कर रहे हैं जंगल छिन गये क्या करें. ये फेंकने वाले सीन कर रहे हैं जानता हूँ पर आग़ाज़ अच्छा है.हमने अपने शिक्षा विभाग को शब्दों के माध्यम से जुतियाया तो साफ शब्दों में वार्न किया गया है.ट्रांसफर, गुप्त रिपोर्ट सी.आर बिगाड़ देना,प्रमोशन अटका देना सारे स्वाद चखे हैं .राज्य सरकार के खिलाफ उच्च न्यायालय में दो मेटर रूल्ड हो चुकी हैं बोर्ड पर आनें में वर्षों लगेंगे.
    सो पंडितजी कथा सुनने के हमारे दिन नहीं हैं.हम तो अपने मिशन पर है लड़ाइयाँ अब आमने सामने की नहीं रहीं.आप जिन महानुभावों की बात कर रहे हैं वे बहुत ही निर्लज्ज हैं.उन्हें जूता नहीं कुछ और चाहिए लोग उस तरफ भी प्रयाण करने वाले हैं.खैर आप की जूत कथा
    में आमंत्रित करने के लिए कृतज्ञ हूं महाराज लगे रहो.पालागी.

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  10. तो भाई, अब ताक क्या रहे हैं निकालिए और दे मारिए अपना खड़ाऊं-जूता-चप्पल-चट्टी ... जो कुछ भी है.....पर ज़रा देख के .. ज़रा ध्यान से.. एक साथ .. एक तरफ़... ताकि असर हो. ऐसा कि ......, bhaut khoob

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  11. इष्ट जी जूता के पूरे बत्तीसों अध्याय पढ़ डाले मज़ा आ गया . अब जूता के प्रति श्रद्धा जग गई है . जूता पड़े या पहिनो दोनों ही पूज्यनीय हैं . जिज्ञासा समाप्त हुई . बधाई [राकेश सोऽहं]

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