कोरोना के बाद की दुनिया - 1
लॉक डाउन के एक महीने में हम भारतीयों के धैर्य, समझदारी, अपने या दूसरों के जीवन को लेकर हमारी गंभीरता और अर्थव्यवस्था के प्रति हमारे बड़े बड़े विशेषज्ञों की समझ सब कुछ सामने आ गया है। कोई यमुना तैर कर हरियाणा से यूपी तो कोई तरबूज-प्याज खरीदते बेचते मुंबई से प्रयागराज आ जा रहा है। किसी को पूजा के लिए जान की परवाह छोड़कर मंदिर जाना है तो किसी को नमाज अदा करने मस्जिद और गले भी मिलना है। कुछ लोगों को अपने स्वास्थ्य की वास्तविक स्थिति बताने तक से परहेज है और अगर चिकित्साकर्मी खबर मिलने पर जाँच के लिए उनके घर पहुँचें तो उन पर पत्थरबाजी भी करनी है। यह तो हद है कि बीमारों के इलाज के लिए चिकित्साकर्मियों को पुलिस लेकर जानी पड़े और पुलिस को उनके परिजनों-पड़ोसियों से पूरा संघर्ष करना पड़े। इतना ही नहीं, खुद को खतरे में डालकर लोगों के इलाज में जुटी नर्सों के सामने अश्लील हरकतें, सीढ़ियों की रेलिगों और अस्पताल की दीवारों तक पर थूक-लार लगाना, पेशाब-मल बोतलों में भरकर फेंकना, लोगों में संक्रमण फैलाने के इरादे से हैंडपाइप तक में मल डाल देना... निकृष्टतम सोच की सारी हदें पार कर ली गईं। कुछ लोगों को जिहाद का एक नया औजार मिल गया है – कोविड 19 नाम का वाइरस। ऐसा शायद दुनिया में पहली बार कहीं हुआ हो कि किसी सरकार को अपनी जान पर खेलकर अपना कर्तव्य निभा रहे चिकित्साकर्मियों की सुरक्षा के लिए कानून लाना पड़ा हो। इस पर कुछ विद्वान लोगों को लगता है कि उनका अलग से उल्लेख न किया जाए। तब जबकि भारत की इस जीती हुई लड़ाई को नए सिरे से हार की कगार पर लाने के लिए सिर्फ और सिर्फ वे ही जिम्मेदार हैं। इसके बावजूद भारत के कुछ बड़े-बड़े स्वयंभू विद्वान जमातियों को अलग से चिन्हित किए जाने पर इसे नफरत की खेती बता रहे हैं।
गनीमत है कि सोशल मीडिया के इस दौर में बौद्धिकता
कुछ लोगों के पास गिरवी पड़ा खेत नहीं रह गई है और न आम कहा जाने वाला आदमी उस तरह का
श्रद्धालु रह गया है जिसके लिए कोई छपी हुई किताब या अखबार अंतिम प्रमाण हुआ करता
था। वह अब हर बात पर प्रश्न उठाने लगा है। वह कोरोना के सोर्स में तब्लीग या मरकज
की अलग से गिनती को नफरत की खेती कहने वाले विद्वानों पर सवाल उठाता है कि नफरत की
खेती क्या है? वे जो निर्दोष नागरिकों की जान लेने के लिए कोरोना फैलाने में जुटे
हैं, पुलिसकर्मियों और चिकित्साकर्मियों पर थूकने और पत्थरबाजी जैसे जघन्य
कृत्य कर रहे हैं, महिला नर्सों और डॉक्टरों के सामने अश्लील हरकतें कर रहे हैं, या फिर वे जो इन
बेहूदगियों के ख़िलाफ़ बोल रहे हैं? बड़े-बड़े विद्वान लोग तब अपनी बातों की बॉल को स्पिन देते हुए एक नया
जुमला उछालते हैं। यह कि देश के दो-चार मंदिरों में भी भक्तों ने लॉकडाउन के नियम
तोड़े हैं। और इस पर जनता उनकी तरफदारी न करते हुए पूरी निष्पक्षता से सवाल उछाल
देती है – मंदिर ही नहीं गिरजा-गुरुद्वारों में भी लगा हो, पर क्या कहीं और से
आपको यह भी सूचना मिली कि श्रद्धालुओं ने पुलिस और डॉक्टरों पर पत्थर भी बरसाए हों? और क्या भीड़ जुटने
और पत्थर बरसाने को आप एक जैसी ही बात मान सकते हैं?
तो इस नए वायरस ने भारत में सबसे पहला काम जो किया
है, वह है समाज की सामूहिक चेतना पर गहरा आघात। वह आघात जो भाँति-भाँति के
बर्बर और दारुण अत्याचारों मतांतरण और करोड़ों की संख्या में नरसंहार कराने वाले तैमूर
लंग और औरंगजेब भी अपने तमाम अत्याचारों के बावजूद नहीं कर पाए थे, वह आघात जो मोपिलाओं
द्वारा किया नरसंहार भी नहीं कर पाया था, वह आघात जो भारत का विभाजन नहीं कर पाया था... कोविड-19 और इसके सुविचारित-सुनियोजित
प्रसार में कुछ लोगों की खुली भूमिका ने कर दिया है। भारत में मरकजियों के व्यवहार
के विरुद्ध कई जगह एफआईआर तक कराए गए। यह किसी राजनीतिक व्यक्ति ने नहीं बल्कि मेडिकल
स्टाफ ने कराया। इसमें थूकने और मल-मूत्र विसर्जन से लेकर अश्लील हरकतें तक शामिल हैं।
पिछले सत्तर सालों से अपना जमीर मारकर घटिया राजनीति की रसोई में चूल्हा झोंक रहे हमारे
कुछ स्वघोषित बुद्धिजीवी फिर भी सच कहना तो दूर स्वीकार करने तक को तैयार नहीं हैं।
स्वामिभक्ति ऐसी कि कोई दूसरा लिख-बोल दे तो तुरंत उसके लिए उनकी धराऊँ टक्साली गालियाँ
धुल-पुँछ कर निकल आती हैं। ये अलग बात है कि पाकिस्तान का इस्लामिक मेडिकल एसोसिएशन
अपने यहाँ इसे लेकर परेशान है। उसने साफ कहा है कि मस्जिदों से फैल रहा है कोरोना वायरस।
लेकिन हमारे स्वघोषित बुद्धिजीवियों का बस चले तो ये पाकिस्तान के इस्लामिक मेडिकल
एसोसिएशन के पीछे भी आरएसएस या विश्व हिंदू परिषद का हाथ तलाश लाएंगे।
ख़ैर, भारत की आम जनता ने इस बात को अपने ढंग से समझ लिया है। अब उसके लिए जितने
अविश्वसनीय तब्लीगी हैं, उतने ही अविश्वसनीय ये स्वघोषित बुद्धिजीवी। यह किसी और बात का नहीं, देश की समूह चेतना पर
हुए मर्मांतक आघात का नतीजा है। यह आघात केवल भारत की चेतना पर लगा हो, ऐसा नहीं है। ऐसा ही
आघात पूरी दुनिया की चेतना पर लगा है। दुनिया के स्तर पर देखें तो ऐसा ही आघात चीन
ने किया है। दुनिया के स्तर पर करोड़ों हत्याओं के बावजूद जो काम हिटलर, स्टालिन या माओ नहीं
कर पाया था, वह काम कामरेड शी जिनपिंग के चीन ने कर दिखाया है। वुहान में वाइरस के
फैलने और मौतों की संख्या तो उन्होंने छिपाई ही, अब पता चल रहा है कि जब वुहान में यह बीमारी फैल रही
थी तभी चीन इस वाइरस की दवा के पेटेंट के लिए अप्लाई कर चुका था। इससे ज्यादा बदतमीजी
चीन ने विभिन्न देशों को इस वाइरस की जाँच की किट और दूसरी चीजें भेजने में कीं। पाकिस्तान
के साथ वह बदतमीजी की सारी हदें लाँघ गया। स्पेन, इटली और फ्रांस ही नहीं, भारत को भी उसने जाँच
की गलत किट भेजी। जापान के डॉ. तासुकू होंजो ने साफ कहा कि यह वायरस प्राकृतिक हो ही
नहीं सकता। उधर अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इस वायरस के लैब से लीक हो जाने की थियरी भी
झुठला दी।
जाहिर है,
चीन जिसकी विश्वसनीयता दुनिया के पैमाने पर पहले ही
न के बराबर थी, अब उसकी विश्वसनीयता शून्य हो गई है। ख़ैर, दुनिया में कूटनीति का
गणित किसी विश्वसनीयता या अविश्वसनीयता के आधार पर तो चलता नहीं। यह पूरी तरह सुविधा
या असुविधा का गणित है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इसमें विश्वसनीयता की कोई भूमिका होती
ही नहीं। अगर आपकी बात का कोई भरोसा ही नहीं तो आप कितने भी मजबूत हों, कोई आपके साथ खड़ा होने
नहीं जा रहा है। दुनिया को अब यह बात पता चल चुकी है कि दुनिया का दादा बनने के लिए
चीन कुछ भी कर सकता है। वह आज तक जिस-जिस का भरोसा जीतने में किसी भी तरह सफल हुआ, उसकी पीठ में छुरा ही
घोंपा है। भारत, तिब्बत, हाँगकाँग, म्यांमार... ऐसे कई उदाहरण हैं। इसका ताज़ा उदाहरण इटली बना है। जिस तेज़ी
से विश्वशक्ति बनने की बात चीन ने सोची थी और जिस तरह उसने पूरी दुनिया को पूरी बेशर्मी
के साथ अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए नरक की आग में झोंका है, आने वाले दिनों में उसके
नतीजे वैसे नहीं निकलने जा रहे हैं जैसा उसने सोचा था। कोरोना से दुनिया देर-सबेर मुक्ति
तो पा ही जाएगी, लेकिन इसके बाद अब तक की दुनिया का इतिहास दो कालखंडों में बंट जाएगा-
प्री कोरोना और पोस्ट कोरोना वर्ल्ड में। पोस्ट कोरोना वर्ल्ड की वैश्विक कूटनीति में
महाशक्तियों का ध्रुवीकरण बिलकुल अलग ढंग का होगा। यह ध्रुवीकरण केवल वर्ल्ड ऑर्डर
ही नहीं, बहुत कुछ तय करने जा रहा है। आगे की दुनिया और उसमें विभिन्न देशों के
भीतर की सामाजिक, आर्थिक संरचना बहुत हद तक इसी बात पर निर्भर करने जा रही है। बहरहाल वह सब अगली
कड़ियों में।
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