मैं क्यों नहीं लेता चीनी सामान
मैं
तब सतवीं-आठवीं का छात्र था. नेपाल के भैरहवा बाजार का बड़ा क्रेज था. ठेठ गोरखपुरियों
को कम, जो लोग दूसरी जगहों से वहाँ आते थे या आकर बस गए थे, उनमें ज्यादा था यह क्रेज. कोई रिश्तेदार या मित्र उनके यहाँ आता तो वे उसे
लेकर तुरंत नेपाल घूमने जाते. दो-तीन चीजें मुझे भी बहुत अच्छी लगती थीं और वे थीं
पेंसिल, फाउंटेन पेन, टॉर्च और चप्पल आदि.
हमारे साथ एक लड़का पढ़ता था अजय. उसका परिवार आगरा से था. हम लोग उससे ताजमहल के बारे
में जानकारी लेते थे और उसी से मुझे पता चला कि ताजमहल से बहुत बढ़िया चीज आगरा का किला
है. मथुरा और वृंदावन के मंदिर हैं. तब तक मेरे आगरा आने की नौबत नहीं आई थी. अब तो
कई बार रिटर्न हो चुका हूँ. खैर, अजय का परिवार चूँकि गोरखपुर
से दूर का था, इसलिए लोगों को नेपाल जाना एक विदेशयात्रा जैसा
लगता था और वहाँ से चीजें लाने का अपना अलग क्रेज था. तो अजय अकसर नेपाल से सामान ले
आता था और बालसुलभ प्रवृत्ति के तहत क्लास में वे अजब-गजब चीजें दिखाकर अपना भाव बढ़ाता
था. हम सब बच्चे थे. वही चीजें ला सकते थे जो परिवार के लोग दिला देते. यह बात उसके
साथ भी थी. हमारा परिवार चूँकि लोकल था और परिवार के लोगों को नेपाली चीजों की हकीकत
पता थी, तो हम लोग अगर दिखावटी चीजें खरीदने की माँग करते तो
डाँटे जाने का डर ज्यादा था. उसके साथ ऐसा नहीं था. वह इसका पूरा फायदा उठाता और तरह
तरह के खिलौने लाता. हालांकि ये खिलौने दो-चार दिन में ही टूट जाते या खराब हो जाते.
वहाँ से एक खास तरह का कपड़ा भी आता था और वह था पीली धारी. वह वास्तव में मोटा पॉलिएस्टर होता था. उसके बॉर्डर पर पीले रंग बहुत महीन धारी होती थी. उसी धारी के नाते उसका नाम हमारे क्षेत्र में पीली धारी पड़ गया था. उसका बड़ा क्रेज था, लेकिन यह क्रेज गोरखपुर शहर में ही था, हमारे गाँव में नहीं. इसलिए मैंने पहना नहीं था. नवीं में था तो मेरी दोस्ती रहमान सिद्दीकी से हुई. वह गोरखपुर जिले के ही खजनी के पास का था. हमारा गाँव गोरखपुर से जितना उत्तर था उसका गाँव लगभग उतना दक्खिन. रहमान किसी के साथ नेपाल गया और वहाँ से पीली धारी का कपड़ा ले आया. थोड़े दिन तो उसने दोस्तों के बीच खूब भाव बनाया, लेकिन इसके बाद एक गड़बड़ हो गई. उसकी टांगों में बहुत सारे फोड़े निकल आए. अंगरेजी दवाई से ठीक नहीं हुआ तो उसके पिताजी उसे लेकर शहर के ही एक होमियोपैथी डॉक्टर डॉ. हेमंत बनर्जी के पास गए. रहमान उनके पास भी वही पीली धारी पहन कर गया और उसे पीली धारी में देखते ही डॉक्टर साहब फट पड़े. खैर, बेचारे ने पीली धारी छोड़ी और ठीक हुआ. तब तक मेरे मन में भी पीली धारी पहनने का शौक बहुत था, लेकिन रहमान का हश्र देखने के बाद मेरा भूत उतर गया.
इसके
बाद 2005 में मैं संस्थागत काम से मलेशिया गया. वहाँ हमारा गाइड हमें पिनांग में चाइना
मार्केट घुमाने ले गया. लेकिन इस पूरे दौरान वह चीन के लोगों और सामान की बुराई ही
करता रहा. उसने हमें पहले ही ताकीद कर दिया था कि वहाँ सामान बस देख लेना. खरीदना मत.
क्योंकि चाइना मार्केट शुद्ध धोखाधड़ी. ख़ैर, मुझे तो वहाँ कोई चीज खरीदने लायक दिखी
ही नहीं. लेकिन हमारे दो साथियों ने कुछ चीजें खरीद लीं. वो सारी चीजें भारत पहुँचना
तो दूर पिनांग से कुआलालमपुर भी नहीं पहुँच सकीं और खल्लास हो गईं. बाद में मुझे ऐसी
धारणा अब चीन के उपनिवेश जैसे बन चुके हांगकांग और मकाओ के लोगों में भी देखने को मिली
और यह गलत नहीं थी. यहाँ तक कि खुद चीन में भी यही धारणा है. बेचारा वहाँ का आमजन कामरेड तो है नहीं. का-मरेड लोगों को एक बार ठीक से झेल लेने के बाद कोई भी कामरेड नहीं रह जाता. इससे मेरी धारणा बनी कि चीनी सामान सस्तेपन के साथ-साथ सस्ती प्रवृत्ति यानी घटियेपन के लिए भी जाने जाते हैं. आप जिस दाम के चीनी सामान लेते हैं, उसी दाम के दूसरे सामान लेकर देखिए, खुद जान जाएंगे.
इसीलिए जब भारत का पूरा बाजार चीन के कसीदे पढ़ने में लगा था और यहाँ फैशनपरस्त कामरेड लोग चीनी माल के दलाल का काम करने में लगे थे (जो कि आज और पुरजोर तरीके से लग गए हैं) तब भी मैंने कभी कभी कोई चीनी सामान नहीं खरीदा. गलती से एक बार मोटोरोला का मोबाइल ले लिया था. मेरी धारणा यह थी कि यह अमेरिकन है. इसके पहले मैं मोटोरोला तीन बार इस्तेमाल कर चुका था और हर बार बहुत अच्छा रेस्पोंस मिला था. लेकिन खरीदने के बाद पता चल पाया कि अब तो यह चाइनीज हो चुकी है. मैंने सोचा, अब तो खर्च ही कर चुके हैं. तो चलो चला ही लो. एक उम्मीद यह भी थी कि कंपनी अमेरिकन है, इतनी जल्दी उसकी क्वालिटी बर्बाद नहीं होगी. लेकिन अफसोस, वह मोबाइल एक साल में तीन बार खराब हुआ और साल बीतते ही बिलकुल खल्लास. बस वारंटी पीरियड भर.
उसके
बाद मैंने तय किया कि बिना मोबाइल लैप्टॉप के तो रहा जा सकता है, लेकिन चीनी माल
नहीं लिया जा सकता. इसके बड़ी बेवकूफी दूसरी नहीं हो सकती. फिर सवाल यह कि क्या लिया
जाए? उस सर्च के दौरान मुझे पता चला कि चीन के आसपास के ही दूसरे
देशों की कंपनियों की इलेक्ट्रॉनिक चीजें लगभग उतने ही दाम में उससे बेहतर क्वालिटी
वाली और टिकाऊ मिलती हैं. इनमें मुझे सबसे पहले नंबर सैमसंग पसंद है. दूसरी ताइवान
की आसुस और एसर की चीजें भी सस्ती, सुंदर और टिकाऊ होती हैं.
क्वालिटी तो चीनी सामानों से लाख गुना बेहतर है. ब्राजील की एलजी की यूनिटें भारत में
ही हैं. भारत में सबसे पुराना और सबसे विश्वसनीय ब्रांड नोकिया है ही. और अगर जेब भरी
है तो फिर आइफोन तो है ही.
लेकिन
सावधान, अखबारों में बैठे कुछ का-मरेड लोग अभी भी मोटोरोला को अमेरिकन कंपनी बता रहे
हैं. खैर उनका क्या है! वो तो कूटनीति की बड़ी गहरी बात करते हुए भी आपको राज के अंदाज
में बता सकते हैं कि रूस भारत का पक्का वाला दोस्त है और उसी ने 62 के युद्ध में भारत
की मदद की थी. यह बताते हुए यह भी भूल जाएंगे कि 25 अक्टूबर 1962 को रूस के सरकारी
अखबार प्रावदा ने क्या छापा था और उसी साल दिसंबर में उनके प्रीमियर ने क्या कहा था.
सारगर्भित और प्रेरक आलेख।
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